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Friday 8 January 2021

उठे जब भी कलम (कविता) - विजयानंद विजय

 

उठे जब भी कलम
(कविता)
उठे जब भी कलम
तो समय के पन्नों पर
युगबोध की स्याही से
मानवता का नया इतिहास लिखे।
भावनाओं में गूँथकर
एहसासों की गीली मिट्टी से
शब्दों का आकार लिए
नेह का अविरल प्रवाह लिखे।

उठे जब भी कलम 
तो देश की सीमाओं पर अहर्निश डटे
भारत माँ के वीर सपूतों का
गर्वोन्नत दीप्तिमान भाल लिखे।
सर से पाँव तक मिट्टी में सने
मौसम का क्रूर प्रहार झेलते
बुरी तरह कर्ज में डूबे
अपने अधिकारों के लिए लड़ते
किसानों की पीड़ा
और उनका प्रबल प्रतिरोध लिखे।

उठे जब भी कलम 
तो दम दोड़ते युवा-स्वप्नों की
दारूण व्यथा लिखे।
तंत्र के हाथों कुचले गये
लोक की अंंतहीन कथा लिखे।
निर्भयाओं की रक्तरंजित देह
और श्मशान में जलती 
उनकी चिता लिखे।
सभ्यजनों के प्रबुद्ध प्रजातंत्र में
बलात्कारियों-अपराधियों के चुने जाने की
अनुपम कहानी लिखे।

उठे जब भी कलम 
तो जनता के खून-पसीने पर
ऐश करते नेताओं-नौकरशाहों की 
उठती गगनचुंबी इमारत लिखे।
राजनीति और अपराध के गठजोड़ से जन्मी
अनीति और अनाचार की 
अनकही कहानी लिखे।
सत्ता और कुर्सी के खेल में
ईमान-गैरत-जमीर और नैतिकता की
सरेआम होती नीलामी लिखे।

उठे जब भी कलम 
तो युवाओं की जुंबिश 
मौजों की मचलती रवानी
और फौलाद बनते कंधों की
नयी उन्मत्त कहानी लिखे।
लिखे तो अर्थ खो चुके शब्द
और शब्दों में छुपे हर्फ़ों के 
सही मायने लिखे।
लिखे तो जुल्म की आग में 
सुलगती-जलती-धधकती
युग-युगीन प्रचंड मशाल लिखे।
लिखे तो अपने समय की पीड़ा 
और सत्य का उनवान लिखे।
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विजयानंद विजय
बक्सर ( बिहार )

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*काम का न धाम का दुश्मन अनाज का* (आलेख) - डाॅ० सिकन्दर लाल

 

*काम का न धाम का दुश्मन अनाज का*
(आलेख)

    प्रकृति प्रदत्त उपहार-माँ गंगा इत्यादि महान् नदियों के पवित्र तटों को  कब्जा करने वाले और भोले-भाले मानव को झूठ-मूठ का  प्रवचन देकर उनकी मेहनत की कमाई का धन छीनकर अपना घर-परिवार सजाने वाले तथा उन्हीं भोले-भाले मानवों से नहाने-धोने के लिए कहकर पवित्र जल को दूषित करने वाले और धर्म के नाम पर जमीन आदि को कब्जा करने वाले भारत माता रूपी धाम में मौजूद ये कुछ पाखण्डी बाबाओं एवं भ्रष्टाचार में लिप्त कुछ मूर्ख मनुष्य न तो किसी काम के हैं और जो भी ये राम-रहीम, आशाराम जैसे पाखण्डी बाबा लोग काम करते भी हैं उससे प्रकृति प्रदत्त उपहार-माँ गंगा इत्यादि महान् नदियों, और जल-जंगल-जमीन आदि का नुक़सान ही होता है  और तो और ये कुछ पाखण्डी, अंधविश्वासी बाबा एवं मूर्ख लोग धर्म के नाम पर माँ गंगा, यमुना, सरयू, मंदाकिनी, शिप्रा इत्यादि महान् नदियों के पवित्र तटों और जमीन  को कब्जा करने वाले, मेहनत से धरती माता में उगाये गये विभिन्न खाद्य पदार्थों (नारियल,लड्डू दूध, आरो का पानी) को धर्म के नाम पर चढ़वाते हैं जबकि भगवान् श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को किसी भूखे-प्यासे मानव एवं जीव को खिलाने-पिलाने की बात कही है जो कि भगवान् तक पहुंँचता है। लेकिन हमारे भारत माता रूपी धाम में मौजूद ये कुछ पाखण्डी बाबा लोग इस बात को भोले-भाले मानव को  न समझाकर अनावश्यक गलत बात बताकर एक तरफ ये कुछ पाखण्डी राम-रहीम ,आशाराम जैसे मूर्ख लोग जो कि अभी अधिकतर सरकार के पकड़ से दूर हैं, खाद्य पदार्थों की धर्म के नाम पर बर्बादी करवाते हैं और दूसरी तरफ भोले-भाले मानव एवं अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त और बेईमानी से कमाकर इकट्ठा किये हुए कुछ धनवान् लोगों से रुपए-पैसे, सोना-चाँदी और यहाँ तक कि जमीन-जायदाद भी ठगकर अपना घर-परिवार सजाने में लगे हुए हैं और जन-सामान्य घर-गृहस्थी चलाने में परेशान रहता है। तभी तो परमज्ञानी सन्त तुलसीदास जी लिखते हैं कि-

