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Tuesday 12 November 2019

तलाकनामा (कहानी) - जीतू कुमार गुप्ता 'जीत'


तलाकनामा
(कहानी)
मोनिका और कमल कोर्ट के बाहर तलाक के कागज हाथ में लिये खडे थे। अचानक उनका बेटा (बंटी) पापा-पापा कहते हुए मोनिका से हाथ छुडाते हुए कमल के गोद में जा उठा। दोनों कोई ढाई वर्ष बाद मिले थे। मोनिका बेटे को घसीटते हुए अपने साथ ले गयी। कमल मुक आंखो से देखता रह गया। मोनिका को ढाई वर्ष पूर्व की घटना याद आ गयी जब जज साहब ने दोनों को अलग –अलग रह्ने की मोहल्त दी थी। दोनो साथ ही कोर्ट से बाहर निकले। दोनो के परिजन साथ थे । और उनके चेहरे पर विजय और एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या और घमण्ड के निशान साफ झलक रहे थे। लेकिन मोनिका और कमल अपने ईच्छा के विरुद्ध एक दूसरे को देख कर जैसे नजरे चुरा रहें हो, पर दोनों की मुक आंखें कुछ और ही बया कर रही थी । ढाई साल की लंबी लड़ाई के बाद आज फैसला आने वाला था, दोनों के परिजन आज से चैन की सांस लेगें, पर मोनिका, कमल के मन में अलग ही द्वंद्व चल रहा था ।

आज शादी के तीन साल बाद कटघरे में खडी-खडी मोनिका सोच रही थी । वो लम्हा जब कमल मेरा गौना कराके मुझे लेने आये थे। तो अनायस ही चेहरे पर मुस्कान तैरने लगती है। पहली बार किसी अजनबी के साथ अकेले सफर पर जाना, वो भी बैलगाड़ी में। जितना बैलगाड़ी हिलती थी उतना ही मैं और शरमा जाती थी और सिमट के बैठ जाती थी । वो मुरझाई हवा भी जैसे मुझसे कोई दुश्मनी निकाल रही थी, बार बार पल्लू उड़ाये दे रही थी। मैंने कनखियों से जितनी बार झाँककर देखा उनको अपनी ओर शरारती निगाहों से देखते ही पाया।

बीच-बीच में कमल के वकील - बच्चलन है ये लडकी कमल की जिंदगी बर्बाद कर दी है। घबराहट और पसीने से तरबतर हो रही थी। उम्र भी क्या थी मेरी बस यही कोई १७ बर्ष भला सात फेरों और कुछ विवाह की रस्मों में कोई किसी को कितना जान सकता है। पहले फोन की सुविधा कहाँ थी जो एक दूसरे से बात कर पाते। और तो और अब तो लड़की-लड़के की पसन्द भी नही देखी जाती थी। हमारा रिश्ता तो घर के बड़ों ने तय किया था । शादी में मैं लम्बे घूँघट में थी और उनका चेहरा सेहरे के पीछे था। हमने तब भी एक दूसरे को नहीं देखा था। आज से चार –पांच साल पहले औरतों को लज्जा, शर्मोहया जैसे शब्द बचपन से रटा दिये जाते थे। अब तो खुल्लमखुल्ला फोन पर पूरी रात बतिया लिया करते है। अरे और तो और रिश्ता तय होते ही लड़का- लड़की को आपस में मिलना जुलना भी हो जाता है। पर हमारा जमाना अलग था। हमारे जमाने में बिल्कुल आजादी नहीं थी।

तीन साल हो गए थे शादी को मग़र साथ में कुछ महीनें ही रह पाए थे। ढाई साल तो तलाक की कार्यवाही में लग गए। आखिर वो समय आ ही गया जिसका इंतेजार दोनों पक्ष पिछ्ले ढाई साल से करते आ रहे थे । जज साहब ने अपना फैसला सुनाया- दोनों पक्षों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पे पहुची है कि दोनों पक्ष अपना-अपना समान, गहने ले–ले और बंटी जिसके साथ चाहे रह सकता है। तलाक की मंजूरी मिल जाती है । मोनिका के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी कमल के घर से लेना था और कमल के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो मोनिका से लेनी थी।

