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Sunday 31 January 2021

*दुख दर्द की आवाज* (कविता) - डॉ. अरविंद श्रीवास्तव 'असीम'

 

 *दुख दर्द की आवाज*

(कविता)

गांव की कच्ची गली से

 जब निकलता हूँ 

 हर समय दुख दर्द की 

आवाज सुनता हूं ।

            यह शिकायत खेत की

             फिर मेघ ने धोखा दिया

               उग सके कुछ खेत में 

               यह हौसला कम कर दिया 

                 मेढ से नजरें चुराकर

                   मैं खिसकता हूं 

               गांव की कच्ची गली से •••

चरमराती चारपाई 

रात भर रोती रही 

और टूटी जूतियां

 कोने में  चुप सोती रही

 देख कर भूखा बुढ़ापा 

मैं तड़पता हूं ।

गांव की कच्ची गली से      •••••

                हो गई है सांझ

                 बापू लौट कर कब आएंगे 

                  दर्द की पीड़ा बहुत है 

                   कब दवाई लाएंगे 

                   इन दुखद अनुभूतियों से 

                   मै नित गुजरता हूं 

             गांव की कच्ची गली से •••••

-०-

पता 
डॉ. अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' 
दतिया (मध्य प्रदेश)


-०-

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Monday 25 January 2021

आओ गणतंत्र दिवस मनाये हम (कविता) - सुरेश शर्मा


आओ गणतंत्र दिवस मनाये हम
(कविता)
तीन रंगों से सजी सुन्दर तिरंगे से ,
आओ गणतंत्र दिवस मनाये हम ।
भेद भाव से परे हटकर हम सब ,
खुशियाॅ बिखेर दिल से सबको अपनाएं हम ।

तीन रंगों से सजी सुन्दर तिरंगे से , 
आओ भारत मां की शोभा बढाएं हम ।
विश्व की सर्वश्रेष्ठ गणतांत्रिक देश को ,
भाई चारे के प्यारे रंगों से सजाएं हम ।

तीन रंगों से सजी सुन्दर तिरंगे से ,
चारों दिशाओं को अपने गीतों से लुभाएं हम ।
एक दूजे के साथ हाथ मिलाकर ,
अपना 67वां गणतंत्र दिवस मनाएं हम।

तीन रंगों से सजी सुन्दर तिरंगे से , 
एकता और अखंडता का पाठ पढ़ाएं हम ।
जाती धर्म को एक सूत्र मे पिरोकर, 
अपने देश का मान-सम्मान बढाएं हम ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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Friday 22 January 2021

कोख की तड़प (कविता) - अनामिका

कोख की तड़प
(कविता)
कुछ छोटे -छोटे पौधे जो
आंगन में उसने रोपें थे
जाने कब वो बन गये पेड़
हिलकर समीर के झोंके से,

उसकी ममता की छाया में
निज तन निहार इठलाते है
अब उसको छाया देते है
उस पर फल फूल लुटाते है,

सूरज क़ी भीषण गर्मी से
ज़ब भी मुरझा से जाते थे
उसका पाकर कोमल स्पर्श
नव जीवन से भर जाते थे,

नवजात शिशु की भांति ही वो
उन पर निज स्नेह लुटाती थी
निज रिक्त कोख की पीड़ा को
वो भूल उसी पल जाती थी,

जैसा रिश्ता माँ बच्चों का
वैसा था उसका पौधों से
पल -पल टूटी थी समाज में
सूनी कोख के विरोधों से।।
-०-

पता: 
अनामिका
खुर्जा (उत्तरप्रदेश) 

-०-

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Thursday 21 January 2021

महत्त्वाकांक्षा (कविता) - आदित्य अभिनव

 

