ट्रेन देशभक्ति की
(कविता)
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समाज में देश-भक्ति नाम की कोई चीज ही नहीं बची, बनवारी लाल बड़े ही गंभीरतापूर्वक कह रहे थे।
जिसे देखो वह स्वार्थ में डूबता जा रहा है। हमें स्वतंत्रता कैसे मिलीं, लोगों को इस बात की कुछ महत्ता ही नहीं,
धीरे-धीरे बनवारी लाल कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो रहे थें।
ट्रेन के डिब्बे में बैठें सभी यात्रींगण बड़ी ही आत्मीयता से उनकी बातों को महत्व दे रहें थें।
तभी उनहोंने अपनी जेब से कागज की पुड़िया निकाली और उसमें से एक पान अपने मुंह में ठूंसा और फिर उसी पटरी पर आ गये।
पान की मिठास थीं या लोगों की सहमती अब तो देश-भक्ति की ट्रेन द्रुत गति से दौड़ रही थीं।
लग रहा था वह पान ,उनमें देश-भक्ति का जोश भर चुका हो।
तभी बीच में उन्होने मुँह से एक पिचकारी की धार निकाली जो सीधे डिब्बे के कोने में जा गिरी।
सभी लोग इस कृति से अचंभित हुएं।
और फिर क्या, पिचकारी के बाद भी बनवारी लाल की देश-भक्ति की ट्रेन अपनी रफ्तार पर कायम थीं परंतु अब उस ट्रेन में वे अकेले ही सफर कर रहे थें।
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
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