मोनिका अपने पिता के साथ कमल के घर पहुंची । दहेज में दिए समान की निशानदेही मोनिका को करनी थी। पूरे तीन वर्ष बाद ससुराल जा रही थी। लेकिन मन के किसी कोने में एक गुब्बार के साथ-साथ वहां की यादे भी थी लेकिन शायद आखरीबार ससुराल जा रही है, उसके बाद कभी नही जाना था उधर।

जैसे ही मैं कमल के घर पहुंची आसपास के सारे लोग जमा हो गये, तीन साल पहले यही वह दुवार था जब लोग मुझे देखने के लिये आसपास की औरते घुंघट के नीचे झांका करती ।पर आज की स्थिति कुछ और थी लोग ऐसे देख रहे थे मानों मैंने किसी का कत्ल के जुर्म की सजा काट कर वापस लौटी हूं ।

कमल घर में अकेला ही रहता था। मां-बाप और भाई आज ही गांव से लौटे थे ।

घर मे परिवेश करते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गई। कितनी मेहनत से सजाया था इसको मैंने। एक एक चीज में उसकी जान बसी थी। सब कुछ उसकी आँखों के सामने बना था। एक एक ईंट से धीरे धीरे बनते घरोंदे को पूरा होते देखा था । आज उसी घर को टूटते देख आंखे और मन भर आयी । सपनो का घर था उनका । कितनी शिद्दत से उन्होंने उसके सपने को पूरा किया था, और मैं भी उस वचल को पूरा करने का वादा की थी, साथ फेरे का क्या कोई महत्व नहीं खैर अब तो फैसला हो चुका है । शायद यही नियती है ।

कमल बोला- "ले लो जो कुछ भी चाहिए मैं तुझे नही रोकूंगा" आखिर लाया भी तो था तेरे लिये जब तू ही नही..................

मोनिका ने बरे गौर से कमल के आंखों मे कुछ ढुंढने का प्रयास कर रही थी । तीन साल में कितना बदल गया है। बालों में सफेदी झांकने लगी है। शरीर पहले से आधा रह गया है। तीन साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई। वह घर के स्टोर रूम की तरफ बढ़ी जहाँ उसके दहेज का अधिकतर समान पड़ा था। सामान ओल्ड फैशन का था इसलिए कबाड़ की तरह स्टोर रूम में डाल दिया था। मिला भी कितना था उसको दहेज। घर वाले तो मजबूरी में विवाह कर दिये थे। प्रेम और घमण्ड के बीच में “मैं” की भावना जो हावी हो गयी थी ।

बस एक बार शराब पीकर बहस हो गयी थी । हाथ उठा बैठा दिया था मुझपर। बस गुस्से में मायके चली गई थी। फिर चला था लगाने सिखाने का दौर । इधर कमल के भाई भाभी और उधर मोनिका की माँ। नोबत कोर्ट तक जा पहुंची और नतीजा तलाक तक । कमल की मां बहुत समझाई बेटी –‘छोटी-छोटी बात पर घर थोडे छोडा जाता है’ । हमारे समय में मर भी जाओ तो सास- ससुर का घर ही अपना होता था ।

लेकिन न मोनिका लौटी और न कमल लाने गया। लेकिन मां ने एक बार कोशीश भी की थी लेकिन मोनिका की मां और आसपास के लोग अपने अह्म के आगे किसी की न चलने दी । आखिर स्त्री की दुश्मन स्त्री ही तो होती है मर्द तो युही बदनाम है ।

मोनिका के पिता “बोले" कहाँ है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता। बेच दिया होगा इस शराबी ने ?"
"चुप रहो पापा"
मोनिका को न जाने क्यों कमल को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा।फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट में मिलाया गया। बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया। मोनिका ने सिर्फ अपना सामान लिया कमल के समान को छुवा भी नही। फिर मोनिका ने कमल को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया।

