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Monday, 9 December 2019

हेलमेट (लघुकथा) - प्रकाश तातेड

हेलमेट
(लघुकथा)
विगत दो महीने से शहर के दुपहिया वाहन चालक पुलिस द्वारा हेलमेट की अनिवार्यता को लेकर बहुत परेशान रहे। करीब आधे वाहन चालकों ने जुर्माना भरा और हेलमेट भी खरीदा। कुछ ने शहर आना- जाना ही बंद कर दिया। कुछ चौराहों से बचकर दूर से निकलते। इस बीच जनता के अनेक संगठनों ने शहर की आबादी व भौगोलिक स्वरूप को देखते हुए हेलमेट की अनिवार्यता में छूट देने की मांग की मगर तत्काल कोई लाभ नहीं हुआ।
कुछ दिनों में पुलिस का हेलमेट हिमायती अभियान अब ठंडा पड़ चुका है। एक पत्रकार ट्रैफिक पुलिस के अधिकारी से मिला और पूछा -'क्या हेलमेट पहनने का अभियान अब समाप्त हो गया है ?'
अधिकारी- 'हां, हर अभियान का एक निश्चित समय एवं लक्ष्य होता है।'
पत्रकार- 'क्या इस अभियान के लक्ष्य की पूर्ति हो गई है ?'
अधिकारी- 'हां, इस अभियान के दो लक्ष्य थे। पहला जुर्माने के रूप में बीस लाख रुपए का सरकारी कोष में संग्रहण तथा दूसरा दो हजार हेलमेट की बिक्री से एक लाख रुपए का कमीशन । हमने दोनों ही लक्ष्य शत-प्रतिशत प्राप्त कर लिए हैं।'
पत्रकार-'आपको लक्ष्य की सफलता के लिए बधाई!'
अधिकारी-' वह तो ठीक है मगर यह सब अखबार में छाप मत देना। यह ऑफ द रिकॉर्ड है।' पत्रकार ने एक मुस्कान के साथ विदाई ली।
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पता-
प्रकाश तातेड़
उदयपुर(राजस्थान)
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दीवार पर (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

दीवार पर
(लघुकथा)
बचपन के बाद जवानी, जवानी के बाद बुढापा। अम्मा को इस बुढापे ने घेर लिया था। अम्मा को घर में एक कोना दे दिया गया। बाकी सारे घर पर बेटे-बहुओं, पोतों ने कब्जा कर लिया। अम्मा ने इस नियति को स्वीकार कर लिया। पर उनकी एक इच्छा अभी अधूरी थी। बेटों से कहा, बहुओं से कहा, पोतों से भी। सबने सुनकर अनसुना का दिया। इच्छा थी कि बरामदे की दांई तरफ वाली दीवार के पास उनकी चारपाई रखी जावे। वहां से सारा घर दिखाई देता है। घर के लोग भी आते-जाते दिखते हैं। कभी-कभी तो गली में खेलते बच्चें भी दिखाई दे जाते हैं। पर किसी ने भी उनकी बात नहीं मानी।
बचपन से जवानी, जवानी से बुढापा। बुढापे से... वही दिन आ गया। अम्माजी ने अंतिम सांस ले ली।
अगले दिन एक दुखी बेटे के हाथ में फोटो थी, दूसरे के हाथ में कील और हथौड़ा। दोनों षोकग्रस्त थे। पर बड़ी सुघड़ता से फोटो दीवार पर टांग दिया। घर में से किसी ने एक फूलमाला भी फोटो को पहना दी।
किसी के दिल से आवाज निकली-- आज अगर अम्मा जी जीवित होती तो देखती कि उसी दीवार के पास होने की उनकी वर्शों पुरानी तमन्ना पूरी हो गई है। उन्हें सदा के लिये उसी दीवार पर टांग दिया गया है।
-०-
गोविन्द शर्मा
संगरिया- हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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जीना छोड़ दिया क्या? (ग़ज़ल) - सत्यम भारती

जीना छोड़ दिया क्या?
(ग़ज़ल)
समस्याओं से उसने मुख मोड़ लिया क्या ?
आज फिर किसी ने जीना छोड़ दिया क्या?

खूनी खंज़र छिपा कर वो भीड़ से पूछता,
कत्ल कर कातिल उस ओर गया क्या ?

बिन कफ़न निकली आज उसकी मैय्यत,
शराब ने सारा धन निचोड़ लिया क्या ?

अजनबी से बांध रही हो दिल की डोर,
पिछले वाले से रिश्ता तोड़ दिया क्या ?

