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Sunday, 27 October 2019

पांडेय जी औऱ दुनिया रँगरंगीली (कहानी) - डॉ लालित्य ललित

पांडेय जी औऱ दुनिया रँगरंगीली
(कहानी)
विलायती राम पांडेय आज अपने छज्जे पर बैठे हुए ये सोच रहे है कि देश आर्थिक मंदी के लपेटे में है और ये राधेलालजी को क्या हुआ है!
यहाँ राधेलालजी नाम के एक आमजन है जिन्हें समाज में रहते हुए तमाम दुर्व्यवस्थाओं में भी आनंद खोज लेने का तंत्र विज्ञान पता है। इनका मानना है कि बुढ़ापे में जो नजरों से अखरोट तोड़ दें उसका नाम राधेलालजी है कोई रामकिशन पुनिया नहीं।
बात भी सही है।
सुनने में आया है कि रामकिशन पुनिया अभी पचहत्तर पार कर गए और लम्बी पारी खेलने के मूड में है।उनकी पार्टी में राधेलालजी भी थे,पर तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने झम्मन मियां जो लोकल स्तर पर फोटोग्राफर हायर किये गए थे,उनको राधेलालजी ने पटा लिया।वैसे ये गुण उन्होंने लपकुराम जी से बाल्यावस्था में सीखा था।लपकुराम जी का कहना है कि ज्ञान को प्राप्त करने की न उमर है और न ही सीमा है।कभी भी इसे सीखा जा सकता है।अब ये सीमा नाम पर मत जाइएगा, अन्यथा नया बखेड़ा शुरू हो जाएगा।वैसे बखेड़ा करने का न तो मुझे कोई शौक है न ही रुचि!
अब जब लपकुराम जी ज्ञान बघार रहे थे तो पांडेय जी ने पूछ लिया,"बाय दवे ये रुचि झंडू सिंह गुलिया की पड़ोसन मिस नैना कटारिया की इकलौती संतान है जिसे समाज सेवा करने का शौक है।"
लपकुराम जी ने आंखें तरेर कर कहा, "पांडेय जी आप जहां विद्यार्थी है वहां का मैं संस्थापक हूँ।"
पांडेय जी समझ चुके थे कि दीवाली बेशक बीस दिन दूर है,पर कसम से सुलग गई टाउनशिप में रह रहे लपकुराम जी की। बात का बतंगड़ न बने चेलाराम जी लपकुराम जी को ले गुरुग्राम में अज्ञात से रिजॉर्ट में अंतर्ध्यान हो गए। वैसे भी लपकुराम जी को इस अवस्था में रिजॉर्ट में साधना और मनन करने में मन रमता है।
बहरहाल राधेलालजी को अच्छा लग रहा था कि पहले निशाने पर पांडेय जी के राधेलालजी थे, फिर रामकिशन पुनिया। मगर लट्टू घूम फिर कर लपकुराम जी पर आ गया।चलो अच्छा ही हुआ।
खेर...पांडेय जी का कहना है कि हर व्यक्ति के दिन आते है।
पांडेय जी ने छज्जे पर बैठते ही पांच-सात बादाम मुंह में फांक लिए। कहीं पढ़ा था कि बादाम खाने से दिमाग चलता है। तभी तो उनके मन में विचार आया कि 75 वसन्त देखने के बाद भी रामकिशन पुनिया की हसरतें पूरी तरह से धराशायी नहीं हुई।उनको अभी तक ये लगा रहता है कि ये मिल जाता तो और अच्छा होता।