कमल ने बैग वापस मोनिका को दे दिया " रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में।" और जब तुम ही नही रही तो फिर .............
"क्यूँ, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने, बच्चलन आदि क्या-क्या चिल्ला रहा था"
"कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, मोनिका । वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी,पीयक्कर साबित किया गया है।"
सुनकर मोनिका की पिता ने नाक भों चढ़ाई।
"नही चाहिए”।
"क्यूँ?" कहकर कमल खड़ा हो गया। इसी के लिये तीन साल किच-किच और तलाक करवाया आपने। इतना कहते ही कमल की आंखे ड्ब्डबा गयी आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था। जिसे वह छुपाने का प्रयास करने लगा ।
"बस यूँ ही" मोनिका ने भी मुँह फेर लिया।
"इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी ? ले जाओ,,, काम आएगें।"
इतना कह कर कमल ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया।
मोनिका को मौका मिल गया। वो कमल के पीछे उस कमरे में चली गई। वो रो रहा था। अजीब सा मुँह बना कर। जैसे भीतर के सैलाब को दबाने की जद्दोजहद कर रहा हो। मोनिका ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था। आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला।
मग़र ज्यादा भावुक नही हुई।
सधे अंदाज में बोली "इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक?"
"मैंने नही दिया तलाक,तुमने दिया"
"दस्तखत तो तुमने भी किए"
"मनाने तो नही आये कभी ?"
"मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने। जब भी फोन किया काट दिया।"
"घर भी आ सकते थे"?
"हिम्मत नही थी?"
इतने में मोनिका के पिता आ गये। वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गए। "अब क्यों मुँह लग रही है इसके ? क्या रिश्ता है अब सब खत्म हो गया"
मोनिका के भीतर भी कुछ टूट रहा था। दिल बैठा जा रहा था। वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी। जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी। कैसे कैसे बचत कर के कमल ने वो गले का चेन खरीदा था। पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था।" टेबल पर अस्त-व्यस्त पडे हुए थे । फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई। कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी। तुलसी भी घर छोड़ गई।

घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई। पिता ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया। कमल बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था। एक बार तो उसे दया आयी उस पर। मग़र वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है। उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा। अस्त व्यस्त हो गया है पूरा कमरा। कहीं कहीं तो मकड़ी के जाले झूल रहे हैं। टेबल पर शर्ट –पैंट बिखरे पडे थे । सिगरेट की पैकेट और शराब की बोतल पलंग के नीचे पडे हुए थे ।

कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से ?
फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वो कमल से लिपट कर मुस्करा रही थी।कितने सुनहरे दिन थे वो। इतने में पापा फिर आ गए। हाथ पकड़ कर फिर बाहर ले गए।

बाहर गाड़ी आ गई थी। सामान गाड़ी में डाला जा रहा था। मोनिका सुन सी बैठी थी। कमल गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया।
मोनिका बोली- “जा रही हूं अपना ख्याल रखना” ।और मोनिका की आंखों से अश्रु की धारा बहने लगी। बिना पीछे मुडे तेजी से दहलीज पार कर ही रही थी कि कमल बोला— मोनि "मेरे बिना रह सकोगी ? "
शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए तीन साल से तड़प रही थी। सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए। मोनिका ने कोर्ट के मिले तलाकनामा निकाली और फाड़ दिया ।
और मां कुछ कहती उससे पहले ही कमल से लिपट कर मोनिका फूट-फूट कर रोने लगी। मुझे माफ कर दो कमल । साथ में दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे । और मां भरी आंखों से देखती रह गयी ।
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पता:
जीतू कुमार गुप्ता 'जीत'
होजाई (असम)
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अमीरी की रेखा (व्यंग्य लघुककथा) - संतराम पाण्डेय

अमीरी की रेखा
(व्यंग्य लघुकथा)

