देदीप्यमान लौ हूँ
(कविता)हम नदी के दो किनारे हैं
हम नदी के दो किनारे हैं
जब चलना साथ साथ है
तो इतना आघात क्यूँ
तुम ,तुम हो तो
मैं मैं क्यूँ नहीं
मैं धरा हूँ तो
तुम गगन क्यूँ नहीं
मैं बनी उल्लास तो
तुम विलास क्यूँ
मैं परछाई हूँ तुम्हारी
फिर अकेली क्यूँ
तुम एक शख्सियत हो तो
मैं मिल्कियत क्यूँ
तुम एक व्यक्ति हो तो
मैं एक वस्तु क्यूँ
तुम्हारी गरिमा की वजह हूँ मैं फिर इतना अहम् क्यूँ
तुम मेरी कायनात हो तो
मैं जायदाद क्यूँ
मैं सृष्टि हूँ तो
तुम वृष्टि बन जाओ
मैं रचना हूँ तो
तुम संरचना बन जाओ
फिर देखो
पतझड़ भी रिमझिम करेंगे
और बसंत बौराएगी
संघर्ष की पथरीली राह भी मखमली हो जाएगी
नई भोर की अगवानी में
संध्या भी गुनगुनाएगी
पता :
ज्ञानवती सक्सेना
जयपुर (राजस्थान)
जयपुर (राजस्थान)
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