महत्त्वाकांक्षा 
(कविता)
     मैं तीन पग से 
      पूरी दुनिया,
      मापना चाहता हूँ
      वामन की तरह।
      मैं चाहता हूं कि 
      मेरा पग 
      इतना बड़ा हो जाए कि 
     उसमें 
     सारी दुनिया समा जाए ;
     लेकिन 
     नहीं मिलता मुझे 
     राजा बलि का सिर ,
     जिस पर रख सकूँ 
     अपना पाँव ।
-०-
पता: 
आदित्य अभिनव उर्फ डॉ.  चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव 
कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश)

-०-

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Monday 18 January 2021

रूठकर उदास (ग़ज़ल) - अलका मित्तल


रूठकर उदास 
(ग़ज़ल)
रूठकर उदास बैठी हैं ख़ुशियों इक ज़माने से
पर ग़म चले आते हैं किसी न किसी बहाने से

ओढ़ने से चादर ग़मों की हासिल कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी के कुछ दर्द चले जाते हैं मुस्कुराने से

कभी पा लूँ उसे ये तो शायद मुमकिन ही नहीं
तबियत बहल जाती है ख़्याल उसका आने से

ख़्वाहिश न हो जब तलक रिश्ते नहीं बनते
गर चाहो दिल से बात बन जाती है बनाने से।

तुम कभी दिल की गहराइयों से अपनी पूछना
कितना सुकूँ मिलता है ओरो के काम आने से

खामोशियाँ सी छा गईं उसके मिरे दरमियाँ
नहीं भूलती वो यादें”अलका”लाख भुलाने
-०-

पता:
अलका मित्तल
मेरठ (उत्तरप्रदेश)

-०-

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मेरा भारत महान है (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

  

मेरा भारत महान है
(कविता) 
मेरे देश को नमन करता यह जहान है,
हृदय गाता रहे मेरा भारत महान है।

जहाँ कल - कल बहती है गंगा पावन 
जहाँ  प्रतिक्षण बरसता है प्रेम का सावन,
जहाँ विवाह होता है सात जन्मों का बंधन
उस देश की भूमि को शत- शत वंदन,
पूण्य भारत भारती पर प्राण कुर्बान है।
हृदय गाता रहे मेरा भारत महान है...

जहाँ अहिंसा ही होती परम् धर्म है
जहाँ व्यक्ति जानते वेद,पुराणों का मर्म है,
जहाँ भाग्य से बड़ा होता सत्कर्म है,
जहाँ पिता नारियल का जैसा सख़्त और नर्म है,
मेरे देश में हिंदी भाषा का सम्मान है।
हृदय गाता रहे मेरा भारत महान है...

जहाँ प्रस्तर का भी पूजन होता है,
रूप तुलना में गुणों का नमन होता है,
त्योहारों पर आत्मीयता से आलिंगन होता है,
बुजुर्गों की सेवा का प्रचलन होता है,
भारत में माँ- बाप भगवान के समान हैं।
हृदय गाता रहे मेरा भारत महान है  ..
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)

-०-


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प्यार उनसे... (ग़ज़ल) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

 

प्यार उनसे...
(ग़ज़ल)
प्यार उनसे जो कर लिया हमने।
क्या बतायें क्या कर लिया हमने।।

उनके पहलू में हम जब आये।
सौ जनम जैसे जी लिया हमने।।

उनके जितने करीब आये हम।
दूर जमाने को कर लिया हमने।।

कौन है वो कि कभी जाना नहीं।
लुटा दिल अपना कर लिया हमने।।

आरजू कोई बाकी ना रही।
वो मिले तो सब पा लिया हमने।।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

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सबकी ख़ातिर (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’

   

