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Tuesday, 11 February 2020

पुतले का ख़त! (पत्र) - नागेश सू. शेवाळकर

पुतले का ख़त
(पत्र)
हमारे प्यारे भक्तों ,
नही। हम आप को कोई आशिर्वाद नही दे सकते। क्योंकि हमने कोई शब्द लिखा तो आप सीधे सीधे हमारे जात और धर्म पर जाओगे। हमे किसी ना किसी धर्म या जातिसे जोडोगे। एक बात साफ तौरसे हम स्पष्ट करते है कि, यह खत हम सब धर्म के पुतले मिलकर लिख रहे है। पहले ही आप लोगो ने हमारे जैसे महात्मा, समाजसुधारक जैसे लोगोंको जाति-धर्म मे बाँट दिया है। हर एक धर्म को किसी ना किसी रंग मे रंग दिया है। वह रंग उस धर्म की पहचान बन गया है। वैसे देखा जाए तो पाणी का कोई रंग नही होता है। लेकिन मेरे भक्तों, आपने पाणी को भी छुत-अछुत की खेल मे पकड रखा है।

मेरे भाईयों, क्या अवस्था कर रखी है हमारी ? आपकी व्यवस्था ने हमे पत्थर के पुतले बना रखा है। जिंदा थे तब भी कभी सुकुन से ना खा सकते और ना ही चैन की निंद सो सकते थे हम। मरने के बाद कुछ शांति के पल का आनंद भी हमारे नसी़ब मे नही है। स्वर्ग मे रह कर भी उन सुखों का हम आनंद नही ले सकते है, जिन्हे आप लोग स्वर्ग सुख कहते हो। आप की भूमी कभी स्वर्ग जैसी थी, लेकिन आप लोगोंकी करतुतोंसे वह भी नरक बन चुकी है। कभी कभी यह स्वर्ग छोडकर उस नरक मे आना पडता है। वहाँ हमारे पुतलों की जो अवस्था आप मे से कोई लोग करते है, वह देख कर हमे बडा दुख होता है। कोई सरफिरा पुतला फोडता है, कोई हमे चपलोंकी माला पहनाता है, कोई स्याही फेंकता है तो कोई अन्य वस्तु डाल कर हमारा चेहरा खराब कर देता है। ऐसी कोई घटना घटते ही आप दो जाति-धर्म के लोग आपस मे भीड जाते हो। गुस्से से लाल होकर एक दूसरे के जान के दुश्मन बन जाते हो। एक दूसरे पर हल्ला बोलकर किसी का सर फोडते हो तो किसी के हाथ पैर तोड देते हो। कितनी माता- बहनों के सर से सिंदूर मिट जाता है। आम तौर पर कभी किसी को जाति याद नही आती। लेकिन दूसरे जाति का कोई आदमी तुम्हारे जाति के बारे मे कुछ कहे या आँख टेढी कर के देखे तो आप का खुन खौलता है। आप के अहंकार को ठ़ेस पहूंचती है। सर पर खून सवार होते ही आप सामनेवाले पे टुट पडते हो। क्या आप का धर्म यही सीखा़ता है? आप जैसे सर फिरे गुस्से से बेकाबू होकर पुतलों पे निशाना साधते हो। पुतलों को तोडते हो या अन्य कोई हथकंडा अपनाकर हमे प्रताडित करते हो, अपमानित करते हो। किस धर्म मे ऐसी सीख है कि निरपराध लोगोंको मार गिराओ? कौन से महात्माओने या संतोने ऐसा संदेश दिया है? 