रेखाएं तो बहुत हैं। इन्हीं रेखाओं के जाल के जंजाल में मनुष्य फंसा पड़ा है। एक देश से दूसरे देश तक। एक-एक इंच जमीन पर भी रेखाएं खिंची पड़ी हैं। बिना रेखा के किसी की औकात ही नहीं नपती। रेखा हो तो औकात तय हो जाती है। सरकार से लेकर उद्योगपति तक। गरीब से लेकर अमीर तक। गरीब तो गरीबी रेखा खिेच जाने से मुतमईन हैं। लेकिन अमीरी की कोई रेखा अब तक न बना पाई कोई सरकार। सरकार गरीबी से ज्यादा परेशान है। वह हर साल गरीबी की रेखा बनाती है और गरीब हैं कि इस रेखा से उतरने का नाम ही नहीं लेते। उनको इसमें ही आनंद आता है। इसे उन्होंने अपने किस्मत की रेखा जो मान ली। सरकार की पेशानी पर बल इसलिए पड़ जाता है कि गरीबी की रेखा छोटी होने का नाम ही नहीं लेती।

सरेखचन्द जी गरीबी की रेखा से तंग नहीं हैं। उनकी चिंता की वजह अमीरी की रेखा का न होना है। सरकार से वह इसलिए खफ़़ा हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक किसी सरकार ने अमीरी की रेखा तय नहीं की। वह कहते हैं कि कोई तो ऐसी रेखा बने जो अमीरी की बार्डर लाइन बने लेकिन सरकार है कि चेत ही नहीं रही।

सरकारों को अपने निशाने पर लेते हुए वह कहते हैं-जब से होश संभाला, यही देखा कि इस बीच सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय वालों को भी यह बात याद न रही। समतामूलक समाज वाले भी इसे भूल गए। समाजवादी समाजवाद लाने में ही रह गए। सेकुलरवादियों का तो पूछो ही मत ना, वो सारे देश को सेकुलरिज्म का पाठ पढ़ाते पढ़ाते देश का भविष्य बनते बनते खुद ही भूत हो लिए। अब सबका साथ, सबका बिकास की बात चल रही है, लेकिन अमीरी की कोई रेखा खींचने के काम का एजेंडा किसी सरकार के पास भी नहीं दिख रहा।

बात अमीरी की रेखा की चल रही है। अब गरीब रोज ही गरीबी के रेखा से नीचे जाने को तैयार बैठा है। बस, एक ही तसल्ली है कि गरीबी की रेखा से नीचे वालों को सरकार याद रखती है। अमीरी की न कोई नीचे की रेखा है न ऊपर की। सो सरकार को चिंता की कोई बात नहीं लगती। सरकारें बनाने और बिगाडऩे में गरीबी की रेखा के नीचे वालों का बड़ा योगदान रहता है। सो सरकारें सरक सरक कर चलती आ रहीं। जबसे अमीर सरकार बनाने की दौड़ में शामिल हुए, तब से सरकारें दौडऩे लगीं। अब सरकारें सरकती नहीं, दौड़ती हैं। समझ में कम आ रहा है कि जर्रे-जर्रे पर गरीबी आबाद है या अमीरी? उस पर राज कौन कर रही है डिप्लोमेसी या फिजियोथेरेपी? सब कुछ ऐसे ही चल रहा है और हम सरेखचन्द जैसे लोग अपनी हैसियत ढूंढ रहे हैं और वो हैं कि हमारी औकात बताय दे रहे हैं। हम मन की अमीरी में खुश हैं और वो तन की अमीरी में। हम अपनी गरीबी की रेखा के तले दबे जा रहे हैं और उनकी अमीरी निर्बाध कुलांचें मार रही है उफनती नदी की तरह। 