सबकी ख़ातिर
(ग़ज़ल)
सबको  हम अपने  ही जैसा माने बैठे हैं,
सबकी ख़ातिर अच्छा-अच्छा सोचे बैठे हैं।
00
दिल में दुनिया भर की पीड़ा दाबे बैठे हैं,
दर्द सभी का सबका दुखड़ा ढोये बैठे हैं।
00
दादा-बाबा ने जितना हमको सिखलाया था,
हम अब तक बस केवल उतना सीखे बैठे हैं।
00
जो रहते थे साथ हमारे अपना कहते थे,
उन अपनों से ही हम धोखा खाये बैठे हैं।
00
दुःख की बदली छँट जायेगी है विश्वास हमें,
कल  सुन्दर  होगा  यह  सपना देखे बैठे हैं।
00
याद तुम्हारी आते 'गुलशन' सबकुछ भूल गये,
बिना  ताल-लय-सुर  के गाना   गाये  बैठे हैं।
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
-०-



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गाऊंगी (कविता) - होशियार सिंह यादव

 

गाऊंगी
(कविता)
तुम बन जाओ गीत मेरे,
मैं नृत्य बनकर गाऊंगी,
तुम बन जाओ भ्रमर तो,
तो फूल बनके आऊंगी।

तुम बन जाओ चितचोर,
मैं प्रेमिका बन लुभाऊंगी,
तुम बनोगे ढोलक अगर,
मैं सारंगी बनके आऊंगी।

तुम मेरे दिल की धउ़कन,
मैं दिल का रूप बनाऊंगी,
तुम बनाकर आओ हँसी,
मैं होठों पर मुस्कराऊंगी।

तुम आग का रूप बनोगे,
मैं पानी बन प्यास बुझाऊं,
जब जब तुम मुझे पुकारो,
मैं संगिनी बन कर आऊंगी।

तुम होठों का रूप धरोगे,
मैं बंशी तेरी बन जाऊंगी।,
तुम प्रेम से याद करो तो,
गीत बनकर ही गाऊंगी।।
-०-
पता: 
होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ (हरियाणा)

-०-

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Sunday 17 January 2021

*क्या कमाया...?* (कविता) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

 

  *क्या कमाया...?*
(कविता)
संसार-सागर
सिर्फ समय-सराय , 
परमात्मा से बिछड़,
आत्मा यहां आय।

पार्थिव तत्वों को 
उसने ही गूँथकर,
घररूपी नश्वर 
शरीर बनाया ।
हाथ खुले 
रखकर है जाना ,
फिर क्यों सोचे..?
कि क्या 
तूने कमाया ..?

पाने से ज्यादा तू
खोकर है जाता ।
मोहमाया के जाल में
उलझ-उलझ रह जाता ।

यहीं पे पाता ,
यहीं पे खोता ।
बस मूर्ख बन ,
जाने क्यों रोता ।

आमदनी तेरी बस
' समय फेर का '।
और कमाई 
' हृदय भरा प्रेम का ' ।

जितना समय-चक्र 
तेरा धरती पर ।
केवल यहाँ बस
' प्रेम-कमाई ' तू कर ।

यही प्रेम 
तेरे साथ है जाना ।
नहीं तो दुनियां ,
जाने भुलाना ।

बंद मुट्टी तू 
लेकर है आया ,
मुट्टी बन्द ,
न जा पाएगा ।
मोह के फेर में 
पड़कर तू बस, 
अंत समय 
पछताएगा ।

प्रेम कमाई से 
गठरी खाली गर ,
मुँह क्या तू ,
उसको दिखाएगा ।
समय फेर के 
चक्कर में बस ,
खाली हाथ आया ,
खाली ही जाएगा ।
-०-
पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

-०-

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पतझड़ की वह शाम (लघुकथा) - रेशमा त्रिपाठी

  