ये सोचने की बात है कि इच्छा के घड़ा कभी भरता नहीं।आदमी भूत बन कर भी वहीं मंडराता रहता है कि काश! मिल जाता तो मुक्ति हो जाती,तो भैये कान में तेल डालो,बेशक किसी भी कम्पनी का जो नसीब में होगा,वह आपको मिलेगा,उसे कोई छीन नहीं सकता।
दूसरा आजकल पांडेय जी नाराज है स्थानीय निकाय से।जिसे देखो वह अवैध निर्माण में ऐसे हाथ बंटा रहा है जैसे कार सेवा हो औऱ इस तरह के सामाजिक कार्य में एक दूसरे की मदद करने से सभी प्रकार कर पापों से मुक्ति मिलती है।
लोगों ने घर की सीमा से बढ़ कर दरवाजे बाहर निकाल लिए।कुर्सी डाल ली और महाराज जो बरामदा पहले दिखता था वह सिरे से गायब कर दिया।
हमारे यहां कहा जाता है कि आप एक नम्बर के चोर है जिसे देखो वह धड़ल्ले से चोरी करने से बाज नहीं आ रहा है ऐसे कबूतर उड़ा रहा है जैसे देश उसका,दिल्ली उसकी और स्थानीय निकाय उसके बाप का।
पांडेय जी सोचने लगे कि कुछ नहीं होने वाला।लगता है कि अगर श्रीराम प्रभु भी यहाँ होते तो स्थानीय निकाय मोटा जुर्माना उनके नाम भी ठोंक देते।
अंतर्मन कुमार ने कहा कि हम उस देश के वासी है जहां ब्लाइंड लोगों के लाइसेंस भी पैसे लेकर बनवा दिए जाते है।
अभी सोच ही रहे थे कि एक टेलीविजन चैनल पर रिपोर्ट आने लगी कि कैसे एक कर्मी ने नेत्रहीनों के लाइसेंस बनवा दिए। आइये उस रिपोर्ट पर निगाह डालें-
जी, मेरा नाम रामखिलावन है और मेरे साथ कैमरापर्सन मधुबाला है।आइए मैं दिखला रहा हूँ,अंधेर गर्दी का माहौल।जी,हां, आप देख रहे है ये जनकपुरी ऑथोरिटी है जहां लाइसेंस बनाये जाते है।बेशक यहाँ दलाल कम है लेकिन सूचना पट्ट भी न के बराबर है।हर चीज कायदे से चल रही है।ये जो आप देख रहे है सहायक नुमा लोग ये सरकारी महकमे के ही अनाधिकृत लोग है जो बिना चढ़ावे के काम नहीं करते।
जिस नेत्रहीन का लाइसेंस बना है उससे ही पूछ लेते है कि क्या मामला है!
"बताइए आप क्या नाम है? ये लाइसेंस बनवा कर क्या हासिल करना चाहते हैं!"
तभी पिंटू सिंह मुरैना ने कहा, "बाहर निकलिए,आप लोग। देखिए यहाँ के अधिकारी कैमरा देख कर बौखलाए गए है।इनसे ही जान लेते है कि सर बताइए जनता जानना चाहती है।"
"देखिए बात कुछ भी नहीं है।ये नेत्रहीन मेरे पास आये और कहने लगे कि हम देख नहीं सकते क्या आप यादगार के तौर पर हमारा लाइसेंस बनवा सकते है!"
