दुनिया भर में सर्वाधिक चलचित्र बनाने का कीर्तिमान भारत देश के खाते में है। यहां रोमांच , रोमांस, ट्रेजड़ी, कॉमेडी आदि रंगों से परिपूर्ण रंगीन चलचित्र बनाए जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व देश में निर्मित बाल फ़िल्मों में राष्ट्रियता , नैतिकता , परिवारवादिता का सबक सशक्त ढंग से सिखाया जाता था। चलचित्र सामाजिक सरोकारवाली होने के कारण न सिर्फ़ दर्शकों द्वारा दिल से सराही, स्वीकारी जाती थी बल्कि पुरस्कार भी प्राप्त करती थी।
निर्देशक सत्येन बोस की श्वेत – श्याम फ़िल्म ‘ जागृति ‘ देश प्रेम से ओत प्रोत श्रेष्ठ फ़िल्म है। होस्टल में रहनेवाले अमीर बिगड़ैल बच्चों को एक सच्चा शिक्षक प्रेरणादयी प्रयासों से सुधारता है। शिक्षक विद्दार्थियों को भारत देश की समृद्ध विरासत के बारे में बताते, समझाते हैं। इसी निर्देशक की सुपर हिट ‘ दोस्ती ‘ में भी एक बुजुर्ग शिक्षक एक शरारती , पढ़ाई से जी चुरानेवाले बच्चे के मन में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी जगाते हैं। फलस्वरूप बच्चा अच्छे अंकों से पास होता है। अभिनेता , निर्माता राज कपूर की लीक से हटकर बनी सार्थक, सोद्देश्यपूर्ण फ़िल्म है ‘ बूट पोलिश ( 1954 )‘। दो मासूम , अनाथ भाई – बहन जोकि भीख मांगकर फटेहाल जीवन जीते हैं। उन्हें एक शराबी ( डेविड ) परिश्रम करके आत्मसम्मान से ज़िंदगी जीने की कला सिखाता है। तीन फ़िल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त इस चलचित्र में दोनों बच्चों ने सहजता से स्वाभाविक अभिनय किया है जोकि काबिले गौर है। निर्देशक प्रकाश अरोड़ा की इस फ़िल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे।
निर्देशक चेतन आनंद की प्रयोगात्मक फ़िल्म ‘ आख़िरी ख़त ‘ में मां की मृत्यु के बाद , दर – दर भटकते, बोल न सकनेवाले भोले – भाले बच्चे पर पूरी फ़िल्म केंद्रित है। अलग , अद्भुत विषय के बावजूद निर्देशक की कल्पनाशक्ति और सूझ – बूझ के कारण दर्शक बच्चे की हालत देखकर तड़फ़ उठते हैं। बच्चे की हैरानी – परेशानी देखकर भावुक हो उठते हैं , यही फ़िल्म की सफलता का कारण है। ‘ नन्हा फरिश्ता ‘ में प्राण , अजीत और अनवर हुसैन खूंखार डाकू बने हैं। ये तीनों एक बच्ची का अपहरण करते हैं। बच्ची अपनी बालसुलभ बातों और बुद्धि चातुर्य से डाकुओं का हृदय परिवर्तन करने में सफल होती है। निर्देशक के. ए. अब्बास ने बाल फ़िल्म ‘ हमारा घर ‘ बनायी थी। यह पहली ऐसी भारतीय फ़िल्म थी जिस में सभी बच्चों ने पहली बार कैमरे का सामना किया था। सही मायनों में इसे पहली बाल फ़िल्म कहलाने का अधिकार है। आमिर ख़ान अभिनीत और निर्मित ‘ तारे जमीन पर ‘ में दिखाया गया है कि एक छात्र ( दर्शिल ) हमेशा अपने ही ख़यालों में खोया – खोया सा रहता है। स्कूल के कला शिक्षक उसके अंदर छिपी चित्रकारिता की प्रतिभा को पहचानकर , तराशकर उसे प्रोत्साहित करते हैं। मजे की बात यह है कि कई जगहों पर अध्यापकों और अभिभावकों को यह फ़िल्म दिखाई गई, ताकि वो बच्चों की मनस्थिति को भली भांति समझ सकें। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘ पा ‘ में दिखाया गया है कि ‘ प्रोजेरियी ‘ रोग की जकड़न से पीड़ित 13 साल का मासूम बच्चा देखते – देखते बचपन में ही बूढ़ा होने लगता है। ऐसे विविध विषयों पर फ़िल्म बनाना काफी जोखिम वाला काम है , इस साहस के लिए मिर्माता और निर्देशक वाकई बधाई के पात्र हैं। होलीवुड में अलग – अलग विषयों पर फ़िल्में बनाना आम बात है। जबकी हमारे देश में ऐसी फ़िल्मों की संख्या नगण्य है। धीरे – धीरे ही सही भारतीय फ़िल्मकारों में बदलाव की बयार देखने को मिल रही है , जिसकी सराहना होनी बेहद जरूरी है।
