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Friday, 29 November 2019

मेरा भारत (हाइकु) - अब्दुल समद राही

मेरा भारत
(हाइकु)
जगत गुरू
प्राचीनकाल से है
मेरा भारत
***
सभी धर्म का
करे मान सम्मान
मेरा भारत
***
पूजा अजान
मेरे भारत मां की
आन व शान
***
मेरा भारत
स्वतंत्र देश बना
हमे है गर्व
***
नारी सम्मान
करता है करेगा
मेरा भारत
***
मान बढाते
तिरंगे का सदा ही
भारतवासी
***
सादू संतो की
कर्मस्थली रहा है
मेरा भारत
***
मेरा भारत
हंसता मुस्कुराता
गांवो में बसा
***
विकासशील
देशो में अग्रणीय
मेरा भारत
***
आंतकवाद
जड़ से मिटायेगा
मेरा भारत
***
अनेकता में
एकता की मिशाल
मेरा भारत
***
प्रार्थना करे
विश्व गुरू बनेगा
मेरा भारत
***
मेरा भारत
तिरंगे रंग सजा
प्यार बांटता
***
सुभाष जैसा
सपूत पैदा करे
मेरा भारत
***
ईद दीवाली
मिलकर मनाता
मेरा भारत
***
पता:
अब्दुल समद राही 
सोजत (राजस्थान) 
-०-

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मैं सोचती हूँ काश (कविता) - तनवीर मतीन खान

मैं सोचती हूँ काश
(कविता)
मैं नहीं सोचती कि
मेरे लिखे को कविता का नाम दो
मैं नहीं सोचूँगी कि
कवियों में मेरा नाम हो,
मेरे शब्द भले ही
महफिल की रौनक ना बने,
लेकिन मैं सोचती हूँ,
कि मेरे शब्दों की जमीन से उगे
एक ईमानदार सोच,
जो पहाड़ों का सीना चीर कर
हवाओं का रुख़ बदल दे,
मेरे शब्द निराशा के बादलों को
उम्मीद की बारिशों में बदल दें,
मैं सोचती हूँ
मेरा कोई वाक्य
किसी की सोई हुई आत्मा को फिर से जगा दे,
मैं सोचती हूँ
मेरे शब्दों में बस जाए
बाण की तासीर,
जो ढुलमुल व्यवस्था को
चीर कर निकल जाए
मैं सोचती हूँ,
नगाड़ों की तरह गूंज उठे मेरे शब्द,
ताकि अव्यवस्था की खुमारी में
सोई सियासत,
नींद से जाग जाए
मैं सोचती हूँ
काश
मेरे शब्द नगाड़ा होते।
-०-
पता: 
तनवीर मतीन खान
नागपुर (महराष्ट्र) 
-०-

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बेज़ुबान परिंदे (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

बेज़ुबान परिंदे
(कविता)