बहुत प्यार करते हो ना हमसे, बडे लाड- प्यारसे, बडे आनंद से हमे बिठाते हो। लेकिन कहाँ बिठा़ते हो? चौक मे...गाँव के बाहर...खुली जगह पर हमे खडा करते हो। आप के आदर्श, पूज्य व्यक्ती का स्थान ऐसी जगह ? हमारे लिए तुम्हारे मन मे इतना प्यार है, इतनी भक्ती है तो हमे ऐसी खुली जगह क्यों बैठने की सजा देते हो? चारों तरफसे मैदान होता है। हाँ, हमारे सरपर एक छोटासा छत्र जरूर होता है। लेकिन वह इतना छोटा होता है की,वह हमारी धूप, थंड, बरसात से कोई रक्षा नही कर सकता । हम जब तुफानी बरसात का सामना करते है, कडी धूप से टक्कर लेते है या फिर थंड से बचने की कोशीश करते है तो आप लोग दूम दबाकर घर मे छिपे बैठते है। क्या यह हमारा अपमान नही है? क्या यह हमारी विटंबना नही है? इन सब बातोंका हम क्यों सामना करें? क्या महात्माओंके नसी़ब मे यह सब होता है? पल भर की गरमी आप नही सह सकते? पंखा या कूलर जैसी व्यवस्था का सहारा लेते हो फिर कभी हमारे बारे में सोचा है? किस हाल मे हम रहते है? बहुत सारे मंदिर या प्रार्थना स्थल वातानुकूलित है फिर हमे क्यों आसमान का छत दिलाते हो? कुछ पुतलों की व्यवस्था बडी अच्छी होती है। उन के इर्द गिर्द बागबगिचा होता है फिर हमसे ऐसा सौतेला बर्ताव क्यों? सभी पुतलों की एक जैसी व्यवस्था होनी ही चाहिए। चाहे वह गाँव मे बसा पुतला हो या बडे शहरों मे खडा पुतला हो। अरे, भाई, हमे भगवान मानते हो ना , भक्ती युक्त अंत:करणसे हमारी प्रार्थना करते हो ना तो फिर हमारे साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों? बडी अच्छी इमारत मे हमे क्यों नही बिठा़ते हो? रात के अंधेरे मे यहाँ कौन कौन आता है, क्या अनाप शनाप बकता है, ये आप को है पता? कौन यहाँ बैठ कर क्या खाता है, क्या पिता है ये सब हमे मालुम है। 

एक और बात, हमारी जयंती या पुण्यतिथी तो मनाते हो लेकिन बहुत सारे जगहोंपर जयंती को हमे पहनायी गयी पुष्पमालाऐं पुण्यतिथी के समय और पुण्यतिथी को पहनायी गयी पुष्पमालाऐं हमारी जयंती को निकाली जाती है। ऐसा क्यों? दो तीन दिन बाद सुखी हुई मालाओंका भार हम क ई महिनोंतक क्यों संभाले? ऐसे समय आप की भावनाओंको ठेस नही पहुंचती? यह हमारा अपमान नही है? साफसफाई की बात न करे तो अच्छा है। विशेष दिन और कभी कभी होनेवाली सफाई को छोड दे तो हर रोज की सफाई का क्या? अपने स्वयं के घर मे आप को अस्वच्छता या कचरा पसंद है? आप अपनी घरकी जैसी रोज दो-दो बार सफाई करते हो वैसा खयाल हमारे परिसर का क्यों नही करते हो? आप खुद हमारे भक्त होकर भी हमारा उचित खयाल नही रखते हो और अगर कोई दूसरी जाति का आदमी हमारी तरफ आँख टेढी करके देखता है तो आप का चेहरा गुस्से से क्यों लालपिला होता है? आप भी तो वही करते हो, तरिका अलग होता है। कभी कभी आप हमारे पास आते हो, हमसे आप का दुख बाँटते हो, हमसे बाते करते हो, इसलिए हम भी आज आपसे यह संवाद कर रहे है।

