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Thursday, 26 March 2020

फिर भी हम बेफिक्र है... (कविता) - राजेश सिंह 'राज'

फिर भी हम बेफिक्र है...
(कविता)
प्राचीनतम इतिहास है
व्याख्यानों में बात है
हर संस्कृति में खास है
भारतीयता का साज है
संस्कृति में हो रहे छिद्र है
फिर भी हम बेफिक्र है

वीरों की शान है
भारत मस्तक महान है
युवाओं में जान है
हम सनातन संतान है
आज नशे में होता जिक्र है
फिर भी हम बेफिक्र है

नारी सम्मान है
पूजा विधान है
घर की वो शान है
प्रेमधन वरदान है
राह नजरों में हिक्र है
फिर भी हम बेफिक्र है
-०-
राजेश सिंह 'राज'
बाँदा (उत्तरप्रदेश)

-०-

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मजदूर (कविता) - रीना गोयल

मजदूर
(कविता)
भोर से ही काम मे रत हो रहे मजदूर ।
साँझ को थक हार घर को लौटते मजदूर ।
ध्येय है पैसा कमाना ,पेट की है मांग ।
बेइमानी ना करें पर ,सत्य निष्ठा लांघ ।।

बोझ कांधो पर चढ़ा है ,पालते परिवार ।
फावड़ा ले हाथ करता ,कर्म हेतु प्रहार।
बांध नदियों पर बनाते ,श्रम करें भरपूर ।
तोड़ते हैं पत्थरों को ,रात दिन मजदूर ।।

चीथड़े तन पर लपेटे ,कर्म में तल्लीन ।
जूझते मजबूरियों से ,लोग कहते दीन ।
है बना उनका बसेरा ,ये खुला आकाश ।
एक दिन किस्मत खुलेगी ,मन भरा विश्वास ।।
-०-
पता:
रीना गोयल
सरस्वती नगर (हरियाणा)

-०-

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घर की रोशनी (लघुकथा) - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'

घर की रोशनी
(लघुकथा)
"ए ,जी! राखी के ससुराल जाने पर घर सूना-सूना सा लगता है। काटने को दौड़ता है ,मेरा तो मन बिल्कुल भी नहीं लगता।" "क्यों, मैं भी तो घर में ही रहता हूँ, तुम्हारा कितना ख्याल रखता हूँ, पर तुम्हारी दृष्टि में तो मेरी कोई कीमत ही नहीं है। "
परेश बाबू ने पत्नी को तनिक छेड़ते हुए कहा।
"नहीं जी , ऐसी कोई बात नहीं है , आप अपनी जगह पर हैं, राखी का स्थान तो आप नहीं ले सकते। उससे पूरा घर रोशन रहता था। उसकी प्यारी- प्यारी बातें मेरे कानों में रस घोलती थी।"
"सो तो ठीक है, पर लड़कियों के हाथ तो एक दिन पीले करने पड़ते हैं। तुम भी तो एक दिन अपने माता-पिता का घर सूना करके मेरा घरआबाद करने चली आई थी । तुम्हारे आने से मेरा जीवन कितना रसमय, आनंदमय हो गया था । यह तो संसार की परंपरा है ,लड़कियों को दो घर आबाद करने होते सम्पपादक।"
"जी आपकी बात तो बिल्कुल ठीक है , मैं इससे पूर्णतया सहमत हूँ , पर मेरे मन में एक बात आई है, क्यों न हम 
देवर जी की दो परियों जैसी प्यारी-प्यारी बेटियों में से एक
छोटी वाली बेटी को अपने घर की रोशनी बना लेते हैं ?"
"नेकी और पूछ-पूछ । आपका प्रस्ताव बहुत ही सुंदर है , पर क्या वे इससे सहमत हो जाएंगे ।"
" वह सब मुझ पर छोड़ दीजिए । "
छोटी परी अपने घर की रौनक बनेगी, उसकी उछल-कूद और किलकारियों से सूना घर पुनः गूँजने लगेगा ,इसकी कल्पना मात्र से ही पति पत्नी का मानसिक अवसाद दूर हो गया।
उनके मन के सूने कोने में संगीत की स्वर लहरियाँ बजने लगीं।
-०-
पता-
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
सिरसा (हरियाणा)
-०-