"इनके साथ एक गैरसरकारी संस्था के प्रतिनिधि भी है जिनकी पहल पर हमारे विभाग ने यह कार्रवाई की और पांच लोगों के लाइसेंस बनाए गए। मैं  समझता हूँ कि यह मामला कोई ब्रेकिंग न्यूज जैसा नहीं है जिसे आप नाहक तूल देने की कोशिश कर रहे है।"
इसमें जरूर किसी राजनैतिक दल की साजिश है,सिक्योरिटी इनको बाहर करो,काम में बाधा डाल रहे है।सिक्योरिटी को हरकत में आता देख मधुबाला और रामखेलावन वहां से रफूचक्कर हो गए।
मधुबाला ने कहा, "सर जी! इस तरह की रिपोर्टिंग में बड़े पंगे है।इससे अच्छे तो वे लोग है जो घरों में बैठ कर एन्जॉय कर रहे है।"
रामखेलावन ने मधुबाला की आंखों में देखा और कहा, "चलो प्रेस क्लब।हम भी एन्जॉय कर लेते है।"
कुछ देर में मधुबाला ने मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया।उसका कहना है कि एन्जॉय करना हो तो दुनिया से कट कर ही एन्जॉय करने में आनंद आता है।
उधर विलायती राम पांडेय सोच रहे है कि ये दोनों रिपोर्टर कहाँ गोल हो गए!
उन्होंने चैनल हेड देविका गजोधऱ से बात की और मिस गजोधऱ ने दोनों को सर्विस से रिमूव कर दिया औऱ एक भी मौका नहीं दिया।ये अलग तरह का मौका था जब एस्टेब्लिशमेंट ने रिमूवल का आर्डर वाट्सप व एसएमएस से भेजा हो।
पांडेय जी भी ग़जब के इंसान है जब अपनी पर आ जाते है तो देखते नहीं कि कल क्या होगा! अभी वे अपने छज्जे पर बैठे है सोच रहे है कि सड़कों पर सड़क नहीं है! गाड़ियां रेंग रही है।आर्थिक मंदी के दौर में व्यापार बुरी तरह से कमर तोड़ रहा है।व्याजदर घट गई है।बड़े आसामियों का बेड़ा पार हो रहा है।उधर एक रिपोर्ट में बड़े व्यापारियों ने भी आशंका व्यक्त की है जब छोटे और मंझोले लोग सामान नहीं खरीदेंगे तो पैसा बाहर नहीं आएगा।उत्पादन लगातार हो रहा है।आखिर हर व्यापार की लिमिट होती है।बड़ा टेड़ा सवाल है।आखिर देश किस और करवट लेगा!
तभी रामप्यारी ने कहा, " लो स्वामी, आपकी अदरक वाली चाय।"
चाय पीते ही पांडेय जी का दिमाग चलने लगा।सोचने लगे कि देश कहाँ जा रहा है!सड़कें कहाँ जा रही है!लोग कहाँ बड़े जा रहे हैं।कापसहेड़ा की सड़क पर सुबह या शाम खड़े हो जाओ तो लगेगा कि दिल्ली खाली हो रही है!
कई बार तो लगता है कि सब पड़ोसी मुल्क में तो नहीं जा रहे कि भैया आये रहे है टमाटर खरीदने,क्या समझे!
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संपर्क
डॉ लालित्य ललित
संपादक
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
नई दिल्ली-110070
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दीपावली ऐसे ही नहीं आती... (लघुकथा) - गोविन्द सिंह चौहान

