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Monday 19 October 2020

ट्रेन देशभक्ति की (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

  

ट्रेन देशभक्ति की
(कविता)
समाज में देश-भक्ति नाम की कोई चीज ही नहीं बची, बनवारी लाल बड़े ही गंभीरतापूर्वक कह रहे थे। 

जिसे देखो वह स्वार्थ में डूबता जा रहा है।  हमें स्वतंत्रता कैसे मिलीं, लोगों को इस बात की कुछ महत्ता ही नहीं,
धीरे-धीरे  बनवारी लाल कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो रहे थें।

 ट्रेन के डिब्बे में बैठें सभी यात्रींगण बड़ी ही आत्मीयता से उनकी बातों को महत्व दे रहें थें। 

तभी उनहोंने अपनी जेब से कागज की पुड़िया निकाली और उसमें से एक पान अपने मुंह में  ठूंसा और फिर उसी पटरी पर आ गये। 

पान की मिठास थीं या लोगों की सहमती अब तो देश-भक्ति की ट्रेन द्रुत गति से दौड़ रही थीं। 

लग रहा था वह पान ,उनमें देश-भक्ति का जोश भर चुका हो।

तभी बीच में उन्होने मुँह से एक पिचकारी की धार निकाली जो सीधे डिब्बे के कोने में जा गिरी। 

सभी लोग इस कृति से अचंभित हुएं। 

और फिर क्या, पिचकारी के बाद भी बनवारी लाल की देश-भक्ति की ट्रेन अपनी रफ्तार पर कायम थीं परंतु अब उस ट्रेन में वे अकेले ही सफर कर रहे थें।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

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मजदूर के दरद (गीत) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'


मजदूर के दरद 
(गीत)
मजदूर के दरद को भी सुनलो,
हम किसे अपनी पीड़ा बताएं।
मर रहे भूखे बच्चे हमारे,
खाना लाकर कहा से खिलाएँ।
मजदूर के दर्द को भी सुनलो..
मर रहे भूख से खाना बिन
हर तरफ़ बेबसी और लाचारी।
चल रहे मीलों पैदल हम रोज,
क्या बताएं क्या हालत हमारी।।
पड़ गए पैरों में इतने छाले,
बोलो मरहम कहाँ से हम लाएं।
नासूर जख़्म अब बन गए हैं,
इनमें मरहम हम कैसे लगाएं।।
मजदूर के दर्द को भी सुनलो…
दो वकत की हम रोटी के ख़ातिर,
दर बदर हैं भटकते शहर में।
घर भेज दो हमें कोई अपने,
आएंगे न कभी अब शहर में।।
बढ़ गए दर्द अब हद से ज्यादा,
अपने आँसू किसे हम दिखाएँ।
हर घड़ी मौत का है अब शाया,
एक एक पल हम मर मर बिताएं।।
मजदूर के दर्द को भी सुनलो...
-०-
पता- 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
हमीरपुर (उत्तर प्रदेश)

-०-

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शैलपुत्री (घनाक्षरी) - अख्तर अली शाह 'अनन्त

 

शैलपुत्री
(घनाक्षरी)
प्यारे प्यारे  चेहरे हैं  प्यारे  प्यारे  रूप  लिए ,
हर  कोई  देख  देख  वारी  वारी   जाता  है।
हिमालय  की  पुत्री है  शैलपुत्री सख्तजान,
महिमा  को उसकी  तो,सारा जग  गाता है।।
दृढ़ता  की  है मिसाल  ,वृषभ  वाहन  रखे ,
कितनी  है   मनहर , रूप   बड़ा  भाता  है।
अपमान पति  का जो,सह नहीं पाई  जरा,
योग की अग्नि में भष्म, हुई सती माता है।।

देवताओं का किया  है चूर गर्व  देवी  वही,
हेमवती , शैलपुत्री   कहलाने    वाली   है।
पीर  हरे अपनों  की,लाज रखे सपनों की,
महामाया,  विघ्नहरे   वही  महाकाली  है।।
प्रजापति दक्षकी जो कन्यारही जानेसभी,
गिरीराजा हिमाला की सुता वो निरालीहै।
उसकी वो  हुई यहां आदर से जिसने भी,
पायाहै आशीष रूठी माताको मनालीहै।। 
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-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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रिश्तो की डोर (कविता)- बलजीत सिंह

 

रिश्तों की डोर की 
                (कविता)
         सादगी -शराफत रह गई पीछे ,
         धन-दौलत पर भटके ध्यान ।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान । ।

         मनचले लोगों के सुनो विचार --
         लड़की हो चाहे उम्र में बड़ी,
         सगाई से पहले
         हमारे द्वार पर
         हो जानी चाहिए गाड़ी खड़ी ।
         घरवाले मजे से घूमेंगे
         होगी मोहल्ले में ऊंची शान  । ।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान । ।

         लालची लोग भी करे पुकार --
         हमें रंग-रूप से एतराज नहीं,
         शर्त यही है   
         लेन-देन के मामले में   
         गड़बड़ ना हो जाये कहीं ।
         अड़ोसी-पड़ोसी बार-बार देखें,
         मजबूत और टिकाऊ सामान । ।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान । ।

         साधारण लोग तो सोचे यही --
         दो तरह की लक्ष्मी पधारे घर  ,
         दुल्हन और दहेज
         जब उतरे गाड़ी से
         लगे न किसी दुश्मन की नजर । 
         गली -गली बांटेंगे लड्डू  ,
         इच्छा पूरी करो भगवान ।।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान ।

         विशेष लोग गर्व से कहते --
         दुल्हन हो सुशील एवं संस्कारी ,
         हमें दहेज से नफरत
         बस चाहिये इतना जो निभा सके
         एक आदर्श बहू की जिम्मेदारी ।
         खुशियों से महके घर-आंगन
         छोटे-बड़ों का हो सम्मान ।।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान ।

         सादगी -शराफत रह गई पीछे ,
         धन-दौलत पर भटके ध्यान ।
         रिश्तों की डोर बड़ी अलबेली  ,
         इन्हे जोड़ना-तोड़ना नहीं आसान ।

-०-
बलजीत सिंह
हिसार ( हरियाणा )
-०-

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मेरा संगी (कविता) - राजीव डोगरा 'विमल'


मेरा संगी 
(कविता)
कांपते हुए मेरे लफ्जों को
जरा पहचानो,
उनमें जो दर्द है
उसको जरा सँभालो।
तुम कहते हो न
तुम्हे क्या दर्द है ?
तो जरा देखो मेरे अंतर्मन में
हँसती मुस्काती मेरी पीड़ा को।
मैं फिर भी टूटता नहीं
कभी बिखरता नहीं,
मैं मुस्काता हूं
उस पीड़ा के साथ
भले वो दर्द दे मुझे लाख।
कभी-कभी मेरा दर्द भी
बेहद रोता है चीख़ता है
चिल्लाता है।
देखकर मुझको मुसकुराते।
बोलता है मेरा संगी दर्द
देकर दर्द खुदा ने तुझे नहीं
मुझको ही
तोड़ा है अरोड़ा है।
-०-
राजीव डोगरा 'विमल'
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-



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