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Thursday 6 February 2020

“आलोचना से घबरायें नही, बल्कि करें स्वागत (आलेख) - संजय कुमार सुमन

अंतरात्मा की पुकार अनसुनी ना करें
(आलेख)
अक्सर आपको बहुत से लोगों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता होगा। कभी ऑफिस में, कभी दोस्तों के बीच और कभी कभी परिवार में भी। अपनी आलोचना को सुनना किसी को भी पसंद नहीं होता और ऐसी स्थिति आने पर आप या तो उस आलोचक को ही बुरा भला कहने लगते है या फ़िर इस स्थिति से बचने के लिए आप कोई काम हाथ में ही नहीं लेते। लेकिन अगर आप ने गौर किया हो तो आपके आसपास कुछ ऐसे लोग भी मौजूद है जो अपनी निंदा से बिलकुल बेचैन नहीं होते बल्कि उसे भी अपने लिए प्रशंसा की तरह लेकर आगे बढ़ते है। आप सोच रहे होंगे कि आलोचना को कैसे अपनाया जा सकता है और क्यों? आपने कबीर दास जी का ये दोहा जरूर पढ़ा और सुना होगा…निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। इसी दोहे में छिपा है आपके सवालों का जवाब। तो चलिए, आज आपको एक कहानी के माध्यम से आपकी ऑंखें खोलने का प्रयास करते हैं।
एक जंगल में कई मेंढक रहते थे । एक बार जंगल के दूसरे जानवरों नें सोचा की क्यों ना इन मेंढकों की वृक्ष पर चढ़ने की प्रतियोगिता कराई जाये। इस प्रतियोगिता में मेंढकों को एक ऊंचे चीड़ के वृक्ष के ऊपर चढ़ना था और जो उस वृच्छ की चोटी पर सबसे पहले पहुँचेगा वही विजेता होगा । मेंढकों की दौड़ प्रतियोगिता के अवसर पर जंगल के सभी जानवर आये। वैसे तो इस दौड़ प्रतियोगिता में किसी भी दर्शक को यह विश्वास नहीं था कि कोई भी मेंढक वृछ की चोटी तक पहुँच पायेगा। सारे जानवर प्रतियोगिता शुरू होने से पहले नकारात्मक बातें करने लगे जैसे: आज तक कोई नहीं चढ़ा... ये असंभव है... नहीं चढ़ पाओगे… चोट लगेगी तब पता चलेगा इत्यादि। यह सुनकर कई मेंढक तो प्रतियोगिता छोड़ कर चले गए जब रेस शुरू हुई तो बचे मेंढको ने वृछ पर चढ़ना शुरू किया थोड़ा ऊपर चढ़ने के बाद एक मेंढक गिर गया और उसे चोट लग गयी उसे देखकर फिर कुछ मेंढको ने प्रतियोगिता को वहीँ छोड़ दिया। यह देख कर दर्शक जानवर हंसने लगे और मजाक बनाने लगे यह देखकर दूसरे मेंढको की हिम्मत भी ज़वाब दे गई लेकिन एक मेंढक पूरे जोश के साथ एक शाखा से दूसरी शाखा पर उछलता हुआ वृच्छ की चोटी में पहुँच गया। यह देखकर सभी जानवर अचंभित रह गए। सबने जब उस मेंढक से पूछा तो और अचंभित हुए क्यूंकि वो मेंढक बहरा था जिससे वह किसी की भी बात नहीं सुन पाया और पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर केंद्रित किया । आपको भी उसी मेंढक की तरह बनना होगा और बिना कुछ दूसरों की सुने अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर आगे बढ़ना होगा ।

