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Tuesday 27 October 2020

बाजारवाद (कविता) - अ कीर्तिवर्धन

बाजारवाद
(कविता)
मैंने कहा
भारतीय संस्कृति मे
बेटी के घर का खाना
उचित नहीं माना जाता,
हमारी परम्परा
बहन ,बेटी को देने की है
उनसे कुछ भी लेने की नहीं|

लोगों ऩे मुझे पढ़ा,सुना और
अतीत की दिवार पर चस्पा कर दिया,
मुझे भारी जवानी मे
बूढ़ा करार दे दिया गया|
बाजारवाद के इस दौर मे
सभ्यता और संस्कृति के
शाश्वत नियमों का उल्लंघन,
अंतहीन,प्रयोजन रहित
बहस करना
वर्तमान बता दिया|
और
एक नई बहस को जन्म दिया
कि नारी
मात्र वस्तु है,भोग्य है
तथा
उसे विज्ञापन बना दिया,
घर,दफ्तर से
दिवार पर लगे पोस्टर तक|
और नारी खुश हो गई
पैसों कि चमक मे|
शायद
इन आधुनिक बाजारवादी लोगों के लिए
कल बहन और बेटी भी
वस्तु / विज्ञापन
या भोग्य बन जायेंगी
यही इनका भविष्य होगा|
और हम
काल के गर्त मे समाकर
प्राचीन असभ्य युग मे
वापस आ जायेंगे |

सच ही तो है
इतिहास स्वयं को दोहराता है |
स्रष्टि के विकास क्रम मे
मनुष्य नंगा रहता था,
आज हम पुनः
बाजारवाद की दौड़ मे
सभ्यता को छोड़कर
नग्नता की और बढ़ रहे हैं,
मन से भी और तन से भी |
प्राचीन कबीलाई संस्कृति को
पुनः अपना रहे हैं,
जातिवाद,क्षेत्रवाद व धर्मवाद के
नए कबीले
तैयार किये जा रहे हैं|

असभ्य मानव
अज्ञानवश पशुओं को खाता था
आज बाजारवाद मे
प्रायोजित तरीकों से
पशु-पक्षियों को
खादय बताया जा रहा है,
जिसके कारण
अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गयी
कुछ होने के कगार पर हैं,
मगर हम सभ्य हैं,
बाज़ार की भाषा मे
विकास कर रहे हैं,
जंगलों को काटकर
मकान तथा
अस्त्र शस्त्र निर्माण कर रहे हैं|
अब हैजे या प्लेग जैसी
बीमारी की जरुरत नहीं,
सिर्फ एक बम ही काफी है
लाखों लोग नींद मे सो जायेंगे,
उनके संसाधनों पर
हम कब्ज़ा जमायेंगे|

यही तो होता था,
कबीलों मे भी
जिसने जीता
स्त्री,पुरुष,धन संपत्ति
सब उसकी
और आज भी यही होता है
जंगल के राजा
शेर के व्यवहार मे
बंदरों के संसार मे,
और
इन आधुनिकों के
उन्मुक्त विचार मे,घर,व्यापार मे|

हम
सुनहरे कल की और बढ़ रहे हैं,
वह सुनहरा कल
जिसका आधार
बीता हुआ कल है,
जिसका वर्तमान
लंगड़ा व अँधा है,
जिसका भविष्य
अंधकारमय है,
और
जो स्थिर होना चाहता है
बाजारवाद के
खोखले कन्धों पर |
तमसों माँ ज्योतिर्गमय |
-०-
पता: 
अ कीर्तिवर्धन



***
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याद का दीपक (कविता) - सपना परिहार

 

याद का दीपक
(कविता)
याद का दीपक जलता है
कोई चुपके-चुपके पिघलता है
रहता है अक्सर तन्हाई में वो
पर मुँह से उफ़्फ़ तक न कहता है।
उम्मीद का दिया जलाया है उसने
मन मे ढेर सारी आस लिए
न सोता है वो इस इंतजार में
वो आएगा जरूर ये दिल कहता है।
सुबह सूनी है,शाम अधूरी लगती है
शायद उसकी कोई मजबूरी लगती है
अंतिम साँस तक ये दिया जलेगा
तुमसे मेरा मन ये कहता है।
उसके बिना जीवन मे अंधियारा है
उसके होने से दीवाली का उजियारा है
काली अमावस भी पूनम हो जाती है
जो वो मेरे आस-पास रहता है।
रंगोली,वन्दनवार, रोशनी ,दीपक
तुम बिन सब अधूरे से लगते है
साथ तुम हो तो श्रृंगार पूरे लगते है
देहरी पर आज भी आस का दिया जलता है
तुम जल्दी आओगे मेरा मन ये कहता है।
-०-
पता:
सपना परिहार 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

-०-
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यूं ना छोड़ (कविता) - निधि शर्मा

  

 यूं ना छोड़
(कविता)
तुझसे विश्वास पाकर
ही मैने मंजिल की ओर
कदम बढाया था,
और अब राह के
कांटे देखकर,
यूं ना छोड़
मुझे तू बीच राह में।

अभी तो चलना है,
तेरे साथ ही मुझे
आखिरी कदम रखकर
गंतव्य को पाना है,
बरकरार रख, उस उत्साह
और हौसले को जिसने
ये मार्ग दिखाया था,
मेरे आत्मविश्वास!
यूं ना छोड़
मुझे तू बीच राह में।
-०-
पता:
निधि शर्मा
जयपुर (राजस्थान)


-०-


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