बारिश की बूँदे
(ललित आलेख)
अपनी व्यस्त ज़िन्दगी में रोज़ की दिनचर्या का निर्वाह करते हुए आज भी दिन यूँ ही लैपटॉप पर काम करते हुए गुज़र रहा था । तभी सहसा एक मीठी-सी गंध से मैं बहकने लगी।ऐसा लगा -जैसे कि यह तो बहुत ही जानी-पहचानी-सी गंध है, पर समझ नहीं आ रहा था कि यह गंध है किसकी । अपनी टेबल से उठकर मैं देखने लगी कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है । बाहर नज़र पड़ी,तो देखा कि बारिश की बूँदें धरती को चूम रही हैं और धीरे-धीरे बरखा रानी धरती की तपन कम करने के लिए उतावली हो रही हैं।उस समय अहसास हुआ कि यह मीठी और सौंधी-सी सुगंध तो मिट्टी की आ रही है । अजीब बात है ना, जिस मिट्टी से हम बने हैं और जिस मिट्टी में हमें मिलना है, उसकी गंध को पहचानने में देर लगी ।उस समय ऐसा लगा कि मानो इन सब सुख- सुविधाओंका कोई मतलब ही नहीं है । आज हर वस्तु कृत्रिम होती जा रही है, इस बनावटी दुनिया में असली प्रकृति तो कहीं खो-सी गईहै । अब कहाँ वो खुला मैदान है, जिस पर हम बारिश में दौड़कर घर जाते थे । कहाँ जाता है ये बारिश का पानी ?, इसे देखने के लिए बहते पानी की दिशा में नदी तक चले जाते थे ।ऐसा लगा की आज स्मार्ट बनने की दौड़ में क्या हम इतने ज्यादा सभ्य हो गए कि कागज़ की नाव बनाना भी भूल गए और उसे चलाने के लिए दूर तक पानी के साथ जाना मानो एक सपना मात्र ही रह गया ।
क्या बताऊँ उस मिट्टी की गंध में इतना नशा था कि सब काम छोड़कर मैं खिड़की के पास खड़ी होकर बारिश को निहारने लगी। तभी एक छोटी-सी चिड़िया को देखा । वह चिड़िया भीगी हुई थी और एक बिजली के तार पर बैठी थी । शायद उसे भी बैठने के लिए कोई बड़ा पेड़ पास में नहीं दिखा, चूँकि ऑफिस में छोटे-छोटे पौधे और हरी घास वाला बगीचा ही बना हुआ है, कुछ ज्यादा बड़े पेड़ नहीं हैं।चिड़िया को दूर जाने से यही तार पर बैठना बेहतर लगा होगा।हालाँकि पहले मुझे लग रहा था कि चिड़िया बारिश से बचना चाहती है, लेकिन फिर अहसास हुआ कि वह तो बारिश में भीग कर खुश हो रही है । इस रिमझिम बारिश में शायद उसे भी भीषण तपन से राहत मिलीहै।फिर ध्यान से देखा,तो लगा कि शायद हम अपने आस-पास ठीक से देख ही नहीं रहे हैं । हम शहर में रहते हैं,तो क्या हुआ, हम भी प्रकृति का आनन्दले सकते हैं । उसके लिए कही जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं है ।प्राकृतिक सुन्दरता तो सब जगह पर व्याप्त है, सिर्फ नज़रिया होना चाहिए ।
तार पर पानी की बूँदें मोती की लड़ियों की तरह लग रही थीं, ऐसा लग रहा था -ये मोती की माला टूट टूटकर गिर रही है । और जो थोड़े बहुत पौधे आस-पास दिख रहे थे,उनकी सारी पत्तियाँ पानी से धुल चुकी थीं। ऐसा लग रहा था कि ये पेड़-पौधे नए परिधान पहनकर कहीं उत्सव में जा रहे हैं । हाँ, उत्सव ही तो लग रहा था । बिजली के चमकने ऐसा लगा कि आकाश अपने कैमरे से धरती के तस्वीरें ले रहा हो, ये तो किसी फोटो-सैशन से कम नहीं । वह बादलों के टकराने की गड़-गड़ की आवाज़ें, और तड़-तड़ गिरती पानी की बूँदों का स्वर, किसी भी शास्त्रीय, सुगम या रॉक संगीत को पीछे छोड़ रहे थे । एक अलग ही प्रकार के संगीत की गूँज कर्णप्रिय हो रही थी ।