दीपावली ऐसे ही नहीं आती...
(लघुकथा)
"बेटा! गाँव से आई नई कामवाली "बाई" जब से अपने यहाँ काम पर आने लगी तब से तुम्हारी मम्मी का व्यवहार बदला-बदला लग रहा है। घर में पूरी कॉलोनी की बातें होती हैं आजकल। गाँव की खेतीबाड़ी, जमीन-जायदाद की बातें पूछने लगी है तुम्हारी मम्मी।" शर्मा जी ने अपने बेटे सुबोध से कहा तो सुबोध बोला, "हाँ पापा, बुआजी व चाची भी बहुत नाराज हैं। गाँव से फोन आया था, कह रही थी कि 'तुम्हारी मम्मी गाँव की जमीन बेचकर अपना हिस्सा माँगने लगी हैं'...। शायद बाई मंथरा की भूमिका भी निभा रही है।"


शर्मा जी बोले, "बेटा! गाँव में परिजनों से मनमुटाव बढ़ा तो कहीं हमारा वनवास (शहरवास) परमानेंट ना हो जाए..अस्थायी नौकरी हैं,कल को क्या हो? रामायण हर काल में पढ़ी जाएगी या नहीं, लगता है घटित जरूर होती रहेगी। मंथरा और कैकयी होंगी,,,दशरथ मजबूर ही रहेगा। वनवास और पवित्रता का हरण होगा। संसार समंदर के क्षितिज पार से पाशविक कामनाओं की लहरें दुःख, द्वेश की बारिशें करेंगी। कर्मबन्धों का संगठित स्वरूप रावण से युद्ध होगा, तो ही पुनः स्वजनों में जाना होगा। खुशियों की दीपावली ऐसे ही नहीं आती।" सुबोध बोला, "मतलब मंथरा को दूर करना ही होगा।" शर्मा जी ने गहरी साँस लेते हुए "हाँ" में गर्दन हिलाई।


सुबोध रसोई की खिड़की के पीछे शीशे से झांकते मम्मी और कामवाली बाई के धुँधले अक्स को देखने लगा।
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गोविन्द सिंह चौहान
गाँव-भागावड़, पोस्ट - भीम, जिला - राजसमन्द ( राज.) पिन. 305921

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बधाई (बधाई गीत) - मुनव्वर अली 'ताज'


बधाई
(बधाई गीत)
ज़ेहन में पारसाई हो,
हर इक दिल की सफ़ाई हो,
नज़र में ख़ुशनुमाई हो,
ज़ुबाँ पे भाई भाई हो,
मुहब्बत रास आई हो,
लबों से मुस्कुराई हो,
भरी नफ़रत की खाई हो,
मिलन की रसमलाई हो,
दियोंं की रौशनाई हो,
अमावस साथ लाई हो,
हर इक मुँह में मिठाई हो,
ग़रीबों ने भी खाई हो,
धरा भी जगमगाई हो,
दीवाली की बधाई हो.
-०-मुनव्वर अली  'ताज'
वज़ीर पार्क कालोनी , मस्जिद के पास उज्जैन - 456001 म. प्र.

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जीवन (निबंध) - तेजस राजपुरे

जीवन
विधा : निबंध
         जीवन में हम कई बार चीजों  के लिए हमारा कीमती समय व्यर्थ गवा देते हैं । हम कुछ पाने की आशा में जो अपने पास है उसे खो देते है । पर यही तो जीवन का आधार है । 'कुछ पा कर खोना है, कुछ खो कर पाना है।' हम अगर जो चीज है उसी मे गुजारा कर ले तो विकास कभी नहीं होगा क्योंकि विकास की शुरुआत किसी चीज को पाने की आशा से होती है । पर इसका यह मतलब नहीं कि हम लोगो को दुःख देकर खुद ख़ुशी ढूंढे । हमारे जीवन का सार इस वाक्य में है - 'जिओ और जीने दो' ।
          हमारे चले जाने के बाद इस दुनिया में हमारा ऐसा कुछ रहता है तो वह हमारे अचे कर्म और हमारी निशानी । लोग हमें याद करे ये काफी नहीं है पर हमें अपने अच्छे कर्मों के लिए उच्च लक्ष्य होना चाहिए। 'जीवित तो हर कोई होता है, पर उस जीवन का कोई उद्द्देश्य होना चाहिए।'
         जीवन में प्रेम का महत्त्व बहुत है। प्यार ( प्रेम ) की व्याख्या अब थोड़ी बदल सी गयी है पर सार्थक जीवन के लिए:
प्रेम करो - अपने आप से,
प्रेम करो - अपने माँ - बाप से,
प्रेम करो - अपने सपनो से
और प्रेम करो अपने अपनों से
       जो मनुष्य अपने सपनो को साकार करने अपना जीवन समर्पित करता है उसका जीवन सार्थक हो जाता है।जीवन सबका एक सामान ही होता है पर सिर्फ जीने का तरीका अलग होता है ।आखिर मे जीवन को जीना अपने बस मे है । जीवन है जीना पर सिर्फ अपने सपनो के लिए ।
-०-
लेखक
तेजस राजपुरे  (विद्यार्थी)
कोपरखैरणे ,नवी मुंबई , महाराष्ट्र





