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Monday, 23 December 2019

बाल फ़िल्मों को बढ़ावा देना बेहतर (आलेख) - अशोक वाधवाणी


बाल फ़िल्मों को बढ़ावा देना बेहतर
(आलेख)
दुनिया भर में सर्वाधिक चलचित्र बनाने का कीर्तिमान भारत देश के खाते में है। यहां रोमांच , रोमांस, ट्रेजड़ी, कॉमेडी आदि रंगों से परिपूर्ण रंगीन चलचित्र बनाए जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व देश में निर्मित बाल फ़िल्मों में राष्ट्रियता , नैतिकता , परिवारवादिता का सबक सशक्त ढंग से सिखाया जाता था। चलचित्र सामाजिक सरोकारवाली होने के कारण न सिर्फ़ दर्शकों द्वारा दिल से सराही, स्वीकारी जाती थी बल्कि पुरस्कार भी प्राप्त करती थी। 

निर्देशक सत्येन बोस की श्वेत – श्याम फ़िल्म ‘ जागृति ‘ देश प्रेम से ओत प्रोत श्रेष्ठ फ़िल्म है। होस्टल में रहनेवाले अमीर बिगड़ैल बच्चों को एक सच्चा शिक्षक प्रेरणादयी प्रयासों से सुधारता है। शिक्षक विद्दार्थियों को भारत देश की समृद्ध विरासत के बारे में बताते, समझाते हैं। इसी निर्देशक की सुपर हिट ‘ दोस्ती ‘ में भी एक बुजुर्ग शिक्षक एक शरारती , पढ़ाई से जी चुरानेवाले बच्चे के मन में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी जगाते हैं। फलस्वरूप बच्चा अच्छे अंकों से पास होता है। अभिनेता , निर्माता राज कपूर की लीक से हटकर बनी सार्थक, सोद्देश्यपूर्ण फ़िल्म है ‘ बूट पोलिश ( 1954 )‘। दो मासूम , अनाथ भाई – बहन जोकि भीख मांगकर फटेहाल जीवन जीते हैं। उन्हें एक शराबी ( डेविड ) परिश्रम करके आत्मसम्मान से ज़िंदगी जीने की कला सिखाता है। तीन फ़िल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त इस चलचित्र में दोनों बच्चों ने सहजता से स्वाभाविक अभिनय किया है जोकि काबिले गौर है। निर्देशक प्रकाश अरोड़ा की इस फ़िल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे। 

निर्देशक चेतन आनंद की प्रयोगात्मक फ़िल्म ‘ आख़िरी ख़त ‘ में मां की मृत्यु के बाद , दर – दर भटकते, बोल न सकनेवाले भोले – भाले बच्चे पर पूरी फ़िल्म केंद्रित है। अलग , अद्‌भुत विषय के बावजूद निर्देशक की कल्पनाशक्ति और सूझ – बूझ के कारण दर्शक बच्चे की हालत देखकर तड़फ़ उठते हैं। बच्चे की हैरानी – परेशानी देखकर भावुक हो उठते हैं , यही फ़िल्म की सफलता का कारण है। ‘ नन्हा फरिश्ता ‘ में प्राण , अजीत और अनवर हुसैन खूंखार डाकू बने हैं। ये तीनों एक बच्ची का अपहरण करते हैं। बच्ची अपनी बालसुलभ बातों और बुद्धि चातुर्य से डाकुओं का हृदय परिवर्तन करने में सफल होती है। निर्देशक के. ए. अब्बास ने बाल फ़िल्म ‘ हमारा घर ‘ बनायी थी। यह पहली ऐसी भारतीय फ़िल्म थी जिस में सभी बच्चों ने पहली बार कैमरे का सामना किया था। सही मायनों में इसे पहली बाल फ़िल्म कहलाने का अधिकार है। आमिर ख़ान अभिनीत और निर्मित ‘ तारे जमीन पर ‘ में दिखाया गया है कि एक छात्र ( दर्शिल ) हमेशा अपने ही ख़यालों में खोया – खोया सा रहता है। स्कूल के कला शिक्षक उसके अंदर छिपी चित्रकारिता की प्रतिभा को पहचानकर , तराशकर उसे प्रोत्साहित करते हैं। मजे की बात यह है कि कई जगहों पर अध्यापकों और अभिभावकों को यह फ़िल्म दिखाई गई, ताकि वो बच्चों की मनस्थिति को भली भांति समझ सकें। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘ पा ‘ में दिखाया गया है कि ‘ प्रोजेरियी ‘ रोग की जकड़न से पीड़ित 13 साल का मासूम बच्चा देखते – देखते बचपन में ही बूढ़ा होने लगता है। ऐसे विविध विषयों पर फ़िल्म बनाना काफी जोखिम वाला काम है , इस साहस के लिए मिर्माता और निर्देशक वाकई बधाई के पात्र हैं। होलीवुड में अलग – अलग विषयों पर फ़िल्में बनाना आम बात है। जबकी हमारे देश में ऐसी फ़िल्मों की संख्या नगण्य है। धीरे – धीरे ही सही भारतीय फ़िल्मकारों में बदलाव की बयार देखने को मिल रही है , जिसकी सराहना होनी बेहद जरूरी है। 