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मै छोटा सा बिन्दु हूँ (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी


मै छोटा सा बिन्दु हूँ
(कविता)
धरती माँ के गर्भ से ऊपजा।
मैं छोटा सा बिन्दु हूँ।

हिन्दू हूँ मैं हिन्दू हूँ।
मैं भारत का हिन्दू हूँ।

अत्याचार नहीं करता मैं।
मैं अत्याचार नहीं सहता।

आतंक मचाने वाला कोई ।
मैं व्यवसाय नहीं करता।

जब जब अधर्म बढ़ जाता हैं।
मैं राम बन जाता हूँ।

चढ़ा प्रत्वन्चा कोदंड़ पर।
रावण को मार गिराता हूँ।

शिखर हिमालय की चोटी मैं।
मैं ही कश्मीर की घाटी हूँ।

हरा भरा एक खेत भी मैं।
मै ही रेगिस्तान की माटी हूँ।

हैं जीवन मुझसे मरण भी मै हूँ।
सानिध्यो की शरण भी मैं हूँ।

पर आज मैं बेबाक हूँ।
बहुत ही हताश हूँ।

बढ़ रहीं निर्लज्जता।
उससे मैं उदास हूँ।

लुट गयी जो बेटियां।
उन्हें बचा न पाया मैं।

हो रहा प्रतित की मै।
एक जलती लाश हूँ।
अब होता प्रतित अर्जुन बनकर।
फिर कुरूक्षेत्र चलना होगा।

हाथों में गांडिव उठा।
फिर शत्रु से लडना होगा।

लुट रही द्रौपदी की लज्जा।
देखो बीच सभा में फिर।

भीम बनकर हमें दुशासन।
का बध अब करना होगा।

चलो राम बन जाए हम।
रावण को शबक सिखाना हैं।

हनुमान की तरह हमें फिर।
लंका को जलाना हैं।

कहीं कोई सीता को हर कर।
फिर से ना ले जाने पाए।

ऐसा होने से पहले ही।
हमें रावण को मिटाना हैं।

अपराधियों के शीश पर।
अब नाचता मैं काल हूँ।

काल हूँ मैं काल हूँ।
शरीर से बीकराल हूँ।

हाथ में त्रिशूल मेरे।
माथे पे त्रिपुण्ड हैं।

ध्यान से तुम देखो मुझे।
मै ही महाकाल हूँ।

मैं ही ब्रह्मा मैं विष्णु हूँ।
और मैं ही शिवेन्दू हूँ।

धरती माँ के गर्भ से ऊपजा।
मैं छोटा सा बिन्दु हूँ।

हिन्दू हूँ मैं हिन्दू हूँ।
मैं भारत का हिन्दू हूँ।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
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पतझड़ का एक ठूंठ हूँ मै (कविता) - सुरेश शर्मा


आओ गणतंत्र दिवस मनाये हम
(कविता)
पतझड़ का एक ठूंठ हू मैं ।
दहलीज की लाज रखना ,
प्रकृति ने कर दिया मेरे वश मे ।
बसंत का मौसम आए ,
पतझड़ का भी मौसम आए,

पत्ते लगे और फिर टूट जाए।
परन्तु ?
मेरा स्थान जो है वही रहे ।
क्योंकि ,
पतझड़ का एक ठूंठ हू मै ।
चाहे बसंत हो !
या पतझड़ का मौसम ,
मेरे लिए तो दोनो समान है ।
क्योंकि, 
हरियाली से मेरा कोई वास्ता नही ।
पतझड़ के पत्ते मुझमे लगते नही ।
तबतक दहलीज की लाज रखूंगा मै,
जबतक मेरा जीवन जुड़ा है धरती से ।
क्योंकि,
पतझड़ का एक ठूंठ हूँ मै ।
चाहे हो बसंत की रौनकता ,
या हो,
पतझड़ की नीरसता ।
अपने सीमित दायरे मे रहना !
प्रकृति ने कर दिया मेरे वश मे ।
कही आना-जाना नही मेरे जीवन मे ।
क्योंकि,
पतझड़ का एक ठूंठ हूँ मै ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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