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दिवाली आई (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी


दिवाली आई (कविता)
(कविता)

दीप जलाएगें हम मिलकर देखो दिवाली आई।
घर घर जाकर बाटेगें हम खील बतासे मिठाई।

घर में बनाएगें अपने हम बढ़िया बढ़िया पकवान।
मिलने आएंगे हम सब से हमारे सभी मेहमान।

नए नए कपड़े पहनेगें खूब पटाखे जलाएगें।
रूठे हुऐ सभी मित्रों को अपने हम मनाएंगे।

खुद भी नाचेंगे मस्ती में और सबको नचाएंगे।
माँ लक्ष्मी को पूजेंगे हम बड़ों का आशिष पाएंगे।

चाईना का कोई माल ना लेगें मिट्टी के दीये जलाएंगे।
अबकी इस दिवाली मे हम सब मिलकर कसम ए खाएंगे।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
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आपने कहा था न दीदी (कहानी) - डॉ. शशि गोयल


आपने कहा था न दीदी
(कहानी)

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अपवित्रा (कहानी) - शिखर चंद जैन

अपवित्रा
(कहानी)
अश्विनी की 12 वीं की परीक्षा समाप्त हो गयी थी।मम्मी ने उससे काफी पहले से वादा कर रखा था कि उसे उसकी जीजी रागिनी के घर रानीखेत भेज देगी ताकि वह 15 दिनों तक खूब घूम-फिर सके और परीक्षा की सारी थकान और बोरियत वहाँ की मौज-मस्ती से दूर कर सके.
पापा ने भी कहा, “भेज दो,टूरिस्ट प्लेस है, घूम आएगी।जरा मन बदल जाएगा.”
बस फिर क्या था. पापा ने अगले ही दिन ट्रेन में बैठा दिया. कुल ३ घंटों का ही तो सफर था. अश्विनी ट्रेन में सवार हुई तो उसका दिल दिमाग सब कुछ मानो हवा में उड़ रहे थे। उसकी ख़ुशी सातवें आसमान पर थी। वह जल्दी से जल्दी जीजी-जीजा के घर पहुंचना चाहती थी और उनकी नई गृहस्थी देखने के साथ-साथ रानीखेत व आसपास के इलाकों में घूमना-फिरना चाहती थी. इसीस बहाने वह अपने उन फेसबुक ग्रेंड्स को भी इम्प्रेस करना चाहती थी जो आए दिन कहीं न् कहीं घूमने-फिरने जाते और वहाँ से ढेर सारी पिक्स अपनी वाल पर पोस्ट करते थे.
ट्रेन ने भी मानो अश्विनी के दिल की सुन ली थी. बिल्कुल राईट टाइम स्टेशन पर उतार दिया. जीजा अपनी कार लेकर आ गए थे. स्टेशन से बमुश्किल सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर घर था.
अश्विनी घर पहुंची तो जीजी का घर देखकर इम्प्रेस हो गयी. छोटा-सा बंगला था. अगल-बगल काफी खुली जगह थी. घर में सारी सुख-सुविधाएँ थीं. जीजा अच्छा कमाता था.
घर से पहली बार निकली अश्विनी को जीजा-जीजी ने खूब घुमाया। १३ दिनों में शायद ही कोई दिन ऐसा था जब अश्विनी काईं घूमने या किसी रेस्तरां में खाना खाने न गयी हो.इस बीच पड़ोस के एक लड़के से भी उसकी दोस्ती हो गयी जो हम उम्र था और फेसबुक के माध्यम से उसे पहले से कुछ-कुछ जानता भी था. इस परिचय के कारण दोनों एक दूसरे से काफी हिलमिल गए थे और ढेर सारी बातें करते रहते थे.
एक दिन जीजा-जीजी किसी रिश्तेदार की गमी में चले गए।अश्विनी को अकेला देख पड़ोसी लड़का बात करने के बहाने अश्विनी के पास घर में आ गया. दोनों बातें करने लगे. फिर वही हो गया जिसका अक्सर डर होता है. लड़का अपनी औकात पर आ गया. उसने जबरदस्ती अश्विनी के शरीर को कुचल दिया. अश्विनी को कुछ समझ में नहीं आया कि वह कैसे रिएक्ट करे. वह बुरी तरह डर भी गयी थी.