तभी निरहुआ बोल पड़ा। कहते हैं कि किस्मतें ऊपर वाला तय करता है लेकिन कुछ एप्लिकेशन तो लेता ही होगा। हम आज तक न ढूंढ पाए कि अमीर बनने की एप्लिकेशन कहाँ पड़ती है। इसीलिए निरहुआ बना घूम रहा हूं। और आप भी सरेख ही बने रहे। अमीरचंद क्यों नहीं बन जाते। आप तो बड़े अमीरों में उठते-बैठते हो। ऊपर तक पहुँच है। थोड़ा और जोर लगाइए। एक दरख्वास्त डाल ही दीजिये। फिर सरेखचन्द से अमीरचंद बन जाओगे। पीछे मेरा भी भला हो जाएगा। कुछ तो करो। सरकार तो अमीर बनाने से रही। न इसका कानून बनेगा, न कोई बनाने की बात करेगा। रेल का टिकट लेने जाते हैं तो सबसे छोटी लाइन में खड़े हो जाते हैं, नंबर जल्दी आ जाता है। टिकट की लाइन की भी कोई रेखा नहीं है। बढ़ती ही जाती है अमीरी की तरह। गरीबी की रेखा हमारे फायदे के लिए है। गरीबी की रेखा न होती तो न जाने कितने अमीरों का दिवाला निकल चुका होता। गरीब कोई है। गरीबी की रेखा कोई और बनाता है और उसका फायदा कोई और उठाकर अमीर बन जाता है। गरीब वहीं का वहीं। उसकी रेखा है न। वह गरीबी की रेखा के नीचे से निकल ही नहीं पाता। 

अब तो सरकार या तो अमीरी की रेखा बना ले या हमको गरीबी की रेखा से बाहर निकाले।
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पता:
संतराम पाण्डेय
मेरठ (उत्तर प्रदेश)


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सदा गुरबत (ग़ज़ल) - अजगर अली 'असग़र इन्दौरी'

सदा गुरबत
(ग़ज़ल)
हमारे पास सरमाया नही है ।
कोई पीपल कोई छाया नही है ।।

वहा उल्फत की बारिश हो रही है ।
यहा पे अब्र का साया नही है ।।

तुम्हारी याद से जो खील उठाथा ।
अभी वो फुल मुरझाया नही है ।।

मेरे दिल की भी सांकल हिल रही है ।
मगर अन्दर कोई आया नही है ।।

कभी आया था वो आँखो मेरी ।
तुम्हारा ख्वाब फिर आया नही है ।।

ना जाने कब कहा पे गिर पड़ेगा ।
तुम्हारे झूठ का पाया नही है ।।

बलाकी भीड़ थी मय्यत मे मेरी ।
जिसे आना था वो आया नही है।।

हमारा पेट सदियो से भरा है ।
सिवाए ग़म के कुछ खाया नही है ।।

सदा गुरबत तेरी आँखो मे असग़र ।
सुकूनो चेन का साया नही है ।।
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पता:
अजगर अली 'असग़र इन्दौरी'
इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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भयादोहन (कविता) - राजु बड़ो


भयादोहन
(कविता)

यह जिंदगी का एक अनोखा हिस्सा है
यह बनाती नई नई किस्सा है
सदियों से चली आ रही दुश्कर्म है
छल का दूसरा अंदीज है।
कभी अपनों का कभी गैरों का
यह शिकार का अचुक खंजर है
वार इसका कभी खाली नही जाती
जब तक समझे सब कुछ खो देती है।
स्वार्थ, गरुर और नफरत का
यह एक ब्रम्हास्त्र है
कभी न उभर पानेवाला गहरी घई है
जिसका इंतकाम भी तबाही ही होती है।
जाने अनजाने हम इसके शिकार होते हैं
समझौता भरी जिंदगी जीते हैं
दाँव पर हमारी जिंदगी लगी होती है
बाजी कोई जीत लेता है।
बिन जंजीर के हम गुलाम बन जाते हैं
बाहर होकर भी सलाखों के अंदर जीते हैं
चाहे हम किसी की बोझ न बने हो
आखिर में हम बोझ ढोकर ही जीते हैं।
यह दयादोहन भरी जिंदगी है
यह समझौता भरी जिंदगी है
जीने की चाह मे हम झेल लेते हैं
पर पल पल में हम मरते रहते हैं।
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पता :
राजु बड़ो
माजबाट (असम)

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नींव की ईंट (कहानी) - गिरधारी विजय 'अतुल'

