■■ होली की प्रासंगिकता ■■
(आलेख)
रंगों और हास- परिहास से परिपूर्ण पर्व होली वसंत ऋतु में आती है जब चारों तरफ सौंदर्य अपने चरम पर होता है। समूची धरती रंग बिरंगे फूलों से लदी होती है। पेड़ अपने पुराने पत्ते उतार फेंकते हैं और नई कोंपलों से निखर जाते हैं। होली अवसर देती है कि हम भी सारी पुरानी सोच और रूढ़ियों का परित्याग नई सोच से अपने जीवन को सजाएं। नकारात्मक भावों को त्याग कर सकारात्मकता को अपनाएं।
साथ ही होली बुराई पर अच्छाई, असुरत्व पर देवत्व, भोग पर योग की विजय का प्रतीक उत्सव है। यह हमारे अंतर की दानवता, कलुषता का दहन कर आचरण को निर्मलता से रंगने का पर्व है।
रंगो का हमारे मनोभावों और मनोभावों का हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब हम अपनी पसंद का रंग दूसरों पर लगाते हैं तब हमें एक तरह के आनंद की प्रतीति होती है ।फलस्वरूप शरीर पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रंग और कीचड़ से सने चेहरे देख हमें सहज ही हंसी आ जाती है। दूसरों को रंगना और उपहास करना यह सब माहौल को हल्का बनाने में सहायक होते हैं। हास्य की उपचारक शक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता है। हंसना एक प्रकार का व्यायाम होता है जिससे शरीर की जकड़न दूर हो जाती है। हंसने के दौरान ध्यान भटकता है। कुछ क्षण के लिए बाहरी संसार से के हम कट जाते हैं जिससे हमारा तनाव भी कम हो जाता है और वह हमें स्वस्थ रखने में सहायक होता है।
भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में होली की प्रासंगिकता एक अन्य रूप में भी दिखाई पड़ती है। यहां स्त्रियों और पुरुषों की स्थिति में काफी अंतर पाया जाता है। स्त्रियों को कदम दर कदम दबाया जाता है। हर जगह समझौते करने पड़ते हैं। पुरुषों की तुलना में उन्हें कम अधिकार प्राप्त होता है। होली के इस अवसर पर उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों खासकर ब्रज में होली पर उन्हें अवसर प्रदान किया जाता है। वे पुरुषों की पिटाई लाठी से करती हैं और पुरूष अपनी रक्षा के लिए ढाल का प्रयोग करते हैं। इस तरह शोषित वर्ग को उसके विकारों और भावना से मुक्ति प्रदान करती है होली।
होली से पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं।
पूरे वर्ष में आने वाले चार प्रमुख रात्रियों में से एक होलिका- दहन की रात्रि मानी जाती है। जिसके पीछे राक्षस राज हिरण्यकशिपु और प्रहलाद - होलिका की कहानी भी प्रसिद्ध है। जिसके अनुसार हिरण्यकशिपु ने अपने विष्णु भक्त पुत्र प्रहलाद को मारने के लिए अपनी बहन होलिका की सहायता ली थी ।
होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती है । जैसे ही प्रह्लाद को गोद में लेकर होलिका ने अग्नि- समाधि ली ,उसकी वरदान वाली दुशाला प्रहलाद पर आ गिरी और आसुरी शक्ति की प्रतीक होलिका ही जलकर मर गई। प्रहलाद सुरक्षित अग्नि से बाहर आ गए । इसके अलावा फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भगवान शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने की कहानी प्रचलित है। महर्षि दधीचि द्वारा इसी पुण्य दिवस पर अपनी अस्थियां दान करने की कथा भी प्रसिद्ध है
पहले होली आठ-दस दिन पहले घर से निकलना मुश्किल होता था। लोग फ़टे- पुराने वस्त्र पहन बाहर निकलते थे ताकि अचानक पड़ने वाले रंगों की बौछार से नए कपड़े खराब ना हो जाए। किंतु आज होली के दिन भी आराम से लोग 8:00 बजे सोकर उठते फिर चाय नाश्ता कर किसी क्लब या पार्क में जाकर रंग खेलने की रस्म अदायगी कर लेते हैं। बैकग्राउंड में 70- 80 के दशक के होली वाले फिल्मी गाने बजाते हैं ताकि होली का माहौल बन जाये। आज के इस मशीनी युग में होली जैसा सुंदर पर्व अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है। रोज-रोज चलने वाली पार्टियों के दौर में अब इस पर्व की जरूरत शायद किसी को नहीं रही। नारी इतनी उन्मुक्त और खुले विचारों की हो चुकी है कि अब उससे अपने आप को स्वतंत्र दिखाने के लिए किसी पर्व विशेष की आवश्यकता भी नहीं रही।
कोई भी पर्व 'उत्सव' का रूप तभी लेता है जब उसे सामूहिक रूप से मनाया जाए। होली की प्रासंगिकता तभी सिद्ध होगी जब हम सब राष्ट्र समाज तथा वैचारिक रूप से एकजुट हो। नकारात्मकता का दहन आंतरिक रूप से किया जाए। भारत मां को आपसी स्नेह, सौहार्द के रंग से रंग कर ही होली सही मायने में होली बन सकती है।
-०-
अलका 'सोनी'बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)
-०-