इसके अलावा ढेरों अर्थपूर्ण , लोकप्रिय गाने भी बने हैं जोकि बच्चों पर चित्रित किए गए। इन गीतों में बच्चों की मासूमियत , शरारत के अलावा समझदारी , दुनियादारी की भी झलक मिलती है। उदाहरण के तौर पर ‘ दो कलियां ‘ के गीतों के बोल हैं , ‘ बच्चे मन के सच्चे। सारी जग की आंख के तारे। ये वो नन्हें फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे ….। ‘ इस में झूठ , छल - कपट से सदा दूर रहनेवाले बच्चों का दर्शन कराया गया है। ‘ बच्चे में है भगवान। बच्चा जग की शान। गीता इस में, बाईबल इस में, इस में है कुरान …..( नन्हा फरिश्ता )। इस गीत में भोले – भाले बच्चे की तुलना ईश्वर से की गई है। ‘ नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है। मुट्ठी में है तकदीर हमारी ……….. ( बूटा पालिश ) इस गाने में सुंदर संदेश दिया गया है कि संकल्प में सच्चाई , ईमानदारी हो तो रास्तों में आने वाली रुकावटों को हटाया जा सकता है। ‘ छोटा बच्चा जान के हमको ना कोई आंख दिखाना रे, डुगी – डुगी डम – डम। अक्ल का कच्चा समझ के हमको ना समझाना रे……. ( मासूम )। इस गाने में शरारती बच्चे ने बड़ों को यह समझाने की कोशिश की है कि उनकी होशियारी , समझदारी और स्मार्टनेस को कम नहीं आंकना चाहिए। तू कितनी अच्छी है। तू कितनी भोली है…. ( राजा और रंक ) और ‘ ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…… ( दादी मां ) दोनों गीतों में ममतामयी माता का गुणगान सहज, सरल , सटीक शब्दों में किया गया है। नई पीढ़ी के बच्चों के लिए ये प्रेरणा समान है। ‘ आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की…., ‘ हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के….., ‘ दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग , बिना ढाल। साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल…. ( जागृति ) इन गीतों में देश के प्रति प्रेम , आदरभाव , मान – सम्मान करना सिखाया गया है। ‘ सुन ले बापू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम….. ( बालक ) इस गाने में भाषावाद , जातिवाद व प्रांतवाद पर प्रहार किया गया है। ‘ सात समंदर पार से , गुड़ियों के बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना। गुड़िया चाहे ना लाना। पापा जल्दी आ जाना….. ( तकदीर ) इस गीत में परिवार के पालन – पोषण के लिए , बीवी – बच्चों से दूर रहनेवाले कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ पिता के प्रति बच्चों के प्यार, पीड़ा , तकलीफ, तड़फ को मर्मस्पर्शी शब्दों से दर्शाया गया है। और भी कई उल्लेखनीय गीत हैं , सभी को शामिल करना संभव नहीं। 

30 -40 साल पहले की बात करें तो अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को फ़िल्में देखने से रोकते – टोकते थे । आजकल हालात बिलकुल भिन्न हैं। माता – पिता खुद अपने बच्चों को सार्थक संदेश देने वाली फ़िल्में देखने के लिए बढ़ावा देते हैं। बोलीवुड के निर्माताओं को यह नहीं भूलना चाहिये कि ‘ सुपरमैन ‘, ‘ स्पाईडरमैन ‘, ‘ हैरी पॉटर ‘, ‘ जगल बुक ‘, ‘ एवेंजर्स एंडगेम ‘ आदि अंग्रेज़ी फ़िल्मों को पसंद करनेवाले बाल दर्शक देश में बड़ी संख्या में मौजूद हैं। हमारे हिंदुस्तान में बाल फ़िल्मों के विषय, प्रस्तुतिकरण में विविधता, विशिष्टता हो तो सोने पे सुहागा समझिए। बेहतरीन फ़िल्मों को दर्शकगण सिर आंखों पर बिठाकर हिट करने में अहम भूमिका निभाएंगे। 
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पता :
अशोक वाधवाणी
कोल्हापुर (महाराष्ट्र)

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ये दुनियाँ (कविता) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

ये दुनियाँ
(कविता)
ये दुनियाँ हमने डटकर देखी।
रोकर देखी,हँसकर देखी।।

जाने कितने रंग लिये यह,
गिरगिट लगे, परखकर देखी।।

कभी जिन्दगी लगे अगन- सी,
बन के लोहा तपकर देखी।

कभी जिन्दगी कोमल इतनी,
छूते ही ये बिखरकर देखी।

कभी रेंगे न जूँ कानों में,
माइक से चिल्लाकर देखी।

दहशतगर्दी भी दुनियाँ में,
डरते,सहम-सहमकर देखी।

बात-बात पर अड़ें,बिगड़ते,
जुल्म बड़े,ये सहकर देखी।।

पत्थर दिल ये नहीं पसीजें,
मिन्नत ,तड़प-तड़प कर देखी।

बावजूद यहाँ निष्ठा, नेकी,
चलती दुनियाँ ,जिस पे देखी।
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संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
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बड़ी हो गई (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