नींव की ईंट
(कहानी)
उसे इस शहर में आए हुए कुछ महीने ही हुए थे। गाँव में आई भयंकर बाढ़ ने इस साल भी उसकी सारी फसल को चैपट कर दिया था। पिछले तीन साल से लगातार भारी बाढ़ उसकी फसल के लिए राहु-केतू बने हुए थीं। प्रकृति की भी अजीब लीला है-कहीं घोर अकाल से धरती एक बूँद पानी को भी तरस जाती है, तो कहीं-कहीं अथाह जल-भंडार से वह अपना संतुलन खो बैठती है। इन तीन सालों में अत्यधिक ऋण के कारण उसकी कमर टूट गई थी। उसकी माली हालत बद से बदतर हो गई थी। कल का अन्नदाता कहा जाने वाला किसान, आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस गया। सो, दो बीघा खेत को मजबूरन औने-पौने दामों में बेचकर सारा कर्जा उतारा। इकलौता तीस साल का बेटा अपनी पत्नी-बच्चों संग इन हालातों को देखकर गाँव छोड़कर पराये शहर कमाने चला गया। जो आज दिन तक वापिस नहीं लौटा। थोड़ा बहुत बचा हुआ पैसा पत्नी की बीमारी में जाता रहा परंतु पत्नी भी उसका साथ छोड़कर परलोक सिधार गई। समय के साथ उसके नजदीकी रिश्तेदारों ने भी मुँह फेर लिया। 

इस शहर में वह मकानों के निर्माण कार्य में मजदूरी करता है। कच्ची बस्ती में किराये का कमरा लेकर रहता है। पहले वह बेलदारी किया करता था। सीमेंट-रोड़ी-बजरी की पाराती उठाया करता था। पचास वर्ष की अवस्था में शरीर को बुरी तरह थका देने वाला यह काम। थकान ऐसी कि रात को खाना खाने के पष्चात् जमीन पर लेटते ही गहरी नींद। सच है-नींद केवल सच्ची मेहनत और थकान की दासी है, मखमली बिस्तर की नहीं। धीरे-धीरे वह कुषल कारीगर हो चला था। इतना कुषल कि नींव से निर्माण तक पूरा मकान नई-नई डिजायन में बना या बनवा सकता था। उसे आर्टिटेक्चर कोई डिजायन दे तो वह बड़ी प्रवीणता तथा बुद्धिमता से किसी भी मकान को मनचाहा आकार दे सकता है। उसके आर्थिक हालात शैनेःशैनेः सुधरने लगे है। अब उसने अच्छी कालोनी में कमरा किराये पर ले लिया है। 

एक दिन एक अच्छा अवसर उसके हाथ लगा। उसे किसी बड़े उद्योगपति का तीन मंजिला बंगला बनाने का आर्डर मिला। अब बाजार में उसकी पैठ हो गई थी। भवन निर्माण से संबंधित माल बेचने वाले दुकानदार उसे जानने लगे थे। अब मजदूर उसके अधीन काम किया करते थे। मुख्य ठेकेदार से बातचीत के बाद बंगले का काम प्रारंभ हुआ। उसके कुषल निर्देषन में बंगला धीरे-धीरे अपना सुंदर आकार लेता गया। आर्टिटेक्चर के नक्षानुसार वह बंगले का निर्माण करता चला गया। दूसरी ओर वास्तुकार के दिशा-निर्देशों का भी उसने पूरी तरह पालन किया। हाल, कमरे, बैडरूम या रसोई किस दिशा में होने चाहिए, कैसे होने चाहिए, उसने सब वैसे ही बनाया। पूरा तीन मंजिला बंगला सीमेंट-प्लास्टर सहित खड़ा कर दिया। अब उसका बंगले में कोई काम शेष नहीं रह गया था। मकान के श्रृंगार के दूसरे काम जैसे-टाईल्स, मार्बल, ग्रेनाइट, सेनैट्री, कलर आदि का जिम्मा दूसरे कारीगरों को दिया गया। 
पोष का महीना। रात्रि आठ बजे का समय। बर्फीली हवाएँ चल रही हैं। आज इस बंगले का गृह-प्रवेश है। पूरा बंगला रंग-बिरंगी तथा सुनहरी लाईट की झालरों से जगमगा रहा है। बंगले के बाहर दो पहिया वाहनों की अपेक्षा चैपहिया वाहनों की लंबी कतारें हैं। बंगले के गेट पर मालिक अपनी पत्नी संग मेहमानों के स्वागत के लिए आतुर हैं। बंगले निर्माण से जुड़े सभी लोग आए हुए हैं। जैसे चित्रकार-जिसकी पैंटिंग्स को भवन मालिक ने महँगे दामों में खरीदकर भीतर सजाया है। शिल्पकार-जिसकी मूर्तियों को खरीदकर डाइनिंग हाल को बहुत खूबसूरत बनाया गया है। बागवान-जिसने बंगले के अंदर स्थित गार्डन को अपनी कलाकारी से बेहतरीन बनाया। वास्तुकार-जिसने सारे वास्तु-दोषों को खत्म करने का दावा करते हुए बंगले से हर प्रकार का संकट खत्म हो जाने की बात कही है। 