 पतझड़ की वह शाम
(लघुकथा)          
      पतझड़ के दिन यूं तो हर वर्ष आते हैं लेकिन पिछले साल कुछ यादगार शाम लेकर आया लगा जैसे जिंदगी बदलने वाली हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं था  जिसे शब्दों में कहा जा सकता था बस महसूस हुआ जैसे पेड़ से पत्ते गिरते ही उनका अस्तित्व खत्म हो जाता हैं,उसे कभी भी, कोई भी, कुचल जाता हैं, तो कभी कोई जला जाता हैं वैसा ही कुछ महसूस हुआ था। अक्सर  पेड़ से जुड़े पत्ते बहुत ही खूबसूरत और काम के होते हैं फिर वें गिरते ही बदसूरत कैसे हो गए....?हो गए कैसे लावारिस लाश की तरह...!
           यह समझना ज्यादा मुश्किल तो नहीं लेकिन इस तरह लावारिस जीना यकीनन किसी तपस्वी के घोर तप से कम भी  नहीं कह सकते ।  क्योंकि किसी फुदकती चिड़िया का  किसी आंगन में यकायक खामोश हो जाना  चिड़िया की गलती तो न होंगी, हां! खुद्दारी की कीमत हो सकती हैं पर इसे समझने के लिए उस आंगन में जाना होगा ...; देखना होगा...; समझना होगा..; पर आज इतना समय और समझ किसके पास हैं जो किसी चिड़ियां पर व्यतीत करें...। ऐसे में चिड़ियां पर दोषारोपण करना बेहतर होगा और परिणाम जल्द मिल जाएगा...उसकी खामोशी का ठीक वैसे ही जैसे पतझड़ के पत्तें...लावारिश...नहीं– नहीं खाक होते हुए ।
                                        यकीनन वह शाम भी जिंदगी की कुछ ऐसी ही थी,  मेरे माता– पिता का यूं एक साथ छोड़कर स्वर्ग सिधार जाना और मेरा उसी क्षण समझदार हो जाना ... पतझड़ के मौसम से किसी भी  तरह कम न था । क्योंकि उसी शाम से मैं बच्ची न होकर ‘शमा' हो गई । और अब पतझड की हर शाम ‘शमा‘ हो गई ।।
-०-
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

-०-

***
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** मैं मुस्कुराता हूँ ** (कविता) - अलका 'सोनी'

   

** मैं मुस्कुराता हूँ **
(कविता)
मैं कहां मूर्तियों में 
मुस्कुराता हूँ
न दूध की बहती हुई 
नदियों में नहाता हूं 

अपने ऊपर चढ़ाई 
मखमली चादरों में भी
मैं कहाँ लिपटाता हूं 
न ही कैंडिलों की लौ में
झिलमिलाता हूं 

एक पिता जब कांधे पर 
बच्चे को बिठाकर 
घुमाने ले जाता है
तब मैं वहां खड़ा  
खिलखिलाता हूं 

बनकर शिशु मैं
माँ के हाथों से 
अब भी नहाता हूं 
धूप से बचने को 
आज भी आंचल में 
उसके कहीं 

छिप जाता हूं और 
झुर्रियों वाले हाथों में 
आशीष बन 
बरस जाता हूँ
मैं कहां मूर्तियों में 
मुस्कुराता हूं…...
-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

-०-

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छुटकी (कहानी) - सुधीर श्रीवास्तव

 