दूसरे जाति-धर्म के लोगोंका खून बहाते समय आप को कुछ भी बुरा नही लगता। सामनेवाला का सर फुटता है, हाथपाँव टूटते है तो आप को बडा आनंद मिलता है। एक काम किजीए, जैसे झेंडे का रंग आपस मे बाँट लिए है ना, वैसेही अलग अलग रंग देकर खून को भी आपस मे बाँट लो। इससे जब दंगल होगी ना तो उस समय जो खून बहेगा उससे पता चलेगा कौनसे रंग का खून ज्यादा बहा है। बहता हुआ खून ऐ बतलाएगा की, कौनसे जाति का खून ज्यादा है। उसी खूनसे पता चलेगा की, धर्म युद्ध मे या पुतलेके अपमान मे जो जंग चल रही है उस जंग मे कौनसी जाति जीत रही है। प्यारे भक्तो, हमारे उपर आपका प्यार हमारी जयंती, पुण्यतिथी या आप की चुनावी जित के बाद ज्यादा उमड आता है। बाकी समय पर तो हमारे इर्द गिर्द सदा शांति बनी रहती है। हमारे उपर इतना प्यार है ना तुम्हारा तो भक्तो हमारी जयंती- पुण्यतिथी के समय चंदा क्यों जमा करते हो? खुद के पैसोंसे क्यों नही मनवाते यह उत्सव? चंदा जमा करते समय क्यों गुंडागर्दी, जोरजबरदस्ती होती है? आपको पता है, आपकी दहशत की वजहसे घबराकर लोग चंदा देते है, लेकिन आपकी पीठ पिछे क्या कहते है? यह कभी समझने की कोशीश की है? बहुत सारे लोग आपको तरह तरह की गालियाँ देते है, साथ मे हमे भी नही बख्शते। फिर आप क्यों करते है, ये सब? उत्साह माने बहुत बडा आनंद देनेवाला पल। एक मंगलमय दिन। लेकिन आप के इस चंदा जमा करने की आदतसे समाज का एक बडा हिस्सा नाराज होता है। इन की नाराजी को हवा मिलते ही, कुछ समाजद्रोही , अवसरवादी लोग मौका देखकर हमला बोल देते है। उस समय यह लोग हम पुतलों को अपना निशाना बना लेते है। क्यों कि हम तक पहूंचना बहुत आसान होता है। फिर शुरू होता है जातियुद्ध, धर्म युद्ध। हमे तोडा जाता है, उखाडकर फेंक दिया जाता है। हमे अपमानित किया जाता है। दूसरी तरफ विरोधी जाति-धर्म के लोग भी यही हरकत करते है। कब रुकेगा ये मेरे भाईयों? कब धमेगा यह घिनौना खेल?......

हम सब धर्म के पुतले मिलकर सब जाति- धर्म के लोगोंसे, हमारे भक्तोंसे बिनती करते है, खत्म कर दो ऐ जाति-धर्म के झगडे। अगर कुछ तोडना ही है तो यह गलिच्छ राजनीति तोड दो। सब कुछ भुल कर एक हो जाओ। बडे लाड प्यारसे साथ रहो। आपको बार बार क्यों भडकाया जाता है, इस बारे मे सोचो। आपकी चिता की ज्वालाओंपर कोई अपनी रोटी सेंक रहा है, तो उसकेपिछे चल रही राजनीति पहचानो। एक साथ आकर डट कर मुकाबला करो, भ्रष्टाचार को कभी ना अपनाओ। स्वच्छ, प्रामाणिक स्वातंत्र्य का लाभ उठाओ। हमे भी इस वातावरण से मुक्ति दिलाओ। कर सकोगे इतना? ......
तुम्हारा 
पुतला
-0-
नागेश सू. शेवाळकर
पुणे (महाराष्ट्र)
-0-

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ऋतु श्रृंगार (कविता) - जगदीश 'गुप्त'


ऋतु श्रृंगार
(कविता)
बसंत ऋतु
ऋतुएं देश की ऐसी जैसे
हो उर्वशी की चंचलता
मंत्रमुग्ध करतीं पल - पल
अपना यौवन अमृत अर्पण कर