ये सब देखने और सुनने के बाद मन प्रसन्नचित हो गया और मैं लैपटॉप बंद करके आधा घंटा पहले ही ऑफिस से निकल आई। मेरा ऑफिस नवी मंजिल पर हैं, तो नीचे आकर सब कुछ और साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा ।पानी की बूँदोंको अपने चेहरे पर महसूस किया,तो दिल बाग़-बाग़ हो गया ।यहाँ पर ब्यूटीफिकेशन के लिए एक छोटा-सा कृत्रिम ताल बनाया गया है, जिसके आस पास कुछ बतखें भी छोड़ दी गईहैं, ताकि असली ताल जैसा अनुभव हो सके । हालाँकि मुझे प्राणियों को इसतरहपकड़कर रखना पसंद नहीं है ; लेकिन आज इन बतखों को देखकर बहुत अच्छा लगा । पानी की बूँदें इनके चिकने शरीर पर पड़ रही थीं और शरीर पर टिके बिना ही नीचे आ रही थीं।बतखों का अजीब-सा (क्वेक-क्वेक) स्वर मुझे आकर्षित कर रहा था ।देखा तो कुछ और पक्षी भी दिखाई दिए,जो शायद बारिश के आने की ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे । लग रहा था कि सभी प्राणी मेघराजा का स्वागत कर रहे हैं और उनके आने की ख़ुशी में झूम उठे हैं ।
सड़क की तरफ देखा तो लगा कि सड़क भी जैसे इस बारिश में स्नान करके बहुत निखर गई है, पूरी तरह से धुली हुई, बहुत ही साफ़ लग रही थी ।जैसे कि अभी-अभी गंगा में डुबकी लगाकर आई हो । अपनी गाड़ी में बैठकर आगे की ओर बढ़ी,तो देखा कि दो लड़के एक ही छतरी में भीगने से बचने की कोशिश कर रहे थे और कुछ तो जान-बूझकर ही भीग रहे थे । थोड़ा आगे बढ़ी,तो देखा कि दो छोटे बच्चे एक गड्ढ़े में भरे पानी में कूद-कूदकर खेल रहे हैं ।उनको देखकर लगा कि यही बारिश का सही मज़ा ले रहे हैं । इन्हें नदी की कोई ज़रूरत नहीं है, ये इस गड्ढ़े में ही खुश है ।एक आदमीछोटा-सा ठेले लियेअमेरिकन कोर्न बेच रहा था । ये देशी भुट्टेजितना स्वादिष्ट नहीं होता है, थोड़ा मीठा होता है। पर कम से कम इस बारिश का मज़ा लेने के लिए ये कोर्न भी ठीक है । कुछ दुकानों पर लोग चाय और समोसे-पकौड़ेखाने में लगे हैं ।जब बारिश थम गई तो मैंने अपनी गाड़ी का शीशा नीचे कर दिया और जो ठंडी-ठंडी हवा के झोंके महसूस किए–आ हा ! वो तो सिर्फ महसूस ही किये जा सकते हैं । उनको बयान करना थोड़ा मुश्किल है, उस हवा की ठंडक में जो सुकून मिला, वह किसी भी ए.सी. या कूलर की हवा में प्राप्त नहीं हो सकता है ।ऐसा लग रहा था कि किसी जंगल में सैर पर निकली हूँ ।कहीं पर पक्षियों का स्वर गूँज रहा है, तो कहीं पर गाय और कुत्ते पानी से बचने की जगह खोज रहे हैं । इन गायों को देखकर लगा कि भगवान कृष्ण अपनी गायों को लेकर जब वन में जाते होंगे,तो वह दृश्य कितना मनोहारी लगता होगा ।