काल मार्क्स मुखर आलोचना में विश्वास रखते थे। उन्होंने पूंजी और पूंजीवाद की आलोचना इसी ढंग से की है। अपने जन्म के 200 साल बाद भी वे दुनिया के सबसे प्रभावशाली ऐतिहासिक व्यक्तित्व बने हुए हैं। उनके विचारों और लेखन में मुखर आलोचना का पुट स्पष्ट तौर पर दिखता है। उदाहरण के लिए उन्होंने 1853 में अंग्रेजों के साम्राज्यवादी स्रोतों पर यकीन किया और उसे इतिहास का अवचेतन औजार माना और उन्हें उम्मीद थी कि इससे भारत का आर्थिक कायाकल्प शुरू होगा। 1881 में उन्होंने कई साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित किया कि अंग्रेज भारत से जो लेते हैं, उसके बराबर नहीं देते बल्कि बदले की भावना से शोषण करते हैं। हालांकि, उनकी अवधारणाएं खुली होती थीं और नए और बदलते हुए ऐतिहासिक परिस्थितियों के हिसाब से स्वीकार किया जा सकता है।
आज सहनशक्ति की उम्मीद नहीं बची है क्योंकि अहंवादी संसार में कोई सुझाव लेना छोड़, सुनना भी नहीं चाहता है। बात इतनी बढ़ जाती है कि अगर किसी में अकेले बदला लेने की ताकत न हो तो वह अपनी-सी सोच वाले चार और का दल बांधकर आता है और आलोचक को प्राणों से हाथ धोने पड़ सकते हैं। गुस्से से भरा व्यक्ति नतीजे की सोचे बिना अपनी और अपने साथ औरों की भी जिंदगियां दाव पर लगा देता है। आलोचक किसी भी तरह का हो, इंसान को प्रिय नहीं होता पर अंतर सिर्फ इतना होता है कि एक व्यक्ति उसकी बात को सुनकर, उस बारे में बार-बार सोचकर, तह तक जाने की कोशिश करता है। उस बात में कोई सार मिलता है तो उसके अनुसार खुद में बदलाव लाने की कोशिश करता है, अन्यथा अनसुना कर देता है। ऐसा करना उसके लिए भी फायदे का होता है क्योंकि कुछ कमियां हरेक में होती हैं। उन्हें पहचान कर बदलाव लाया जा सकता है। डेविड ब्रिंकली की सलाह सर्वोत्तम है, ‘‘एक सफल व्यक्ति वह है जो दूसरों द्वारा अपने पर फैंकी गई ईंटों से एक मजबूत नींव बना सकता है।’’ काश हरेक में वह धैर्य और नम्रता हो, जो आलोचना से लाभ उठा सके।