बसंतोत्सव का द्वार सजाए
मूक निमंत्रण से हर्षित कर
कलवित - पुष्पित सौरभ अर्पित कर
मातृप्रेम का पाठ सिखाती
ग्रीष्म ऋतु
नवयौवन ने लेकर करवट
श्रम से अपना किया श्रृंगार
तपती जलती देश की माटी
उगले सोना अपरंपार

और सरित देती जल अपना
नभ की प्यास बुझाए सागर
सर्वस अपना वतन की खातिर
कहती माटी बारम्बार

वर्षा ऋतु
प्यास बुझी नव तन पाया
बिखरा रूप विभिन्न अंगों में
नवश्रृंगार जतन से पाया
आकर्षण का जादू छाया

गरजत बरसत मेघमालिनी
नववधु की बारात सजाए
नाना परिधानों में विहंसती
धरती लाज से शरमा जाए

शरद ऋतु
भाव विभोर हो रही चाँदनी
गीत प्रणय चंदा ने गाये
चकोर निरख रहा चंदा को
स्वाति नक्षत्र की आस लगाए

विरहाकुल प्रीतम को टेरे
चाँद शरद की प्यास बुझाये
नवल - धवल कण कण की काया
जीवन का अनुराग सुनाये

हेमन्त ऋतु
माघ पूष की ठंडी रातें
ठिठुर रहा कर्मशील किसान
माटी के पौधों पर देखो
करता पल - पल दृष्टिपात

उधर हिमाला खड़ा शान से
पहिने मुकुट बर्फ की माल
निशदिन चौकस देश की खातिर
धन्य देश के वीर जवान

शिशिर ऋतु
स्वच्छ चांदनी शीतल वायु
डाले प्रीत की डोरी
नववधु कर श्रृंगार चंद्र को
चाहे जैसे चकोरी

बिखरे पौधे कण - कण नाचे
महके देश की माटी
हलधर यह सन्देश सुनाए
ऐसे फलती प्रीत की पाती

है जो मातृभूमि अपनी यह
स्वर्ग धरा पर है कहलाती 
-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


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अरमान बाँटूँगी (कविता) - सरिता सरस

अरमान बाँटूँगी
(कविता)
आ रही हूँ जीतकर
अरमान बाँटूँगी...!

पीटकर हर शब्द को मैं 
की हथौड़े से नुकीले ,
आँच पर पिघला रही हूँ
मै तुम्हारी भावना को ,
कर रही हूँ आरिओं से 
तेज संचित कामना को ,
वक्त के मुख से मलिन
मुस्कान काटूँगी !
आ रही हूँ जीतकर 
अरमान बाँटूँगी..!

भूख से बेहाल माँ की 
अस्थियाँ स्तन से लिपटी ,
झाँकती है आबरू 
नजरें टिकी शैतान की है ,
दुश्मनों की मौत का 
सामान बाँटूँगी !
आ रही हूँ जीतकर 
अरमान बाँटूँगी...!

रोटियाँ आश्वाशनों की 
सड़क से संसद तलक हैं ,
पेट की भठ्ठी यहाँ
वादे निवालों से भरे हैं ,
छीनकर तेरी हँसी 
मुस्कान बाँटूँगी !
आ रही हूँ जीतकर 
अरमान बाँटूँगी..!
-०-
पता:

सरिता सरस
गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

-०-


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बुराई में अच्छाई (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