छुटकी

(कहानी)
    .दिसंबर'2020 के आखिरी दिनों की बात है।सुबह सुबह एक फोन काल आता है।नाम से थोड़ा परिचित जरूर  लगा,परंतु कभी बातचीत नहीं हुई था, क्योंकि ऐसा संयोग बना ही नहीं ।
     उधर से जो आवाज सुनाई दी कि मन भावुक सा हो गया।उस आवाज में गजब का आत्मविश्वास ही नहीं, बल्कि अपनत्व का ऐसा पुट था कि सहसा विश्वास कर पाना कठिन था कि वो मुझे जानती न हो। जिस अधिकार से उसनें अपनी बात रखी,उससे उसका हर शब्द यह सोचने को विवश कर रहा था कि किसी न किसी रुप में हमारा आत्मिक /पारिवारिक संबंध जरूर रहा होगा, भले ही वह पिछले जन्म का ही रहा हो।
   उससे बात करने के बाद मन इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि उससे किसी न किसी रुप में मेरे साथ माँ,बहन या बेटी जैसा रिश्ता नहीं रहा होगा।अब तो मेले में बिछुड़े भाई बहन सरीखे किस्से कहानियों की तरह लगता है कि पूर्व जन्म में खो गई मेरी बड़की इस जन्म में इतने लम्बे समय के बाद मेरी छुटकी के रुप में अचानक ही मिल गई। उस पर विडंबना यह कि हम कभी मिले नहीं,कभी एक दूसरे को देखा तो क्या नाम तक नहीं सुना।
     अब इसे ईश्वर की लीला ही कहा जा सकता है कि अब तो उसके विश्वास और भरोसे को तोड़ने की हिम्मत तक नहीं हो पा रही है। क्योंकि उसके मन में जो सम्मान है उसका अपमान करना खुद की ही नजरों में गिर जाने जैसा है।
      ऊपर से ताज्जुब तो यह है कि इतनी कम उम्र में उसकी सोच बहुत ऊँची है।उससे बात करते हुए मै इतने दिनों में यही समझ पाया कि वह आम महिला नहीं है।उसका जन्म ही इतिहास गढ़ने के लिए हुआ,जिसमें उसका साथ देने और उसकी ढाल बन रहे लोगों का ये सौभाग्य है ,जिसे उसने अपने स्नेह में समेटकर न केवल बड़ा और अच्छा सोचने के लिए प्रेरित करती है,बल्कि उसकी सोच, विचारधारा,व्यक्तिव का प्रभाव कुछ अलग,असंभव सा करने को स्वतः ही उद्वेलित भी करने लगता है।
    आश्चर्य जनक यह भी है कि असंभव शब्द उसके शब्दकोश में ही नहीं है। उसे हर व्यक्ति ही नहीं, राष्ट्र ,समाज, संसार में भी उसे अच्छाइयां ही दिखती है।उसका चिंतन चीथड़ों में लिपटे बेबस इंसान से लेकर मजदूर, किसान, छोटे, बड़े,अमीर, गरीब ही नहीं समूचे संसार से आगे ब्रह्मांड तक के लिए है।
    उसका विश्वास ही उसकी पूँजी है,जिसकी बदौलत उसका हर कदम उसके हौसले को और बढ़ाता है। इतने अल्प समय में ही उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका और आज उसके हर सपने के लिए आधार बनाने की दिशा तय कर रहा हूँ ।ऐसा लगता है उसके साथ जुड़कर,उसके विचारों को महत्व देकर,उसके सपने को अपनी छोटी बहन का सपना मानकर उसकी ढाल बने रहने मात्र से जीवन में कुछ अप्रत्याशित सा कुछ अलग और बड़ा होने का अहसास सा हो रहा है।
इन सबसे अलग यदि मैं यह कहूँ तो गलत नहीं होगा कि एक और उसके भाव माँ जैसा दिखता है जिसमें प्यार, दुलार, अपनापन और भविष्य की चिंता भी दिखती है,तो बहन जैसा अधिकार, लड़ना, झगड़ना और जिद करके सब कुछ अपने ही हिसाब से करने /कराने और छोटी होने का अहम भरा रुप दिखता है,वहीं बड़ी बहन जैसा दुलार और भाई के लिए परिलक्षित होती उसकी चिंता भी दिखती है तो बेटी जैसा लाड़ ,प्यार भी प्रकट हो ही जाता है।
        जब वह वैचारिक और सामाजिक और अपने चिंतन पर बोलती है तो यह समझना कठिन हो जाता है उसे क्या कहूँ/समझूँ?
    उस समय उसके माँ ,बहन,बेटी के अलावा उसके अलग रुप के दर्शन होते हैं।तब यह समझना कठिन है कि मैं अपनी इस छुटकी को सामाजिक कार्यकर्ता समझूँ या चिंतक , विचारक, मार्गदर्शक या आज के युग के लिए एक ऐसा प्राणी जो गल्ती से मानवरूपी शरीर के साथ इस धरती पर आ गई हो।
    अब इसे विडंबना ही कहूंगा कि जिसको डाँटने तक में उसे कभी विचलित होते नहीं देखा, उसके चिंतन उद्देश्य, मार्गदर्शन को चुपचाप सिर्फ़ सुनने को बाध्य हो जाना पड़ता है,क्योंकि उसका कोई जवाब जो नहीं सूझता।
       कभी कभी तो समझ में ही नहीं आता, अपने प्रति उसके निश्छल स्नेह, अपने लिए उसकी फिक्र से भावुक हो जाना पड़ता है,उसे छिपाना भी बड़ी चुनौती लगती है,फिर भी खुद को कैसे भी संभालना ही पड़ता है।उस समय तो बस यही सोचता  हूँ कि काश वो मेरे सामने होती और मैं उसके पैरों में अपना सिर रख देता।
    माना कि वो हमसे बहुत छोटी है,फिर भी उसका स्थान बहुत बड़ा है ,इसलिए उससे आशीर्वाद की चाह भी रखता हूँ।जिसे वह भले ही दूर हो पर मानसिक रुप से पूरा भी करती है। तब उसकी  महानता को नमन करना ही पड़ता है।
   अंत में सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि छुटकी तेरे कितने रुप।तुझे पाया तो जैसे संसार फिर से महक उठा।परंतु दु:ख भी है कि मिली भी तो बहुत देर से।
फिर भी तेरे प्रति मेरी श्रृद्धा है,तो तेरी चिंता भी।फिर भी गर्व है कि तूने अपने इस अनदेखे भाई को अपने व्यक्तित्व/कृतित्व से अचानक बहुत ऊपर पहुंचा दिया है।
बहुत स्नेहाशीष छुटकी, सदा खुश रहो,तुम्हारे हर सपने के साथ तुम्हारा भाई हर समय तुम्हारे साथ खड़ा है।
अपनी छूटकी के लिए मेरा अशेष आशीर्वाद।
-०-
पता: 
सुधीर श्रीवास्तव
गोंडा (उत्तरप्रदेश)