आज मल्होत्रा जी की याद आ गई जो हमेशा कहते रहते थे कि - अजी इस शहर में क्या रखा है ?, असली मज़ा तो हमारे गाँव में है ।मुझे लगा कि जब यहाँ पर सब इतना अच्छा है, तो सच में उनके गाँव में कितनी सुन्दरता होगी । फिर भी यदि ज्यादा सुविधाओं वाली जगह पर रहना है ,तो कुछ त्याग तो करनाही पड़ेगा ।पर यह सुन्दरता भी मुझे कम आकर्षित नहीं कर रही थी । मैं पूरी तरह से इसमें डूबी हुईथी।देखते ही देखते मैं अपने घर के समीप आ गई और देखा कि गली के किनारे पर जो बड़ा-सा पेड़ है ,उस पर लाल-नारंगी रंग के फूल लगे हैं, जो और बारिश के पानी से पूरी तरह से धुल चुके हैं । यह पेड़ और फूल दोनों ही बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं, यह पेड़ गुलमोहर का है ।
बिल्डिंग के नीचे देखा तो कुछ बच्चे थोड़े से भरे हुए पानी में (कहीं-कहीं पर सड़क का लेवल बराबर न होने से पानी भर जाता है )साइकिल चला रहे हैं और कुछ पानी में नाव चला रहे हैं । कुछ पानी में अपने पैरों को डुबोकर ही खुश हो रहे हैं । इनको देखकर लगा कि भले ही हम शहर में रहते हैं लेकिन प्रकृति हम सभी को खुश रखती है ।इस बारिश में तो मुझे हर कोई खुश ही लग रहा है या फिर शायद इस बारिश ने सचमुच सबको खुश कर दिया है या ये मेरा देखने का नज़रिया ऐसा है कि मुझे हर कोई खुश ही लग रहा है ।चाहे हम पहाड़ों के बीच वादियों में नहीं रहते, तो क्या हुआ ?, प्रकृति का सानिध्य तो किसी भी रूप में मिलही सकता है ।क्या हर बार किसी नदी या जंगल या पहाड़ों पर जाकर ही प्रकृति को महसूस किया जा सकता है ? इसका प्रश्न का जवाब मुझे मिल गया है – जो कुछ भी हमारे आस-पास है ,वह प्रकृति का ही अभिन्न अंग है । शायद किसी जंगल या पहाड़ से कम सुंदर हो सकता है ;लेकिन इतना कम सुन्दर भी नहीं कि उसे अनदेखा किया जा सके । हाँ, हम यदि ध्यान से देखे तो प्रकृति का आनन्द किसी भी जगह और किसी भी समय ले सकते हैं।
कहते हैं न कि जो प्राप्त हैं, वही पर्याप्त है । तो मुझे लगता है कि शहर में भी प्रकृति का भी हम खुल के मज़ा ले ले, क्योंकि प्रकृति तो आखिर प्रकृति है।हम चाहे लाख सीमेंट की सुन्दर इमारतें बना लें, फिर भी प्रकृति की नैसर्गिक खूबसूरती के आगे ये बड़ी-बड़ी इमारतें कुछ भी नहीं है ।
इतने में मेरे पति ने पूछा कि - अरे ! आज आप जल्दी आ गई ? तबियत तो ठीक है ? मैंने कहा कि- हाँ, तबियत थोड़ी नासाज़ थी, तो एक प्राकृतिक चिकित्सालय से होकर आ रही हूँ, अब ठीक लग रहा है । ( मैं मन ही मन मुसकुरा रहीथी, दरअसल मैं अन्दर से बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ।)वास्तव में यह प्रकृति एक चिकित्सालय ही तो हैं,जो किसी भी तरह की बीमारी को ठीक करने की क्षमता रखती है । आज अहसास हो गया कि प्राकृतिक सुन्दरता को देखने के लिए छुट्टी लेकर हिल स्टेशन जाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि सिर्फ अपने आस-पास की जगह को एक प्रकृति-प्रेमी के नज़रिये से निहारने की ज़रूरतहै ।प्रकृति की सुन्दरता देखने की नहीं अनुभव करने वाली बात है ।इसलिए हम जहाँ हैं, जैसे है उस पल, उस क्षण का पूरा आनन्द ले लेना चाहिए । शायद यही ज़िन्दगी जीने का असली फलसफ़ा है ।
पता:
डॉ. पूर्वा शर्मावड़ोदरा (गुजरात)
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