बुराई में अच्छाई
(कविता)
कौन कहता है
कैकेयी बुरी थी
अपना स्वार्थ सिद्ध करना
क्या बुरी बात है ?
हर कोई तो अपना
स्वार्थ सिद्ध करता है
कैकेई ने किया
तो क्या बुरा किया
हर मां अपने बच्चे का
भला चाहती है
कैकेई ने अपना
स्वार्थ नहीं सिद्ध किया
लोगों को लगता है कि
वो स्वार्थी थी
लेकिन नहीं
वो स्वार्थी नहीं
परमार्थी थीं
अगर राम को
बन में जाने का
आदेश न देती
तो वनवासियों का
कल्याण कैसे होता
तरण केवट का कैसे होता
कैसे होता शबरी का उद्धार
कैसे जटायु
एक नारी के लिए
शहीद होते
कैसे होता
एक औरत पर
बुरी नजर रखने वाले
बाली का वध
कैसे होती मित्रता
राम और सुग्रीव की
कैसे होते इतने प्रसिद्ध
नल और नील
कैसे राम नाम की
महिमा गाई जाती
कैसे एक साधारण भालू
हनुमान को उनकी
शक्ति याद दिला कर
ऋक्षराज जामवंत कहलाते
तब हनुमान
हनुमान न होकर
एक साधारण
वानर ही रहते
कैसे प्रेरणा दायक होता
एक गिलहरी का प्रयास
तब सोचिए विचारिये
इस तरह का प्रयास
आप सब भी कीजिए
बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़िये
कैकेई को गाली
मत दीजिए
उसके दूरंदेशी को
पहचानिए
उसे भी श्रेष्ठ मां का
दर्जा दीजिए
बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़िये
"दीनेश" बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़िये-०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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जिन्दगी के कांटे गुलाब (लघुकथा) - अपर्णा गुप्ता

जिन्दगी के कांटे गुलाब
(लघुकथा)
मिनी अनाथालय कें प्रबंन्धक के आफिस मे प्रवेश करती है तो प्रबन्धक राम अवतार उठकर उसे सैल्यूट करते है मिनी उन्हे मना करते हुये उनके पैर छूने लगती है , रामअवतार उठाकर उसे गले लगा लेते है ।
उन्हे आज भी वो दिन याद है जब मिनी को अनाथालय के पालने में कोई छोड़ कर गया था ।रात के ग्यारह बजे घन्टी और बच्ची के रोने की आवाज से वो बाहर दौड़कर गये ,तो मिन्नी रो रही थी उन्होने भाग कर उसे गोद में उठा लिया था आज भी गले लगाने पर महसूस हुआ, जैसे मिनी वही है छोटी सी ।
जिलाअधिकारी बन गई थी उनकी छोटी सी मिनी ।
आशु नही आया अभी पापा?.............
"अरे वो तो सुबह ही आ गया था "
आशु भी उन्हे एेसे ही मिला था सड़क पर रोता हुआ। मजाल है पर उस दिन के बाद कभी रोया हो ।
राम अवतार उस वृहद बरगद वृक्ष का नाम था जो अनाथो के लिये पिता तुल्य था । उन्ही के स्नेह का परिणाम था आशु भी आज डाक्टर बन चुका था,जाने कितने बच्चो का उद्धार कर चुके थे वो अपने कर कमलो से। आज इन दोनो का भी नया जीवन शुरु हो रहा था!
बचपन मे ही उपजते प्रेमाकुंरो को पेड़ बनते देख उन दोनो का गठबन्धन जो पक्का कर दिया था, उन्होने और आज का दिन तय कर रखा था।
आशु के आते ही दोनो ने एक दूसरे को छोटे छोटे मेहमानो की उपस्थिती मे अंगूठी पहनाई, मिठाई खाई , सबको खिलाकर आशु ने गुलाब के फूलो का एक गुलदस्ता मिनी को दिया तो मिनी के गाल गुलाब की तरह ही सुर्ख हो गये !
बहुत सारे गुलाब के फूल टोकरी में देखे तो पूछा" अरे डाक्टर इतने सारे फूल और किसके लिये "तो आशु ने कहा" भूल गई हमारे मां बाप भी तो इंतजार कर रहे है "
"अरे हां..............मै तो भूल ही गई "थोड़ी देर के बाद वो दोनो वृद्धाश्रम में सभी को गुलाब का फूल ,मिठाई और कपड़े बांट रहे थे और आशिर्वादो से नवाजे जा रहे थे! कौन कह सकता था कि इनके मां बाप नही है गुलाब के फूलो की महक से पूरा आश्रम महक रहा था ।
-०-
पता
अपर्णा गुप्ता
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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