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Tuesday 26 November 2019

कर्तव्य (आलेख) - बलजीत सिंह

कर्तव्य
(आलेख)
किसी गाड़ी को स्टार्ट करने के लिए ,उसमें चाबी लगानी पड़ती है । अगर हम उस चाबी को विपरीत दिशा में घुमाएं तो वह स्टार्ट नहीं होगी , क्योंकि हमने चाबी को गलत दिशा में घुमाया है । इसी प्रकार जब व्यक्ति सोच -समझकर गलत दिशा की ओर कदम उठाता है , समझो वह अपने कर्तव्य से भटक चुका है ।

प्रत्येक मनुष्य की ,परिवार ,समाज एवं देश के प्रति कुछ जिम्मेदारियां होती है , उन जिम्मेदारियों को निष्ठा के साथ निभाना , कर्तव्य कहलाता है । जो व्यक्ति कर्तव्य का पालन करता है ,वही जीवन में आगे बढ़ता है ।

एक अंधा व्यक्ति सड़क पार करने के लिए जब आवाज देता है , हमारा कर्तव्य बनता है , हम उसका हाथ पकड़कर सड़क पार करवाएं ‌। ऐसा करना हमारा कर्तव्य है ,परंतु यहां हमारे ऊपर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है । किसी की सहायता इस तरह से करना कि उसके मान -सम्मान एवं मर्यादा को ठेस न पहुंचे ।भूखे व्यक्ति को अगर रोटी न दें सके , तो उसका अपमान भी मत करो , क्योंकि ऐसा करना हमारा कर्तव्य नहीं बनता ।

फूलों में खुशबू होती है ,कोई इन्हें चुरा नहीं सकता या अलग नहीं कर सकता । इसी प्रकार कर्तव्य भी हमारे पास सुरक्षित होते हैं , कोई इन्हें हमसे छीन नहीं सकता । कर्तव्य की डोर हमारे हाथों में होती है । हम चाहे तो इसे ढीली छोड़ सकते हैं और चाहे तो इसे कस भी सकते हैं ।

देश की सुरक्षा के लिए सीमा पर जवान दिन-रात पहरा देते हैं ।उनको आपातकालीन स्थिति में गोली चलाने का अधिकार है , परंतु अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य की भी जरूरत होती है । युद्ध के समय , कोई भी सैनिक बीमारी का बहाना बनाकर , छुट्टी का अधिकार तो प्राप्त कर लेगा , परंतु ऐसा करना उसका कर्तव्य नहीं बनता । उसका यह कर्तव्य बनता है , वह देश की रक्षा के लिए अपना सहयोग दें अर्थात कर्तव्य के बिना अधिकार अधूरा है ।

बेटी के जवान होते ही ,उसका पिता उसके लिए वर ढूंढना शुरू कर देता है । एक ऐसा वर जो सुन्दर ,सुशील एवं सर्वगुण संपन्न हो ,जो उसकी बेटी को जीवन भर खुशियां दे सके । कुछ ऐसा ही सोचकर ,वह अपनी बेटी के पीले हाथ करने के लिए ,रात को चैन की नींद नहीं सोता और आखिर वह दिन भी आता है , जब वह अपनी लाडली को अपने घर से विदा करके , एक पिता का फर्ज पूरा करता है ।

कुत्ता जिस घर में रहता है ,वह उसी घर की रखवाली करता है । अगर घर में मालिक न हो , वह किसी अनजान व्यक्ति को वहां घुसने नहीं देगा । उस जानवर को कोई हक नहीं मिला होता , वह किसी को घर में आने दे या न आने दे । परंतु वह अपना कर्तव्य पूरी वफादारी के साथ निभाता है । वह जब भी भौंकता है , अपने मालिक के दुश्मनों पर भौंकता है । एक जानवर होकर भी वह अपने फर्ज के प्रति सचेत रहता है ।

किसान बड़ी मेहनत से अपने खेत में फसल उगाता है और समय-समय पर उसमें खाद एवं पानी भी देता है । इसी तरह एक अध्यापक भी छात्रों को समय के अनुसार पढ़ाता है ,लिखाता है और उनको जीवन में हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा के साथ-साथ उज्ज्वल भविष्य की कामना भी करता है । इसलिए कर्तव्य का दायरा बहुत बड़ा होता है । यह केवल रिश्ते- नातों तक ही सीमित नहीं होता । किसी रोगी को अगर रक्त की आवश्यकता होती है , हम अपना रक्त देकर ,इंसानियत का फर्ज अदा कर सकते हैं । ऐसा करने से हमें उसके मायूस चेहरे पर ,फिर से मुसकुराहट देखने को मिल सकती है ।

नदी के किनारे , सड़क के किनारे , खेत में , विद्यालय में , अगर कहीं पर थोड़ी- बहुत खाली जगह नजर आये , हम वहां पर फलदार वृक्ष लगा सकते हैं । ऐसा करने से हमारा पर्यावरण भी शुद्ध होगा और प्रकृति के प्रति हमारा जो कर्तव्य बनता है ,उसे निभाने में हम सफल भी अवश्य होंगे ।
-०-
बलजीत सिंह
हिसार ( हरियाणा )
-०-

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अपने हिस्से का आकाश... (लघुकथा) - गोविन्द सिंह चौहान