आदर्शवादी के तौर पर शुरुआत करने वाले मार्क्स ने फ्रेडरिक हिगल और लुडविग फेयुरबैच की आलोचना की। उन्होंने अपने आसपास के भौतिक जीवन की परिस्थितियों को देखते हुए अपना भौतिकवाद गढ़ा। तब से उनके विचार प्रवाह में कोई अटकाव नहीं रहा। कोई भी शुरुआती मार्क्स और बाद के मार्क्स के बीच संबंध जोड़ सकता है। उन पर जर्मन दर्शन, फ्रांसीसी समाजवाद, अंग्रेजों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और बाद में रूसी लोकप्रियतावाद का प्रभाव था।  आलोचनाओं से विचलित हो जाना स्वाभाविक जरूर है लेकिन अब आपने जान लिया है कि आलोचना हमारी शत्रु नहीं बल्कि मित्र भी बन सकती है। जरुरत है तो सिर्फ अपने नज़रिये को बदलने की और हर काम को बेहतर तरीके से करने की चाहत की। तो बस। आप के अच्छे कार्य की भी कोई आलोचना करें तो उसे करने दो। आलोचना का उत्तर देने की आवश्यकता नहीं क्योंकि आलोचना से हमारे कर्मों की निर्जरा होती है।दूसरों को नसीहत देना तथा आलोचना करना सबसे आसान काम है लेकिन, सबसे मुश्किल काम है चुप रहना और आलोचना सुनना।
प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई निंदा सुन लीजिए पर अपना निर्णय सुरक्षित रखिए क्योंकि निंदा सुनने के बाद अगर आप इसे अपने लिए सकारात्मक ढंग से लेते हैं तो यह आपको आगे बढ़ने के लिए टानिक का काम करती है। अगर आप उन सारे पत्थरों को अपने पास रख लेते हैं जिसे लोग आपके ऊपर फेकते हैं तो आप दो तरह से इनका उपयोग कर सकते हैं उन पत्थरों से या तो खुद को घायल कर लें या उनका प्रयोग एक मजबूत स्मारक निर्मित करने में कर लें। एक बात और कि आपको किसी की आलोचना करने का अधिकार तभी है जब आप उसकी सहायता करने की भावना रखते हैं,अन्यथा नहीं। रचनात्मक तरीके से आलोचना को अपने लाभ के लिए उपयोग करने की क्षमता सफलता की मुख्य कुंजी है। सफल भी वही होता है जो दूसरों की आलोचना से एक मजबूत आधार तैयार करता है। याद रखिए जब हम दूसरों पर दोष लगाते हैं या उनकी आलोचना करते हैं तो असल में अपनी उर्जा उनको स्थानांतरित कर देते हैं और उन्हें अपने आप से शक्तिशाली बना देते हैं, इसलिए किसी की बेवजह आलोचना और निंदा करने से बचें। देर किस बात की, आज ही से आलोचना के इन सकारात्मक पहलूओं पर गौर कीजिये और अपनी ज़िन्दगी को खुशनुमा तरीके से आगे बढ़ाते जाइये।
-०-
संजय कुमार सुमन
मधेपुरा (बिहार)
-०-

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पत्नी पीड़ित व्यक्ति कोर्ट में (व्यंग्य) - राम नारायण साहू 'राज'


पत्नी पीड़ित व्यक्ति कोर्ट में
(कविता)
एक पत्नी पीड़ित व्यक्ति कोर्ट में जाता है।
अपनी सम्पूर्ण व्यथा जज को बताता।
आदमी जब पत्नी से तंग आ जाता है।
रात को भी चैन की नींद नही ले पाता है।
पता नही कब रात को उठाकर धुलाई कर दे।
सुबह होने से पहले मेरी सफाई कर दे।
रोज सुबह जोर से चिल्लाकर उठाती है।
और आर्डर की लाइन लगाती है।
कहती है जल्दी से किचन में जाओ।
मेरे लिए चाय बनाकर लाओ।
वर्ना आज तो खैर नही।
इसके सामने पुरानी वैर नही।
बर्तन और कपड़ें धोना तो पुरानी बात हो गई है।
आजकल कामवाली को हटाकर मेरे से झाडूपोछा भी करवाती है।
हर बात बात में जोरदार हड़काती है।
जज साहब आप भी तो एक पति हो
इंसाफ हमे भी दिलाओ।
जज साहब अपने आंसू पोछते हुए बोले
आप मेरी कुर्सी में बैठ जाओ।
और खुद इंसाफ लेलो
क्योकि शाम को मुझे भी घर जाना पड़ता है।
और वही घर से रोज कोर्ट आना पड़ता है।-०-
राम नारायण साहू 'राज'
रायपुर (छत्तीसगढ़)

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हौले -हौले बसंत आ रहा है (कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'


हौले -हौले बसंत आ रहा है
(कविता)
कायनात का जर्रा-जर्रा,झूमता नजर आ रहा है।
खुशियां मनाओ हौले-हौले बसंत आ रहा है।।

मौसम की करवट से, कली-कली खिलने लगी ।
ह्रदय - छुअन को आतुर, बसन्त आ रहा है।।

बाग-बगीचों की अदा ,निखरी-निखरी सी है ।
फूलों पे मंडराते भंवरों के संग, बसंत आ रहा है।।

