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Monday, 16 December 2019

त्राही त्राही हर ओर मची (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

त्राही त्राही हर ओर मची 
(गीत )

त्राही त्राही हर ओर मची ,
ऐ राम विचार करोगे कब।
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनका संहार करोगे कब ।।

घर घर में अपने नामो का,
सिक्का तुम ही चलवाते हो।
हर घर में राम खड़े करके ,
बेशक तृप्ति तुम पाते हो ।।
लेकिन कैसे चुपके चुपके ,
उनमें रावण आ जाते हैं ।
बदनाम तुम्हीं को करते हैं ,
देखो कैसे इठलाते हैं ।।
जो छद्म वार करने वाले,
उनपर तुम वार करोगे कब।
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनका संहार करोगे कब ।।

क्या नहीं जानते तुम सचमुच,
किरदार डॉक्टरों के बोलो ।
पहले हकीम और वैद्य दवा ,
जो देते थे उनसे तोलो ।।
ये गला काटते दुखियों का ,
केवल अपना घर भरते हैं।
रोगी को टेबल पर रखके,
पैसा लेते कब डरते हैं ।।
कर्तव्यहीन पथभ्रष्टो को ,
बोलो बेदार करोगे कब ।
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनका संहार करोगे कब ।।

मर्यादा करते तार तार ,
पर राम दुपट्टा धारेंगे ।
ताबूतो में रिश्वत खाते,
कैसे ये कर्ज उतारेगे ।।
ये अबलाओं की इज्जत को ,
अपनी जूती पर रखते हैं ।
हर नीच काम करते हैं ये,
न डरते हैं न थकते हैं।।
इनके कुत्सित मंसूबों का ,
हर पग बेकार करोगे कब ।
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनका संहार करोगे कब ।।

ये राम नाम तो रटते हैं ,
पर छुरी बगल में पाओगे।
जो करें मिलावट कम तोलें ,
उनसे कैसे बच जाओगे।।
वनवास नहीं ये खुद जाते,
रिश्तों को तोड़े पल भर में ।
बूढे माँ बाप कबाड़े का ,
सामान रखें क्यों कर घर में।।
अंधे जो धन के पीछे हैं,
उनसे उद्धार करोगे कब ।
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनको संहार करोगे कब ।।

रक्षक जो देश के बनते हैं,
भक्षक हैं खाने वाले हैं।
कंगाल वतन को करते हैं,
जाने कैसे रखवाले हैं।।
सेवा के नाम पे आये हैं ,
हर कोई सेवक कहता है ।
ये रामराज्य के हामी हैं ,
जो वादों में बस रहता है।।
झूठे वादों का तुम "अनंत"
बोलो प्रतिकार करोगे कब
जो रावण छिपे हुवे घर घर,
उनका संहार करोगे कब ।।-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

***
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'बतियाना' (हास्य व्यंग्य कविता) - ओम प्रकाश कताला

'बतियाना'
(हास्य व्यंग्य कविता)
ये फूल मेरा, ये डाली मेरी।
तितली टकराए, भंवरा बतलाए ।
देखो अपना हाल बतलाए ।
कभी झाड़-झंकाड़ में रहते ।
दोनों आपस में बतियाए ।
ये फूल मेरा, ये डाली मेरी।
आपस में फिर टकराए ।
कभी कांटों से पंख पड़वाए,
कभी पैरों में कांटे चुभ जाए।
दोनों आपस में बतियाए ।
ये फूल मेरा, ये डाली मेरी ।
तू-तू ,मैं-मैं, देख दोनों शरमाए।
माली को देख, फिर बतियाए।
मानव हम नहीं, जो आपस में टकराए।
दोनों आपस में बतियाए।
ये फूल मेरा, ये डाली मेरी।
दोनों मिलकर नया संदेश दिखलाएं ।
मानव सीखे हम से, नई रीत चलाएं ।
छोटा जीवन हमारा, हमसे प्रीत लगाए।
दोनों आपस में बतियाए।
-०-
ओम प्रकाश कताला
सिरसा (हरियाणा)
-०-

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आह्वान (गीत) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


आह्वान
(गीत)
सकल दुखों को परे हटाकर,अब तो सुख को गढ़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

पीर बढ़ रही,व्यथित हुआ मन,
दर्द नित्य मुस्काता
अपनाता जो सच्चाई को,
वह तो नित दुख पाता

किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

झूठ,कपट,चालों का मौसम,
अंतर्मन अकुलाता
हुआ आज बेदर्द ज़माना,
अश्रु नयन में आता

जीवन बने सुवासित सबका,पुष्पों-सा अब खिलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,
नव आगत मुस्काए
सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,
अपनापन छा जाए

औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

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कुएँ की प्यास (कविता) - शिखा सिंह

कुएँ की प्यास
(कविता) 
कुअाँ जो पडा़
मुह औंधे प्यासे
के मानिन्द बाहर ,
उस इंतजार में
कोई तो आये ,
मुझे भूल गये सब
मैं भी प्यासा हूँ
तुम्हारी तरह
बतियाने को सुनने को
वो सखियाँ छोड ग ई मुझको
जो कभी अपने सुख दु:ख
मेरे कंधों पर मटका रख
कहती थीं
अब कहाँ फुरसत
मेरे लिए उनको
उनके सौंदर्य को निहारने कीं
ललक जाग उठती है
जब साँझ को बैठतीं
मेरी ओट में
और हँसी ठिटोली करतीं
अब मेरी जगह ले ली
गैरों ने ठंडा पानी देकर
मैं दुखी हूँ अकेलेपन से
मैं भी तो ताजा शुद्ध पानी देता
मुख मोड़कर क्यों चले गये मुझसे सभी
क्यों नीम की छाँव को
भी अनदेखा कर दिया
जो निरोगी रख
देते सौन्दर्य की छवि
मेरे होने को नकार कर
छोड दिया
अकेले असहाय पडा़
मेरा गला सूख रहा
मुझे उफनने न दो
मरने न दो
बात करो मुझसे
बाहर निकलो मेरे पास बैठो
बूढा हो गया हूँ
अब तो अकेला मत छोडो़ मुझे
-०-
पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-

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गृह लक्ष्मी (कविता) - रश्मि लता मिश्रा

गृह लक्ष्मी
(कविता)

रक्तिम चरण, धवल वस्त्र पर,
छोड़े छाप स्व आगमन पर,
गृह में आ गई गृह लक्ष्मी।
स्वागत व उल्लास समाया,
आरती सजी कलश रखवाया,
ढोल ,नगाड़े ,ताशों के संग,
चावल उड़ेल कलश के चरण
घर खुशियां लाई गृहलक्ष्मी।
घर को बनाएं मंदिर प्यारी,
घर पर अपनी खुशियां वारी
नेम प्लेट न हिस्सेदारी,
वजूद को तरसे वह बेचारी,
कहाई फिर भी गृहलक्ष्मी।
स्वा को तज हम को अपनाया,
छोड़ भेद जब अपना पराया,
औरों का घर स्वर्ग बनाया,
गृहलक्ष्मी तब नाम है पाया,
तभी कहाई गृह लक्ष्मी।
-०-
पता:
रश्मि लता मिश्रा
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 
-०-


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