सुबह से वह फोन की प्रतीक्षा कर रहा है। उसे विश्वास था कि गृह-प्रवेश के लिए मालिक उसे जरूर याद करेंगे। दिन भर काम से थका-हारा अपने कमरे में वह खाना खाकर कंबल ओढ़कर सोने का प्रयास करता है। मगर आज उसे वैसे वाली मीठी नींद नहीं आ रही है, जैसी रोज आया करती है। आखिरकार यही विचार-मंथन करते हुए उसे नींद आ गई-‘‘क्या नींव की ईंट का कोई महत्व नहीं है? सिर्फ कंगूरा ही किसी भवन की शोभा बढ़ाता है? क्या एक किसान या मजदूर को सृजनकार कहलाने का अधिकार नहीं है? एक मजदूर जिसने पहली ईंट से लेकर आखिरी ईंट तक अपना पसीना बहाया, क्या उसका कोई मूल्य नहीं है?’’
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पता:
गिरधारी विजय 'अतुल'
जयपुर (राजस्थान)

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गुरूओं के गुरू नानक देवजी (आलेख) - अशोक वाधवाणी


गुरूओं के गुरू नानक देवजी
(आलेख)

सिख और सिंधी समुदाय में समान रूप से श्रद्धेय गुरू नानक देवजी की पढ़ाई में अरूचि के चलते 7 – 8 वर्ष की बाल्यावस्था में स्कूल छूट गया।वे लड़कपन से ही कुशाग्रबुद्धी थे।स्कूल में पढ़ाई के दौरान शिक्षकों पर प्रश्नों की बौछार करते थे तो शिक्षक हतप्रभ , निरूत्तर होते थे।शिक्षकगण उनकी बुद्धि का लोहा मानने पर मजबूर हो जाते थे।युवावस्था तक आते – आते अपने चमत्कारों ने समस्त गांववालों को अचंभित अभिभुत किया।उनकी बहन नानकी और गांव के शासक राय बुलार पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा।

घर गृहस्थी का सुख त्याग कर उन्होंने अपने चार साथियों के साथ देश – विदेश की तिर्थयात्राएं की।इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियां ‘कहा जाता है।उनके सुविचारआधुनिक युग में अधिक प्रासंगिक हैं।उनके जीवन की ढेर सारी हृदयस्पर्शी , मर्मस्पर्शी घटनाएं और प्रेरक प्रसंग हैं , जोकि उनकी महानता , दयालुता दर्शाने के लिए काफी हैं।

एक बार वे बदमाशों के गांव पहुंचे।गांववासियों को आशीर्वाद देते हुए कहा , ‘ यहीं बसे रहो।‘इसी तरह सज्जन और विद्वानों से भरे व्यक्तियों के गांव पहुंचकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा , ‘ उजड़ जाओ।‘इसके पीछे गहरा मर्म छिपा हुआ है।उनका तात्पर्य यह था कि बुरे लोग गांव से निकलकर बाहर जाएंगे तो बुराई ही फैलाएंगे।इसके विपरीत अच्छे – भले लोग भिन्न – भिन्न जगहों पर जाकर सत्य, भाईचारे का प्रकाश फैलाएंगे।सदैव समाज हित का ही काम करेंगे।