*बहु  दाम  सँवारहिं   धाम  जती।*

*विषया हरि लीन्हि न रही बिरती।।*

*तपसी  धनवंत  दरिद्र  गृही ।*

*कलि कौतुक तात न जात कही।।* 

- सन्त तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, छंद- 01, पृष्ठ संख्या- 870 , संवत- 2058 तिरसठवाँ संस्करण, पुस्तक कोड- 82 , गीताप्रेस गोरखपुर |

  -- इसीलिए उपर्युक्त कहे गए भारत माता रूपी धाम में विराजमान् मानव एवं जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों को  खाने-पीने के लिए विद्यमान विभिन्न खाद्य-पेय पदार्थो को नुकसान पहुँचाने वाले पाखण्डियों के संदर्भ में यह  कहावत कही गई होगी कि-

  *काम का न धाम का दुश्मन अनाज का "*

   मानव एवं जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों का आधार पावन भूमि से युक्त भारत माता की जय! 

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पता: 
डाॅ० सिकन्दर लाल 
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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रिश्तों की डोर ((कविता) - सोनिया सैनी

  

रिश्तों की डोर
(कविता)
रिश्तों की डोर थामे रखना
धूप में ,बारिश में,आंधी में
तूफ़ान में, सर छिपाने
की एक जगह बनाए रखना।

उत्तम हो,समर्पित हो,
शांत हो,निस्वार्थ हो,हर एक
ये जरूरी तो नहीं, चाहे
कच्ची ही हो, पर रिश्तों
की डोर थामे रखना।

ग़म में,खुशी में,उत्सव में
विवाह में,साथ निभायेगे यही
ऐसी एक उम्मीद कायम रखना
रिश्तों की डोर थामे रखना।

यह वो खजाना है जो
दिखता तो नहीं,पर जब
रहता नहीं तो इंसानों
की बस्ती में,अकेले पत्ते सा
उड़ा दिया जाता है।
वक्त बेवक्त सता दिया
जाता है,इसलिए ही 
सही ,रिश्तों की डोर
थामे रखना।

दिलासा झूठा ही सही
खुशी कभी झूठी ,कभी
सच्ची ही सही, पर
रिश्ता होने पर ही दिखाई
जाती है,साथ सच्चा हो
या ना हो,पर फिर भी
साथ बनाए रखना
रिश्तों की डोर थामे रखना।

अपना कहने को भी चाहिए कोई
कंधा मरने पर भी चाहिए कोई
यही सोच कर, रिश्ता बनाए रखना।

ज़िन्दगी की धूप , छाव,आंधी ,तूफ़ान
के लिए, एक कोना बनाए रखना।
रिश्तों की डोर थामे रखना।।
-०-
पता:
सोनिया सैनी
जयपुर (राजस्थान)

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ग़मों का ज़िन्दगी (ग़ज़ल) - अलका मित्तल

   

ग़मों का ज़िन्दगी
(ग़ज़ल)
ग़मों का ज़िन्दगी में आना भी लाज़मी है,
मगर हर हाल में मुस्कुराना भी लाज़मी है।

मिले मंज़िल और सफ़र आसां हो जाये।
किसी को अपना बनाना भी लाज़मी है,

ग़र चाहत है हो जाएँ ख़्वाब सभी पूरे अपने,
दिल में ख़्वाहिशों को जगाना भी लाज़मी है।

छा जाए जब घटा दिल पर ग़मों की भारी,
दर्दे-दिल शायरी में बहाना भी लाज़मी है।

महसूस हो सहरा में भी चमन की ख़ुशबू ,
तो फिर कहीं दिल लगाना भी लाज़मी है।
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पता:
अलका मित्तल
मेरठ (उत्तरप्रदेश)

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