बड़ी हो गई
(लघुकथा)
आठ साल की पिचिका की दादी उसके पास रहने आ गई। दादी को पिचिका और पिचिका को दादी- अच्छी लगने लगे। एक दिन दादी ने देखा, पिचिका खूब गीली मिट्टी में खेल रही हैं।दादी ने किंचित गुस्से में कहा- यह क्या कर रही हो? न जाने तुम कब बड़ी होवोगी।
पिचिका को हंसी आ गई। बोली- दादीजी, आपको पता नहीं है क्या? मैं बड़ी हो गई हूं। जब से घर में मेरा छोटा भाई आ गया है। वह मुझसे से कोई चीज छीनता है और मैं रोकती हूं तो सब कहते हैं- देदो उसे, तुम बड़ी हो। कभी किसी बात को लेकर तो कभी किसी बात को लेकर मुझे कहते रहते हैं- तुम बड़ी हो, यह तुम्हें मारता है तो उसे वापस मत मारो। वह छोटा है तुम बड़ी हो। वह मम्मी के साथ ही जायेगा और पापा के साथ भी। तुम घर में रह सकती हो, क्योंकि तुम बड़ी हो। वाह दादी, आप पूछ रही हैं कि मैं बड़ी कब होऊंगी।
-०-
गोविन्द शर्मा
संगरिया- हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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कितने किरदार (ग़ज़ल) - सत्यम भारती

कितने किरदार
(ग़ज़ल)
हो कर मायूस सब बेज़ार बैठे हैं,
ले डिग्री की गठरी बेक़ार बैठे हैं ।

रोजग़ार समा गया सत्ता की आगोश में,
सिर्फ़ मैं नहीं मेरे कितने यार बैठे हैं ।

बदलना ही होगा समाज की सोच अब,
जंग तो छेड़ो हम तैयार बैठे हैं ।

निकले किस गली से घर की बहूं-बेटियाँ,
हर तरफ़ ज़िस्म के खरीदार बैठे हैं ।

क़र्म करो ऐसा कि हो फ़क्र करे तुझ पर,
तुम पे हँसने को तेरे रिश्तेदार बैठे है ।

एक-तरफ़ा प्यार वैसा ही होता जैसे,
नाव इस तरफ़ माँझी उस पार बैठे हैं ।

लैलाओं का चक्कर छोड़ो लक्ष्य पे फोकस करो,
कितने मज़नूं यहाँ इश्क़ में बीमार बैठे हैं ।

जिससे भी हाथ मिलना ज़रा परख़ना 'सत्तू'
मानव के अंदर कितने किरदार बैठे हैं ।
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पता-
सत्यम भारती
नई दिल्ली
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बच्चे का दिल दुखा दिया (संस्मरण) - श्रीमती सुशीला शर्मा

बच्चे का दिल दुखा दिया
(संस्मरण)
बात कुछ दिन पहले की है ।हम दोनों कार में बाजार जा रहे थे ।अजमेरी गेट से चौड़े रास्ते के सिग्नल पर लाल लाइट में रुके तो एक दस -बारह साल का बच्चा गाड़ी के पास आकर बाॅल पैन दिखाकर बोला, "आंटी लेलो ।पहले तो मैने इशारे से मना कर दिया, लेकिन बहुत कहने पर शीशा खोलकर पूछ ही रही थी कितने का है? वो बोला दस रुपये का ।उसने दो पैन जरा से खुले शीशे से अंदर कर दिए ।इतने में ही हरी बत्ती जल गई और हड़बड़ा कर मैने शीशा बंद किया तो उसका एक पैन टूट गया ।मेरी मजबूरी थी, क्या करती ।मन बहुत दुखी हुआ ,पर क्या करती ।ट्रेफिक ज्यादा था इसलिए आगे बढ़ना पड़ा।रामलीला मैदान में गाड़ी पार्क की और जल्दी से बाहर आकर चौराहे तक गई भी ताकि वो दिखाई दे तो उसे टूटे पैन का हर्जाना दे दूँ और पैन भी लेलूँ ,लेकिन वो तो आस पास कहीं नजर ही नहीं आया।बाजार में भी मेरा मन अशांत ही रहा ।मुझे अभी भी उसके लिए पछतावा हो रहा है ।
जब आपने गांधी दिवस पर आलेख की बात की तो स्वतः ये घटना याद आ गई कि मैने एक गरीब का दिल दुखाया।वो बच्चा जहाँ भी हो, मुझे क्षमा करे ।
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पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा 
जयपुर (राजस्थान) 
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