नानक जी को उनके पिताजी ने कुछ रूपए दिये और पड़ौसी गांव से कुछ ऐसी चीजें खरीदकर लाने को कहा, जिससे शुद्ध लाभ कमाया जी सके।रास्ते में नानकजी को साधु मण्डली मिली, जिन्होंने उपवास रखा हुआ था।उन साधुओं को परम्‌ विश्वास था कि कोई प्रभु का प्यारा उनके भोजन का बंदोबस्त अवश्य करेगा।नानकजी के दिल में दया उत्पन्न हुई।उन्होंने पिताजी द्वारा दिए गए रुपयों में से साधुओं के खाने – पीने का उचित प्रबंध किया।खाली हाथ घर लौट आए।उन्होंने अपने पिताजी को आकर बताया कि वे “सच्चा सौदा “कर आए हैं।यह प्रसंग उनके दया , धर्म , कर्म के प्रति गहरी आस्था का परिचायक है ।उन्होंने 70 साल की उम्र में खेतों में हल चलाकर सारे संसारवासियों को सुंदर , सटीक, सार्थक संदेश दिया कि शरीर को चुस्त , दुरूस्त , स्वस्थ रखने के लिए सक्रियता अत्यावश्यक है।निष्क्रियता आदमी को आलसी बनाता है।निकम्मा , निठल्लापन नकारात्मक विचारों को न्यौता देने जैसा है ।

वे न सिर्फ़ महान दार्शनिक थे , बल्कि धर्म सुधारक , समाज सुधारक भी थे ।पंजाबी के अलावा संस्कृत , सिंधी आदि भाषाओं पर उनकी पकड़ मजबूत थी।उनके विचारों में कोमलता , भावुकता , उदारता , दयालुता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।उन्होंने हमेशा पुराने रूढिवादी विचारों , कुरूतियों का जमकर विरोध किया।वे अंधविश्वास और मूर्ति पूजा के प्रबल विरोधी थे।उन्होंने सामाजिक , राजनैतिक , धार्मिक आदि विषयों पर भी तीखे प्रहार किए। वे सही मायनों में 'क्रांतिकारी ' संत थे।

जीवन के अंतिम पड़ाव के पहले करतारपुर( अब पाकिस्तान ) में नगर बसाया।वहीं धर्मशाला बनवायी।यहीं से ही ‘लंगर ‘प्रथा कि सराहनीय , अभिनंदनीय , अनुकरणीय और वंदनीय प्रथा का शुभारंभ किया।देश –विदेश के सभी सिख समाजवालों ने इसे तन, मन, धन से स्वीकारा है।आज यह उनकी सम्मानजनक पहचान बन चुकी है , जोकि काबिले गौर भी है।

कुछ साल पहले टी. वी. पर देखा हुआ एक महत्वपूर्ण, अविस्मरणीय कार्यक्रम का स्मरण होते ही हिंदुस्तानी होने पर गर्व की अनुभूति होती है।सिख समुदाय द्वारा गुरू नानक देवजी कीजयंती पर न्यूयार्क ( अमरीका ) में एक भव्य जुलूस निकाला गया था।जुलूस देखकर विश्वास कर पाना कठिन था कि अंग्रेजों की विदेशी भूमि पर यह हो रहा है।सिख महिलाएं, पुरूषों और बच्चों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कुछ स्थानिय अंग्रेज स्त्री – पुरूष भी हंसी – ख़ुशी शामिल थे।जुलूस समापन के पश्चात्, सभी अंग्रेजों को जमीन पर बैठ कर चमचों , कांटों का इस्तेमाल किए बिना अपने हाथों से ‘लंगर ‘का आस्वाद लेते देखना साश्चर्य जनक रहा।मैं इसे भारतीय सभ्यता , संस्कृति , परम्परा का आदर मानता हूं ।
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पता :
अशोक वाधवाणी
कोल्हापुर (महाराष्ट्र)

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