मस्ताने मौसम में,सम्मोहन सा नजर आता है ।
उमंग-उल्हास-फाग के संग, बसंत आ रहा है।।

कली-कली खिल उठती है, चंग-रंग के संग ।
तन-मन को तरंगित करने , बसंत आ रहा है ।।

पीली-पीली सरसों ,पीले - पीले ही परिधान ।
कुदरत को सुरम्य करता , बसंत आ रहा है।।

सृजनशील - पर्यावरण ,बसंत की सुषमा बन ।
माँ-सरस्वती का प्रतीक बनने,बसन्त आ रहा है।।
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

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पोपट (लघुकथा) - तरुण कुमार दाधीच

पोपट
(लघुकथा)
बारिश के मौसम के चलते पोपट आज भी नहीं आया।ऐसे में वह आता तो कैसे? पोपट एक याचक,एक भिखारी जो हाथ फैलाकर लोगों के सामने अपना हाथ उठा देता। एक छोटी दरी उसके नीचे बिछी रहती जिस पर थोड़ी रेजगारी और कुछ रुपये रखे रहते। बदकिस्मती से उसके दोनों पैर घुटनों के ऊपर से नहीं थे।दुर्घटना में कटे या काटे गए, पता नहीं।
रोजाना के मेरे प्रातःकालीन भ्रमण के दौरान पोपट मुझे दरवाजे के पास मिल जाता। हाथ उठाकर सलाम करता और मैं भी मुसकरा कर हाथ उठा देता।आंखों ही आंखों में एक अनबोला रिश्ता बन गया था।
चार दिन बाद मैंने पोपट को अपनी जगह बैठे देखा तो खुशी हुई। हमेशा की तरह दुआ सलाम हुई।आज मुझसे रहा नहीं गया और मैं इतने दिन नहीं आने का कारण पूछा।उसने न आने की वजह बारिश बताई।
उत्सुकतावश मैंने फिर पूछ लिया," तम रोजाना यहां पर कैसे आते हो?"
उसकी आंखों में आंसू आ गए और नम आंखों से कहा,"हमारे कुछ लोगों का सरदार रोजाना हमें टेम्पो में बिठाकर लाता है और शहर के चौराहों, अस्पतालों, बाग बगीचों के बाहर छोड़ जाता है।शाम के बाद अपने अड्डे पर ले आता है।सारी कमाई वह लेता है और हमारे पापी पेट को रूखा सूखा मिल जाता है।
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। जैसे एक बिजली कौंधी।
हाथ जोड़कर मैंने आसमान की तरफ देखा और परमात्मा से कहा- कैसे हैं ये लोग जो निशक्तजनों का खून पी पी कर सशक्त बनते चले जा रहे हैं।
-0-
तरुण कुमार दाधीच
उदयपुर (राजस्थान)
-०-



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मत समय बर्बाद कर (कविता) - सुनील कुमार माथुर

मत समय बर्बाद कर
(कविता)
देखों यारों इस देश का क्या होगा 
हर कोई समय देकर भी 
खुद विलम्ब से आ रहा है 
समय की उपेक्षा कर रहा है 
वह यह भूल रहा है कि 
गया समय वापस नहीं आता है 
लाखों , करोडों रूपये दो तो भी
वह वापस नहीं आता है 
हे मानव तू क्यों समय की अनदेखी कर रहा है 
जिस दिन समय ने तेरी उपेक्षा कर दी
उस दिन तेरा क्या होगा 
समय बडा कीमती है 
समय का मोल तू पहचान 
हे मूर्ख इंसान तू किस भ्रम में है
किसी को समय देकर तू
उसका भी कीमती समय बर्बाद कर रहा है 
वही दूसरी ओर तू अपने आपको
धोखा दे रहा है एवं 
तू पाप का भागीदार बन रहा है 
जिसने भी समय की उपेक्षा की
उसका सदा विनाश हुआ है 
हे मानव ! तूने अब भी 
समय को नहीं पहचाना तो समझो
इस संसार में आकर भी
तेरा जीवन व्यर्थ हैं
-०-
सुनील कुमार माथुर ©®
जोधपुर (राजस्थान)

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