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Thursday, 23 July 2020

वक्त (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

वक्त
(लघुकथा)
दसवीं कक्षा में पहुंचे पोते मनु के बदले रंग ढंग को दादा ब्रजकिशोर की बूढ़ी और अनुभवी आंखों ने मानो पढ़ और समझ लिया है। फिर कल उसे मोहल्ले के बिगड़ैल लड़कों के साथ घूमते देख उनकी फिक्र बढ़ गई है। ब्रजकिशोर बेटे दिनेश से कह रहे हैं सिर्फ कमाने में ही मत लगा रहा कर घर की तरफ भी थोड़ा ध्यान दे। मनु की फिक्र भी किया कर वह बड़ा हो रहा है और गलत संगत में भी पड़ता दिखाई देने लगा है। उनका इतना कहना था कि बहू सरिता बरस पड़ती है बाबूजी की तो पता नहीं क्यों मनु से आजकल कुछ दुश्मनी हो गई है। वह कुछ भी करे इन्हें गलत ही लगता है। यह सुन ब्रजकिशोर खामोश हो जाते हैं। जानते हैं अब कुछ बोले तो बहस हो जाएगी। इस बीच दिनेश ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगता है खूंटी पर टंगा मनु की पैंट गलती से उससे नीचे गिर जाती है। जब पैंट टांगने लगता है तो जेब से सिगरेट का पैकेट बाहर झांकता है। आॅफिस जाते वक्त रास्ते में सोचता है बाबूजी का कहना ठीक ही है - मनु की तरफ ध्यान देने का वक्त आ गया है।
-०-
पता:
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


-०-
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तुम और मैं (कविता) - रूपेश कुमार


तुम और मैं
(कविता)
तुम और मैं ,
शायद एक डाली के दो फुल ,
कही काँटे तो कही कली ,
कोई नाजुक तो कोई कठोर ,
कोई दर्द देता है तो कोई दर्द लेता है ,
जिवन की यही रीति है ,
कोई रो रहा है कोई हँस रहा है ,
कही खुशियाँ मन रहा है कही आसूँ बह गया है ,
जीवन मे रास्ते भी अजनबी है ,
कब कहाँ अपना मिल जायें ,
ये कोई नही जानता ,
जो रुला कर चला जायें ,
लेकिन छोड़ जाता है ,
सिर्फ यादें ,
जो ना मरने देती है ,
और ना जीने देती है ,
क्या करूँ ,
मर भी जाऊगा तो ,
याद तुम्हें कौन करेगा ,
किसको सताओगी तुम ,
कौन तुम्हारी यादों मे ,
घुट-घुट कर मरेगा ,
तुम जो हो वो और नही हो सकता ,
तुम्हारी मुस्कान , तुम्हारी चाहत ,
तुम्हारी आँखे , तुम्हारी नजरें ,
तुम्हारी खवाबों का समंदर ,
तुम्हारी खनकती चाल , प्यार ,
जो सबमे नही वो तुममें है ,
तुम हो जो कोई नहीं ,
क्या बताऊँ तम्हें मै ,
तुम मेरी आरजु हो , तुम मेरी गुस्त्जू हो ,
तुम मेरी चैन , तुम मेरी रैन ,
तुम मेरी परछाई , तुम मेरी हरजाई ,
क्या बताऊँ तुम्हें ,
तुम मेरी जिवन की जन्म हो ,
तुम मेरी जिवन की मृत्यु हो ,
क्या कहूँ जो ना ना कहूँ ,
वो सब तुम ही तुम हो !
-०-
पता:
रूपेश कुमार
चैनपुर,सीवान बिहार
-०-


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समझते थे (ग़ज़ल) - नदीम हसन चमन



समझते थे
(ग़ज़ल) 
लोग सब फूल वाले ख़ार समझते थे
कैसे पत्थरों को वफ़ादार समझते थे

इक पाया मैं भी हूँ मेरी भूल निकली
मुझे लोग रास्ते की दीवार समझते थे

हवा चराग़ की कुर्बानी से जल उठेगी
सितारे चाँद को गुनाहगार समझते थे

आवाज़ बग़ावत की रोज़ क़त्ल होती
तू ज़िंदा है वो तो शिकार समझते थे

इक वो ईमान हक़ इंसाफ का दौर था
बंटवारे को लोग अपनी हार समझते थे

उठा अपनी लाश चल निकल नदीम
वे चेहरे नहीं जो जांनिसार समझते थे
-०-
पता
नदीम हसन चमन
गया (बिहार) 
-०-


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खुशहाल रहे (मुक्तक) - डॉ. नीलम खरे


खुशहाल रहे
(मुक्तक)
बस यही मानना मेरी है अब,खाली ना कोय थाल रहे
बस यही भावना है मेरी अब,सुख पूरित हर साल रहे
'नीलम' की चाहत खुशबू से अब,महके हर इक बस्ती,
बस यही कामना है मेरी,अब हर आँगन खुशहाल रहे ।

वक्त सदा ही मधुरिम हो,अब उसकी सीधी चाल रहे
ना पॉकिट कोई खाली हो,हर अंटी में अब माल रहे
'नीलम' की है मंशा यह,अब सुखी रहे हर नर-नारी,
बस यही कामना है मेरी,अब हर आँगन खुशहाल रहे ।
-०-
डॉ. नीलम खरे
व्दारा- प्रो.शरद नारायण खरे, 
मंडला (मध्यप्रदेश)


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