जीजा-जीजी शाम तक लौट आए थे।लेकिन अश्विनी तब उनसे कुछ न कह पायी. रात भर भावनाओं के ज्वार में डूबने-तैरने के बाद उसने सुबह साहस करके उसने पड़ोसी की घिनौनी करतूत के बारे में बताया तो जीजी-जीजा सन्नाटे में आ गए। उन्होंने कुछ न कहा.
जीजी को दोपहर में महिला मण्डल की मीटिंग में जाना जरुरी था।
उन्होंने पति से कहा, “आज तुम छुट्टी ले लो. देखा न कल अकेला छोड़ गए तो इसने क्या कर डाला।“
अश्विनी को जीजी की बात पर रोना आ गया. इस हादसे में भला उसका क्या कसूर था, अगर वह खुद के साथ हुए बलात्कार को रोक सकती तो क्या रोकती नहीं? खैर,वह कहती भी क्या? मन ही मन अपमान और दर्द का घूँट पीकर रह गयी.
जीजा की पहरेदारी में उसे छोड़कर जीजी चली गयी।
जीजा अश्विनी के पास बैठकर उससे मीठी-मीठी सहानुभूति की बात करने लगा. उसे दिलासा देने लगा. अश्विनी फ़ूट फूट कर रोने लगी। जीजा ने उसके आंसू पोछते हुए अपने आगोश में ले लिया. अश्विनी को जीजा का यह प्यार पिता की छाँव जैसा महसूस हुआ. लेकिन अगले ही पल उसने महसूस किया की जीजा के हाथ उसकी सुडौल छाती और नरम जाँघों के पास रेंग रहे हैं।
अश्विनी ने कसमसा कर खुद को जीजा से अलग करना चाहा।
बोली, “जीजाजी! ये क्या कर रहे हैं आप?”
जीजा ने किसी मंजे हुए खलनायक जैसी दुष्ट मुस्कान के साथ दांत पीसते हुए कहा , “साली...मेरी प्यारी साली क्यों नखरे दिखा रही है? क्या फर्क पड़ जाएगा. एक और सही. तू तो वैसे भी अपवित्र हो ही चुकी है.”
बलिष्ठ जीजा ने अश्विनी की एक न सुनी. उसे बुरी तरह रौंद डाला. अश्विनी बिसूर-बिसूर कर रोटी रही. लेकिन जीजा को उसके रोने से और भी मजा आ रहा था.
तन और मन से टूट चुकी अश्विनी ने जीजा को सबक सिखाने के मकसद से रात को अलग से जीजी को पूरी बात बताई.
जीजी तो मानो फट पड़ी. बोली, “आशू! तू ही कुलटा है. तूने तो मेरे घर को ही अपवित्र कर दिया. बहन मैं हाथ जोड़ती हूँ. तू कल की ट्रेन से ही निकल!”
सुबह अश्विनी को ट्रेन में बैठा दिया गया. माँ और छोटा भाई स्टेशन पर उसका इंतजार कर रहे थे.
माँ ने अपनी बेटी को गले से लगाकर कहा, “मेरी फूल-सी बच्ची. बहुत याद आती थी तेरी.चल घूम आई तो तेरा भी मन बदल गया और जरा बहल गया.”
अश्विनी दुखी भी थी और डरी हुई भी.उसके मन में विचारों का तूफ़ान उमड़ रहा था. उसने कहना चाहा, मम्मी मन तो दूसरों का बहला लेकिन मेरा मन बदल गया. पुरुषों के लिए मैं तो सिर्फ एक शरीर हूँ.पता नहीं अपवित्र होने के बाद भी मुझे क्यों आगोश में लेना चाहा जीजा ने. वह कहना बहुत कुछ चाहती थी लेकिन डर गयी. कहीं माँ ने भी उसे अपवित्र कह कर घर से निकाल दिया तो?
अब वह मन ही मन चाहती थी कि उसकी जीजी कहीं माँ को न बता दे. उधर जीजी डर रही थी कि जीजा की पोल न खुल जाए. जीजा भड़क गया या अरेस्ट हो गया तो उसकी जिंदगी न उजड़ जाए।
दोनों स्त्रियां अपने अपने डरों को जी रही थीं. और इस राज पर आजीवन पर्दा डाल कर ख़ुशी ख़ुशी जीने लगीं.
-०-
संपर्क 
शिखर चन्द जैन
67/49 स्ट्रैंड रोड, तीसरी मंजिल, कोलकाता - 700007 (पश्चिम बंगाल)
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हिन्दी वर्णमाला के व्यंजनों की गज़ल (गज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’