मयख़ानों में घट रही है भीड़ आजकल,
लोगों ने इश्क करना छोड़ दिया क्या ?
-०-
पता-
सत्यम भारती
नई दिल्ली
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बलात्कारियों को हमे खुद सजा देनी चाहिए (आलेख) - सुरेश शर्मा

बलात्कारियों को हमे खुद सजा देनी चाहिए
(आलेख)
हमारे देश की यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि, जुर्म औ
जुल्म दोनो ही बहुत आसानी से किये जाते है । 

जैसे कि बलात्कार ! आज यह आम बात हो गई है । हर रोज हमे सुनने को मिल ही जाता है कि आज उस शहर मे कुछ लोगों ने मिलकर एक छोटी लड़की के साथ बलात्कार किया । आज उस शहर मे सामुहिक बलात्कार हुआ । जैसे कोई जघन्य अपराध नही बल्कि एक आम बात हो गई हो।

घटना होने के बाद कुछ आवाज़े उठती है ।शोक और शांति के लिए मोमबत्तियां जलाकर शान्ति मार्च निकाले जाते है और फिर आवाज या तो दब जाती है या फिर दबा दिये जाते है । हमारी पुलिस मुजरिमों को पकड़ती है, उनपर मुकदमा चलाया जाता है; जबतक फैसला जनता के सामने आता है तब तक कई महीने और साल बीत जाते है । लोग धीरे-धीरे उस घटना को भूल जाते है और फिर आवाज भी दब जाती है । 

नतीजा ! आज हम देश की जनता कानून व्यवस्था और अपनी देश की प्रशासन प्रणाली पर से आहिस्ता-आहिस्ता विश्वास खोते जा रहे है । 

आये दिन देश के विभिन्न प्रान्तो से विभिन्न तरह की अप्रिय घटनाओं की खबरे आती रहती है । जैसे हिंसा, हत्या , रक्तपात , आगजनी, सड़क दुर्घटना ,अगुवा ,बच्चे की चोरी,फांसी, गाड़ियों की चोरी इत्यादि । इनमे से सबसे घिनौनी और जघन्य अपराध है बलात्कार । हा ! बलात्कार !
क्या हमारे देश मे बलात्कारियों को उचित दण्ड मिलता है ? 
बलात्कारी पकड़े जाते है ,बा-इज्जत उसको जेल मे लाखो रूपये खर्च करके देखभाल की जाती है । और फिर हमारे देश की लचकदार कानून व्यवस्था की वजह से कुछ दिन बाद उसे छोड़ दिया जाता है ।

क्या हमारे देश मे कोई ऐसी कानून नही बनाई जा सकती जिससे कि ऐसा घिनौना और जघन्य काम करने से पहले इनकी रूह तक कांप उठे । और भविष्य मे दूसरे लोग भी ऐसा घिनौना काम करने की जुर्रत ना कर सके ।
बलात्कार ! आज के सभ्य और सुशिक्षित समाज के लिए एक बदनुमा दाग है । घोर कलंक है हमारे समाज के लिए ।

आज हम अपनी बेटियों को घर से बाहर अकेले भेजने से डरते है । शाम होते ही हमे यह चिन्ता सताने लगती है कि 
हमारी बच्चियां सही सलामत घर कब पहुचे । आखिर चिंता हो भी ना क्यों , क्योंकि आज घर के बाहर हर गली चौराहे पर खूंखार भेड़िये मंडराते रहते है कि कब कोई मासूम बच्ची घर से बाहर अकेले निकले और उसे दबोचकर अपना शिकार बना ले ।

आखिर कब तक हम अपनी बच्चियों को इस तरह दरिन्दो के डर से घर मे छुपाकर रखेंगे? 

क्या हम खुद सुरक्षित नही रख सकते अपनी बच्चियों को ? क्या आज हमारा समाज इतना ही कमजोर हो गया है कि हम इन बलात्कारी दरिन्दो से अपनी बहू, बेटी और बहनो को सुरक्षित नही रख सकते ?

अब हमे फिर से इतिहास दोहराने की जरूरत है ।आज हमारी मा, बहनो और बेटियों को अबला नही सबला बनना होगा । अंग्रेजो के समक्ष सीना तानकर मुकाबला करके उनके छक्के छुड़ाने वाली वीरांगनाओ लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू और कलकत्ता बरूआ की तरह इन बलात्कारी दरिन्दो के जहरीले फन को कुचलना होगा ।

ऐसे जघन्य अपराध करने वाले बलात्कारी दरिन्दो को नारियां खुद अपने हाथो से कठोर से कठोर दण्ड देकर सबक सिखाए ताकि फिर कभी ऐसी घिनौनी हरकत करने से पहले इनकी रूह तक कांप उठे । 

आज हमे हमारी सुरक्षा खुद करनी होगी । ऐसे जघन्य और अमानवीय घटना को अंजाम देने वाले को सामुहिक सजा देने की व्यवस्था हमे खुद अपने हाथो करनी चाहिए ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी, जिला कामरूप (आसाम)
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निर्भया से मुक्ति कब? (आलेख) - श्रीमती सुशीला शर्मा

