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Monday, 2 March 2020

साइकिल (कविता) - सुरजीत मान जलईया सिंह


साइकिल
(कविता)
देख रहा हूँ एक मुसाफिर
चला रहा साइकिल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

सिर्फ दिखावे के इस युग में
लाया है साइकिल।
इतना उसे सकूं भी आखिर
कहाँ गया है मिल?
पलट पलट दिनपत्र देखता
चले कौन सा साल?
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

वो दीवाना सा लगता है
अपने-अपने अन्दर।
रब ही उसके बाहर खड़ा है
रब ही उसके अन्दर।
देख देख कर उसे थके हैं
नयन मेरे भीतर।
पूछ रहा है अन्तस मेरा
मुझसे उसका हाल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।

छुप-छुप उसे देख हंसते हैं
उसके साथी संग के।
बात बनाते फिरते हैं कुछ
बेढंगी बेढंग के।
जैसे सब ने उसकी खातिर
बिछा रखा हो जाल।
मस्त हवा में अपने कैसे?
उड़ा रहा है बाल।
-०-
सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान (असम)
-०-
***
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ईद का चाँद (कविता) - विकास पाटील


ईद का चाँद
(कविता)
पाँच साल के बाद
बस्ती में चाँद निकला
सूरत वैसी थी
ईद के चाँद जैसी
हमारी बस्ती में
चाँद का दीदार होना
तड़पती हुई जान में
जैसे वेन्टिलेटर लगाना
चाँद सड़क पर
उछलता है, कूदता है
विवशता के कारण
उसमें बचपन भरा है
क्योंकि
नाला सड़क से बहता है
एक-दूसरे से चिपके
गड्डों से रास्ता बना है
बच्चे-बूढे उसमें खोजते हैं
अपनी तकदीर
कहाँ रखे पाँव
गड्डे में, कीचड़ में
मच्छरों की भरमार
गंदगी, सभी बीमारियाँ
और एक गंध
उसी के साथ दिन-रात बिताते हैं
अब चाँद प्रतिदिन
बस्ती में नजर आता है
हर एक के घर जाकर
‘अच्छे दिन’ के सपने दिखाता है
बच्चों के चेहरे पर
हल्की सी मुस्कान है
अँगिठियाँ आज
गर्म हैं
रूखा-सूखा ही सही
कुछ दिनों के लिए
खत्म हुआ है
पेट का अकाल
चुनाव खत्म हुआ
रूझानों में चाँद निखर गया
फूल-मालाओं से
उसे पूजा गया
ईद की रात गुजर गयी
चाँद का निकलना दुश्वार हुआ
बस्ती में वही
रोजमर्रा की जिंदगी ...............
-०-
पता:
विकास पाटील
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-


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ज़रूरत (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

ज़रूरत
(लघुकथा)
निधि बड़े परिवार की इकलौती बहु नोकर चाकर की कोई कमी नही लेकिन फिर भी खुश नही थी।उसे तो बस रेनू भाभी जैसी वर्किंग वीमेन बनने की चाह थी।तभी एक दिन सुबह सुबह वो रेनू भाभी के पास शिकायत लेकर पहुचती है और बोलने लगती भाभी बस बहुत होगया भाभी अब और नही मेरी मरजी तो कोई चलने नही देता में भी अपनी मर्जी से चिंटू को जहाँ चाहु पढा़ सकती हूँ।अब तो जब में कमाऊंगी तभी अपनी मर्जी चला सकती हूँ ।निधि की बात सुनकर रेनू ने लम्बी साँस ली फिर बोली निधि एक बात बताओ क्या संजय ने कभी तुम्हारा मान नही रखा या तुम्हे बिना बताए कोई काम किया हो, नही ना फिर ये कैसी जिद्द नही भाभी मुझे तो बस आपकी तरह कमाना है ।निधि क्या तुम्हे हर महीने राशन का हिसाब रखना या फिर चिंटू के स्कूल की फीस की चिंता करनी पड़ती है ,एक औरत का कमाना तो सबको दीखता है लेकिन कोई ये नही पुछता की वो अपनी मर्जी से कमाना भी चाहती है कि नही कही उसकी कोई मज़बूरी तो नही है।अब निधि खामोश थी।
-०-
पता:
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


-०-
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वो मेरा चेहरा (ग़ज़ल) - विज्ञान व्रत

वो मेरा चेहरा
(गजल)
वो मेरा चेहरा न हुआ 
मैं भी शर्मिन्दा न हुआ 

उसका मैं हिस्सा न हुआ 
मुझको ये धोखा न हुआ 

सब उसका सोचा न हुआ 
वो मेरा रस्ता न हुआ 

जब उसकी भाषा न हुआ 
तो मेरा चर्चा न हुआ 

होने को क्या-क्या न हुआ 
मैं ही बस अपना न हुआ
-०-
पता:
विज्ञान व्रत
नोएडा (उत्तर प्रदेश)


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नासूरी नगमा (गीत) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


नासूरी नगमा
(गीत)
रोदन करती आज दिशाएं,मौसम पर पहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो,घाव बहुत गहरे हैं !!

बढ़ता जाता दर्द नित्य ही,
संतापों का मेला
कहने को है भीड़,हक़ीक़त,
में हर एक अकेला

पावस तो अब शेष रही ना,बादल भी ठहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे वो,घाव बहुत गहरे हैं !!

मायूसी है,बढ़ी हताशा,
शुष्क हुआ हर मुखड़ा
जिसका भी खींचा नक़ाब,
वह क्रोधित होकर उखड़ा

ग़म,पीड़ा औ' व्यथा-वेदना के ध्वज नित फहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!

व्यवस्थाओं ने हमको लूटा,
कौन सुने फरियाद
रोज़ाना हो रही खोखली,
ईमां की बुनियाद

कौन सुनेगा,किसे सुनाएं,यहां सभी बहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे है वो घाव बहुत गहरे हैं !!

बदल रहीं नित परिभाषाएं,
सबका नव चिंतन है
हर इक की है पृथक मान्यता,
पोषित हुआ पतन है

सूनापन है मातम दिखता,उड़े-उड़े चेहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

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