इसके अलावा ढेरों अर्थपूर्ण , लोकप्रिय गाने भी बने हैं जोकि बच्चों पर चित्रित किए गए। इन गीतों में बच्चों की मासूमियत , शरारत के अलावा समझदारी , दुनियादारी की भी झलक मिलती है। उदाहरण के तौर पर ‘ दो कलियां ‘ के गीतों के बोल हैं , ‘ बच्चे मन के सच्चे। सारी जग की आंख के तारे। ये वो नन्हें फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे ….। ‘ इस में झूठ , छल - कपट से सदा दूर रहनेवाले बच्चों का दर्शन कराया गया है। ‘ बच्चे में है भगवान। बच्चा जग की शान। गीता इस में, बाईबल इस में, इस में है कुरान …..( नन्हा फरिश्ता )। इस गीत में भोले – भाले बच्चे की तुलना ईश्वर से की गई है। ‘ नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है। मुट्ठी में है तकदीर हमारी ……….. ( बूटा पालिश ) इस गाने में सुंदर संदेश दिया गया है कि संकल्प में सच्चाई , ईमानदारी हो तो रास्तों में आने वाली रुकावटों को हटाया जा सकता है। ‘ छोटा बच्चा जान के हमको ना कोई आंख दिखाना रे, डुगी – डुगी डम – डम। अक्ल का कच्चा समझ के हमको ना समझाना रे……. ( मासूम )। इस गाने में शरारती बच्चे ने बड़ों को यह समझाने की कोशिश की है कि उनकी होशियारी , समझदारी और स्मार्टनेस को कम नहीं आंकना चाहिए। तू कितनी अच्छी है। तू कितनी भोली है…. ( राजा और रंक ) और ‘ ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…… ( दादी मां ) दोनों गीतों में ममतामयी माता का गुणगान सहज, सरल , सटीक शब्दों में किया गया है। नई पीढ़ी के बच्चों के लिए ये प्रेरणा समान है। ‘ आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की…., ‘ हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के….., ‘ दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग , बिना ढाल। साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल…. ( जागृति ) इन गीतों में देश के प्रति प्रेम , आदरभाव , मान – सम्मान करना सिखाया गया है। ‘ सुन ले बापू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम….. ( बालक ) इस गाने में भाषावाद , जातिवाद व प्रांतवाद पर प्रहार किया गया है। ‘ सात समंदर पार से , गुड़ियों के बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना। गुड़िया चाहे ना लाना। पापा जल्दी आ जाना….. ( तकदीर ) इस गीत में परिवार के पालन – पोषण के लिए , बीवी – बच्चों से दूर रहनेवाले कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ पिता के प्रति बच्चों के प्यार, पीड़ा , तकलीफ, तड़फ को मर्मस्पर्शी शब्दों से दर्शाया गया है। और भी कई उल्लेखनीय गीत हैं , सभी को शामिल करना संभव नहीं।
30 -40 साल पहले की बात करें तो अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को फ़िल्में देखने से रोकते – टोकते थे । आजकल हालात बिलकुल भिन्न हैं। माता – पिता खुद अपने बच्चों को सार्थक संदेश देने वाली फ़िल्में देखने के लिए बढ़ावा देते हैं। बोलीवुड के निर्माताओं को यह नहीं भूलना चाहिये कि ‘ सुपरमैन ‘, ‘ स्पाईडरमैन ‘, ‘ हैरी पॉटर ‘, ‘ जगल बुक ‘, ‘ एवेंजर्स एंडगेम ‘ आदि अंग्रेज़ी फ़िल्मों को पसंद करनेवाले बाल दर्शक देश में बड़ी संख्या में मौजूद हैं। हमारे हिंदुस्तान में बाल फ़िल्मों के विषय, प्रस्तुतिकरण में विविधता, विशिष्टता हो तो सोने पे सुहागा समझिए। बेहतरीन फ़िल्मों को दर्शकगण सिर आंखों पर बिठाकर हिट करने में अहम भूमिका निभाएंगे।
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