अपने हिस्से का आकाश...
(लघुकथा)
"अरे..सुनती हो! बाहर आकर देखो, पटाखों की रोशनी कितने खूबसूरत रंग बिखेरती हैं।" मकान की छत पर लकड़ी के सहारे खड़े आलोक जी ने अपनी पत्नी को पुकारा तो अन्दर से आवाज आई," आती हूँ...लक्ष्मी पूजन का दीया जला लूँ पहले।"

आलोक जी बड़बड़ाने लगे, "नीचे चार कमरों का मकान पूरा खाली पड़ा था। बच्चे गाँव से दूर शहरों में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहते हैं...काश! वार-त्योहार पर तो घर आते।" पीछे खड़ी आलोक जी की पत्नी ने सुना तो बोल पड़ी, "क्यूं मन छोटा करते हो...सबके अपने अरमान हैं..अपनी-अपनी जिन्दगी...आज दीपावली है..हमें हमारे हिस्से का आकाश मिल गया..पटाखों के खुशियों भरे शोर और सतरंगी मुस्कुराती रोशनियों को निहारते यह रात भी निकल जाएगी..कल राम-राम करने तो कोई ना कोई तो आएगा ही।"

गालों पर लुड़कते गर्म आँसुओं को पौंछ आलोक जी पास पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "सही कह रही हो..पर अकेले तो त्योहार भी बर्दास्त नहीं होते हैं।"
-०-
गोविन्द सिंह चौहान
राजसमन्द (राजस्थान)


-०-

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क्या जवाब दोगे (कविता) - चंद्रमोहन किस्कू

क्या जवाब दोगे
(कविता)
निश्चित करने ही होंगे
ख़त्म करने ही होंगे
और कितने दिन चलेगा यह ?
मेरे हरे - भरे देश में
मेरे पहाड़ - पर्वतों में
जीवंत नदी ,ठण्डी झरने में
मेरी माँ की छाती में
बुरे विचार की खेती .


कटे हुए हरे पेड़
कटे हुए मनुष्य के
देह और सर
गिनने होंगे मुझे
और कितने दिन ?
इधर भी मेरा ही छाती
उधर भी मेरा ही छाती
दूसरों के बहकावे में
दानवों की इच्छा से
मुझे मरना होगा और कितने दिन ?
वोट की खेल
नेता,दिल्ली और राँची
तुम्हारा झूठा विकास
दो रुपये किलो चावल
बिना मस्टरवाले स्कूल
बिना डॉक्टर और दवाई के
अस्पताल
तुम्हारा पक्की सड़क का बहाना
तुम्हारा ऊँची हो रहे अट्टालिका
मुझे जरुरत ही नहीं है .


इतिहास की वह घटना
पुनर्घटित होगा और कितने बार ?
राजा- राजाओं के लड़ाई में
सिपाही और आम जनताओं के सर
गिरेगा और कितने दिन
वोट के आश्चर्यजनक खेल में
हम पिसेंगे और कितने दिन ?


युवा एक दिन जागेंगे
तर्जनी दिखाकर पूछेंगे
ऐसा और कितने दिन
ऐसा चलेगा नहीं
नहीं चलेगा ,नहीं चलेगा
तब तुम उन्हें क्या जवाब दोगे?
-०-
पता -
चंद्रमोहन किस्कू
पूर्वी सिंहभूम (झारखण्ड)

-०-

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शायर हो जाएगा (गजल) - श्रीमती दीपा परिहार

शायर हो जाएगा
(गजल)
जब जब अंतर हो जाएगा
जीना दूभर हो जाएगा

हम दोनों की उल्फ़त देखो
प्यारा मन्‍जर हो जाएगा

मुझको पूरा पढ लेगा तो
ढाई आखर हो जाएगा

तू परख न पाया उसको तो
हीरा पत्थर हो जाएगा

मुश्किल से ग़र तार दिया तो
साथी शंकर हो जाएगा

नदियाँ का जल मिलते मिलते
गहरा सागर हो जाएगा

दीपा की तुकबंदी सुनकर
तू भी शायर हो जाएगा
-०-
पता
श्रीमती दीपा परिहार
जोधपुर (राजस्थान)

-०-

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आजकल (ग़ज़ल) - रशीद ग़ौरी

आजकल
(ग़ज़ल)
रह गया है वफ़ाओं का नाम आजकल ।
इक दिखावा है दुनिया में आम आजकल ।

फ़ीक़ी-फ़ीक़ी सी कलियाँ हैं ग़ुल है उदास
ग़ुलसिताँ का है बिखरा निज़ाम आजकल।

देख ले ज़िंदगी का तू मेरी वरक़
लिख रहा हूँ मैं तेरा ही नाम आजकल।

तिश्नग़ी जिनकी क़िस्मत में लिखी थी अब
ख़ूब छलका रहें हैं वो जाम आजकल।

अच्छे- अच्छे अदब को तरसने लगे 
मिट गया है शराफ़त का नाम आजकल।

अब तो अपने भी अपने नहीं काम के
ग़ैर के कौन आता है काम आजकल।

फूल बनकर हसीं से हसीं ए रिशी 
राहों में उनकी बिछना है काम आजकल। 
-0-
रशीद ग़ौरी 
 पाली, (राजस्थान)
-0-



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