निर्भया से मुक्ति कब?
(आलेख)
आए दिन होने वाली निर्भया कांड के समाचार, लेख, कविताएँ, कहानियाँ पढ़ने से लगता है जैसे हम युग परिवर्तन करने जा रहे हैं ।कांड होता है, हल्ला होता है, मोमबत्तियाँ जलती हैं और हजारों लोग सड़कों पर उतर आते हैं, नारे लगाते हैं, कहानियाँ घड़ते हैं ।टीवी चैनल, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ मुद्दे को मसालेदार बनाकर पी आर पी बढ़ाते हैं।
आज मुझे याद आती है महान कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कविता "एक फूल की चाह "।भले ही विषय भिन्न हो, लेकिन सुखिया जैसी कई निर्भया हैं जिन्हें जलाया गया है ।सुखिया तो महामारी का शिकार हुई थी लेकिन आज फैल रही बलात्कार, भ्रष्टाचार की महामारी का क्या इलाज है ।लोगों की मानसिकता को कैसे बदला जाए ।ये बीमारी तो हमारे किशोरों,युवा,प्रौढ और यहाँ तक कि वृद्धों तक महामारी के रूप में फैल रही है ।इसका ना तो कोई 'टीका ' बना है ना ही कोई 'इंजेक्शन '।कितनी विडंबना है कि एक पिता को अपनी बेटियाँ "राख के ढेर " के रूप में मिलती हैं।मजबूर है वो पिता जो बेटी का बाप होकर अपने को कोसने लगता है ।
हमारे देश की चंद बेटियाँ बड़े बड़े विलक्षण काम करके देश का नाम विश्व स्तर पर कायम कर रही हैं लेकिन क्या वे अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हैं? सरकार उन्हें आत्म सुरक्षा की ट्रेनिंग देने की मुहिम तो चलाती है लेकिन कितने अभिभावक हैं जो अपनी बेटियों को उसके लिए भेजते हैं या बचपन से उन्हें इतना ताकतवर बनाते हैं जो वो अपनी सुरक्षा के लिए कम से कम हाथ-पैर तो मार सके ।लेकिन ये सिलसिला तबतक चलता रहेगा जब तक अमानुष विकृत बुद्धि के लोगों का इलाज नहीं होगा ।क्यों आदमी, औरतों को कुदृष्टि से देखता है? कहाँ चली जाती है मर्यादा जो वो अपनी स्वयं की बेटियों के लिए चाहता है ।झंडे और मोमबत्ती लेकर तो हजारों लोग निकल पड़ते हैं मगर कौन जानता है कि उनमें सभी दूध के धुले हैं।जुलूस निकालना, तोड़ा फोड़ी करना, सार्वजनिक चीजें तोड़ना ,अराजकता फैलाकर सरकार के कानून को दोषी ठहराना तो आज आम बात हो गई है ।हम दुनिया बदलने की बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन स्वयं को नहीं बदल सकते ।
हमारे देश में खाली दिमाग शैतान का घर बनता जा रहा है ।अधिकांश बच्चे, युवा, प्रौढ, वृद्ध ऐसे हैं जिनके पास व्यस्त रहने के लिए कोई काम नहीं है ।छोटे काम करने में वे अपनी तौहीन समझते हैं ।घरेलू काम, खेती-बाड़ी ,छोटा काम करने को छोड़कर हर कोई कुर्सी में बैठने के सपने देखता है ।खाली बैठना, लूट पाट, धोखाधड़ी, चोरी, ह्त्या से तो अब डर हट ही गया है ।सोचते हैं जब तक पकड़े नहीं जाते, वारदात को अंजाम देते रहें ।पकड़े भी गए तो जमानत से छूट जाएँगे वर्ना सरकारी जवाँई बन कर रोटी तो मिल ही जाएगी ।
सारी बातों का निचोड़ है मानसिकता में बदलाव ।अब ये कैसे आएगा, हमारे मनोचिकित्सक, समाज सुधारक, शिक्षक, अभिभावक एवं गुणगान ही इसका समाधान निकालें ।
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पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा 
जयपुर (राजस्थान) 
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डर (कविता) - डॉ. ज्योति थापा

डर डॉ. ज्योति थापा

(कविता)
डर लगता है
उस रास्ते गुजरने से
जहाँ अभी भी घना अंधेरा छाया है
इस्ट्रीट लाइट तो है
जो रास्ता उजियारा करता हैं
लेकिन रास्ते किनारे का अंधेरा दूर नहीं कर पाता
डर लगता है
वेशी दरिंदों के साये से
पता नहीं किस ताक पर हो
कब हमला कर दे आप पर
डर लगता है
उन ताकती नजरों से
जो आपके ओढ़नी के अंदर तक झाकती है
कहीं फिसल न जाए उनका इमान
इस बेइमानी से डर लगता है
डर लगता है
उन जानवर के सासों की आवाज से
जिसके नीचे आपकी चीख दब जाती है
यहाँ करते हैं वादे कई नारी सुरक्षा की लेकिन
फिर प्रियंका रेड्डी जैसा किस्सा सामने आ जाता है
-०-
पता
डॉ. ज्योति थापा 
काछाड़ (असम) 

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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

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हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
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