हिन्दी वर्णमाला के व्यंजनों की गज़ल
(ग़ज़ल)

भी किसी के साथ भूलकर मत अन्याय करें,
ण्डित रहे न कोई सबको एकाकार करें|

लत-सही का ज्ञान रहे हम इतना ध्यान रखें,
ड़ी-घड़ी हम कदम बढ़ाकर मंजिल पार करें|

से भी रखें वास्ता यह भी अक्षर प्यारा,
लो चलें जग से दुष्टों का हम नाश करें|

लें  किसी को नहीं और धोखे से दूर रहें,
ले प्यार का दीपक उर में यह प्रयास करें|

गड़ा-झंझट से अब हम सब कोसों दूर रहें,
से प्रेरित होकर दुःख में भी परिहास करें|

न –टन करती घड़ी हमेशा आगे बढ़ा करे,
ण्डक लगे नहीं हम इसका भी उपचार करें|

ली – पान - तम्बाकू का हम सेवन नहीं करें,
ककर रखें अन्न-जल हम सब इतना ख्याल करें|

से हो परहेज नहीं यह अक्षर पावन-प्यारा,
पन हृदय कि दूर करें हम मन भी शान्त करें|

कन भूलकर मेहनत से अब मिलकर काम करें,
र्द सभी का हरें दुखी का दुःख में साथ करें|

र्म यही कहता है सबका हम सत्कार करें,
हीं कभी भी रोयें खुशियों का भण्डार भरें|

रशुराम बन करके जीवन का उद्धार करें,
ल की इच्छा रखें नहीं हम केवल काम करें|

न्धु समझकर सबको सबसे सद्व्यवहार करें,
क्ति-भाव से सब धर्मों का हम सम्मान करें|

न के सारे भेद मिटाकर सबसे प्यार करें,
हाँ सभी हैं एक’ मन्त्र का हम उच्चार करें |

हे न कोई दुश्मन मन में ऐसा भाव रहे,
गन और मेहनत से हम सब सारे काम करें|

क्त कभी बेकार न जाये यह प्रयास करें,
हर-गाँव में ज्ञान-दीप से हम प्रकाश करें|

से है षटकोण न भूलें यह भी याद करें,
भी रहें मिल जुलकर समता का हम पाठ करें|

म अपने भारत का मिल करके सम्मान करें,
क्षमा करें छोटों को अग्रज पर अभिमान करें|

त्र पढ़ करके तीन लोक तक जन कल्याण करें,
ज्ञ से ज्ञान बाँटकर जग में हम उपकार करें|
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
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