-०-

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योग करेगी (बालगीत) - -डा जियाउर रहमान जाफरी

    

योग करेगी 
(बालगीत)
बहुत है लेकिन छोटी   ज़ेबा 
खा कर हो गई मोटी    ज़ेबा 

शाम हुई   तो सो  जाती    है 
रात में उठ -उठ कर खाती है 

बाहर जब भी ज़ेबा      जाए 
छोड़ के सब गोलगप्पे  खाए 

दूध वो  सारा   पी   जाती  है 
भूख न फिर भी मिट पाती है 

बनी हुई है  सबकी        रानी 
मांगती  माँ से   बस बिरयानी 

पापा   भी तो     आते   -जाते 
खूब मिठाई     उसे     खिलाते 

मामा   मिलने     जब भी आएं 
मक्खन   और मलाई       लाएं 

जो कुछ    लाये   ज़ेबा    खाती 
वजह  है ये   मोटी    हो    जाती 

चले  तो   न चल    पाये    ज़ेबा 
फौरन  ही थक     जाये     ज़ेबा 

पर अब   ज़ेबा  फिट  ही   रहेगी 
सुना है   अब   वो योग    करेगी 
-0-
-डा जियाउर रहमान जाफरी ©®
नालंदा (बिहार)



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Saturday 16 January 2021

जो हंसकर साथ निभायेगा (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी

 

जो हंसकर साथ निभायेगा
(कविता)
मानवता को खो देते हैं, जो खुद को मानव कहते हैं।
चन्द रूपयों की गर्मी पाकर, जानें किस मद में रहते हैं।

भूल जाते है सच जीवन का, श्वप्न में जीते रहते हैं।
भूला के जीवन जीना अपना, मद में डूबे रहते हैं।

नहीं जानते दुनियादारी, ना ही रिश्तेदारी को।
सुखी जीवन मे अपने, परिवार की हिस्सेदारी को।

