Thursday, 22 October 2020
जय हिन्द! जय हिंदी! (लघुकथा) - वाणी बरठाकुर 'विभा'
मैं पानी हूँ .... (आत्मकथा) - रजनीश मिश्र 'दीपक'
आओ बच्चों तुम्हें आज मैं,अपनी कहानी सुनाता हूँ। पृथ्वी पर अपने सभी रूपों का,सार सरल समझाता हूँ। करोड़ों वर्षों पहले सिर्फ मैं,क्षुद्र ग्रहों पर ही अवस्थित था। यह पृथ्वी सूखी बंजर थी,यहाँ पर मैं नहीं उपस्थित था। क्षुद्र ग्रहों के टकराने से,जब यह ग्रह चकनाचूर हुये। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से,इसमें मिलने को मजबूर हुये।हाइड्रोजन आक्सीजन द्वारा,तब फिर मैं जलीय तत्व बना बर्फ वाष्प और द्रव रूप में,बना धरनि जीवन सार घना। हिमगिरी पर हिम के रूप में,हिमनदों में मैं रहता हूँ। पिघलकर सूर्य ऊष्मा में, जल बन सरिता में बहता हूँ। निश्छल अविरल कल कल करता, मैं वसुधा सिंचित करता हूं। सब प्राणियों की प्यास बुझा,हर रंग धरा में भरता हूँ। वन उपवन वनस्पति प्राणी,सब मेरा ही तो प्रतिफल है। बनकर बहता रक्त हर तन में, मुझसे ही हर चमन सजल है । नदी नहरों तालाब झीलों,और समुद्र में मैं बहता हूँ।वाष्प बनकर उड़ता नभ में, फिर बादल बन वर्षा करता हूँ। पर्वत से झरनों नदियों में,समुद्र तक यात्रा करता हूँ। छन छन कर समाता भूमि में, फिर बनकर खनिज निकलता हूँ । मेरा यह खनिज रूप जल ही,सबसे शुद्ध मीठा पानी है। इसका संरक्षण तुम कर लो बस मेरी यही कहानी है।
यह जीवन कितना देता है (कविता) - अखिलेश चंद्र पाण्डेय 'अखिल'
यह जीवन कितना देता है यदि धैर्य रखे तू जीवन में।
अमृत भी अनायास देता मदिरा के खाली बर्तन में।।
परतों पर परतें लाद के तू जग में पावन अभिमानों की,
अभिनयी शक्ति से हर पल ही नव मूर्ति गढ़े इंसानों की।
यश अपयश हानि लाभ जीना मरना सब सौंप विधाता को,
जब आत्मगंग में मज्जन कर मुख देख ज़रा अब दर्पण में।।
यह जीवन कितना,,,,,
भेजा माँ ने कर्तव्य मार्ग पर डट जाने का मंत्र फूँक,
"माँ!आजाना" बस कह कर चुप हो जाती है शाविका हूक।
हम सम्बन्धों की डोर बनाकर नित ही जूझा करते हैं,
पर अहा! मुक्त आभास हुआ करता है मुझको बन्धन में।।
यह जीवन कितना देता है,,,
हिलता डुलता घट कब कोई परिपूर्ण कहाँ हो सकता है,
हर अवसर पंख लगा उड़ता कब किसके आगे रुकता है।
उस महाकाल की रचनाओं में तू भी एक संरचना है
कब अवगुंठित अखिलेश हुआ किस इंद्रधनुष आकर्षण में।।
यह जीवन कितना देता है
यदि धैर्य रखें तू जीवन में।|
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