भूल गए हैं जीवन में, एक ऐसा समय भी आयेगा।
जब विधाता आसमान से, उनकों जमीं पे लाएगा।

तब घुटनों पर बैठेगा, कोई मार्ग नजर नहीं आयेगा।
हाथ पांव जब साथ न देगें, और बुढ़ापा आयेगा।

पैसा कितना भी होगा पर, काम किसी ना आयेगा।
केवल अपना परिवार ही होगा, जो हंसकर साथ निभायेगा।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
-०-


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✍️किसान/अन्नदाता✍️ (कविता) - डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया

  

✍️किसान/अन्नदाता✍️
(कविता)
धरती पुत्र संत-सा है किसान ,
अरु परिश्रम का पर्याय किसान ।
अवनी पर का उदार अन्नदाता ,
जीव मात्र का है जीवन दाता ।

खेत-खलिहान है जीवन तर्पण ,
फसल उपहार समाज को अर्पण ।
आठों प्रहर है प्रकृति का साथी ,
सुख-दुख में भी अपनों का साथी ।

आँधी-तूफान सीने में धरता ,
ठंड-धूप,बारिश से नित लडता ।
भाल का तिलक खेत की मिट्टी ,
रज-स्वेद से रिक्त तन की मिट्टी ।

स्वेद परिश्रम है देह की शोभा ,
अरु भाल पर की अनेरी आभा ।
दिल में थामे दीनता की हूक ,
कभी नहीं खोला है अपना मुख ।

बाहों में कर्म,मन में प्रभु प्रीत ,
किया संसार को जीवन समर्पित ।
सुख-समृद्धि का किया उसने त्याग ।
दान-पुण्य का अनूठा अनुराग ।

तप से श्रेष्ठ है उसका वो कर्म ,
साधु-संतों से है उमदा धर्म ।
जीयो व जीने दो के है संस्कार ।
अन्नदाता से ही जीवित संसार ।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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कुछ लोग जो जीते हैं (कविता) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'

 

कुछ लोग जो जीते हैं
(कविता)
कुछ लोग जो जीते हैं , खेतों पै रमा करते हैं
उगाते हैं फसल नेह की , ईमान जमा करते हैं 

भोर की किरण फूटी , लगी बजने बैलों की घंटी 
गैया लगी है रंभान , प्यासे खेत और खलिहान हैं 
सौंधी - सौंधी गंध को , माटी है अकुलानि 
कहे बार - बार बारे , वारि ही पुकारी है 
पुलक प्रफुल्ल कहे , धरती को अंग - अंग 
साँचो - साँचो वीर मेरो , याहि हलधारि है 
निज खून - पसीने से , दुनिया की दुआ करते हैं 

तपे जेठ की दुपहरी , तके साँझ और सकारी 
लौट आये श्रमहारी , पंखा झले घरवारी है 
झूठ लागे किलकारी , नैन लाडो भरे वारि 
रात करे जब ब्यारी , हिस्से आवे ना तरकारी है 
जिंदगी की आस लिये , साँस - साँस प्यास लिये 
सींचते सँवारते , जीवन की फुलवारी है 
गम सौ - सौ मिले फिर भी , खुश हो के जिया करते हैं 

खेत की मड़ैया में , गाँव की अमरैया में 
ठंडी पुरवैया में , स्वर्ग का सुख पाते हैं 
खेतों में बाल पके , हँसे मन थके - थके 
नई सरगम बनाते हैं 
वहीँ कहीं छाँव तले , पत्तों की बाँसुरी से ,
 नई राग छेड़ जाते हैं 

अमृतमय बोलों से , रसगान किया करते हैं 
कुछ लोग जो जीते हैं , खेतों पै रमा करते हैं 
उगाते हैं फसल नेह की , ईमान जमा करते हैं l 
-०-
डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
कटनी (म. प्र.)


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