गिन रही हूँ,
आसमान में उड़ते परिंदों को,
क्यों कि गिन पा रही हूँ....।
नहीं गिन पाई ....
सांभर के तट पर,
क्षत विक्षत ,
बिखरी पड़ी,
टुकड़ों में बटी
बेज़ुबान परिंदों की लाशों को।
बिखरे पंखों को,
टुकड़ों में बँटीं हड्डियों को,
देख रही हूँ....
मर्घट बने तटों को,
ख़ामोश कलरव को,
उदास झील को,
जो कभी इन बेज़ुबान परिंदों की,
सकूँन का सबब थी,
आज इनकी मौत की गवाह है।
सुन रही हूँ.....
पुकारते बाशिंदों को,
कराहते परिंदों को,
अभी तांडव जारी है,
बेज़ुबानो की मौत का।
महसूस कर रही हूँ...
दम तोड़ते दर्द की पीड़ा को,
नमक की दलदल में फंसे परिंदे,
कराह रहे है,
उड़ने की आस में,
फड़फड़ा रहे हैं।
डर कर प्रलय के झरोखों से,
आशा के हलकोरों से,
धीरे धीरे,
टूट गई आशाएँ,
फड़फड़ाते पंख,
हो गए शान्त,
रह गए फँस कर,
नमक के दल दल में,
सो गए थक कर,
काल के बवंडर में।
मिल गए मिट्टी में,
मंज़िल तय करते करते,
छोड़ गए मरते मरते,
पंख ओर हड्डीयों के निशाँ,
कौन भर पाएगा,
इन बेज़ुबानों की जान का नुक़सान ?
तड़प तड़प कर,
शरीर को कीड़ों के हवाले कर,
मिट्टी में समा कर,
तट जो कभी इनके सकूँ का सबब थे,
गवाह बना कर ,
सो गए चिर निद्रा में।
कराह परिंदो की,
दर्द बेज़ुबानों का,
चुनावी शोर में दब जाएगा।
प्रशासन कारण ढूँढता रह जाएगा।
कुछ रेस्क्यू ऑपरेशन ,
पर गति सुस्त,
कुछ काग़ज़ी कार्यवाही,
हो गए मुक्त,
सरकारी आँकड़ो में
कुछेक पंछी मरे है,
मैंने आँखों से देखा है,
हक़ीक़त इससे परे है,
किससे करें आशा ?
घोर निराशा,
सब कह रहे,
कारण ढूँढ तो रहे है,पर
हक़ीक़त इससे परे है।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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अनजान डर (कविता) - राजीव डोगरा


अनजान डर
(कविता)
किसी के आने से पहले
किसी के जाने का
डर बना रहता है।
जीवन में एक अनजाना सा
निराशा का पल
बना रहता है।
कभी सोचता हूं,
सब कुछ समेट लू खुद में
फिर खुद को लोगो से
छुपाने का इलज़ाम बना रहता है।
रेत की तरह समय
हर पल हर जगह
हाथो से निकलता जा रहा है।
यूं लगता है,
सब कुछ पाकर भी
कुछ-कुछ खोता जा रहा हूं।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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जस खोजा तस पाईयां ... (कविता) - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'


जस खोजा तस पाईयां ... 
(कविता)
गुजर गये वो पाँच दिन
त्योहार के
अलग अलग अनुभूति
अलग अलग विचार के
पहला विचार
इकट्ठा हुआ परिवार
बच्चों की खिलखिलाहट संग
मिले बचपन के यार
रसोई में पल्टे के स्वर
साफ-सुथरा हुआ घर
दमकी नव-वसनों से नारी
सौन्दर्य से अमावस हारी
बहुत कुछ देकर गये
त्योहार अपने
लगा इसलिए
सकारात्मक थे विचार अपने
दूसरा विचार
जो सदैव ढूंढ़ता
जीत में भी हार
उसे त्योहार में
उदासी, थकान, खर्च जैसे
दूषण मिलें
वायु संग ध्वनि प्रदूषण मिलें
ये विषाद उनको
सताये जा रहा है
त्योहार तो गया
पर उनके मन का
अवसाद ना जा रहा है
कहा भी गया है -
जस खोजा, तस पाईयां
निज त्योहारां माय...
-०-
व्यग्र पाण्डे
सिटी (राजस्थान)

-०-

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सेवा (लघुकथा) - श्रीमती सरिता सुराणा

अनहोनी
(लघुकथा)
सेवा
रामलाल कुछ दिन पहले ही रोजगार की तलाश में अपनी मां के साथ शहर आया था ।वो पढ़ा - लिखा तो था नहीं इसलिए शहर में उसे चाय के
एक ठेले पर बर्तन धोने का काम ही मिल पाया। उसकी मां भी लोगों के घरों में साफ - सफाई एवं चौका - बर्तन आदि काम करने लगी । रामलाल जिस ठेले पर काम करता था उसके पास ही मिठाई और नमकीन की एक बङी दूकान थी ।उस दूकान पर पूरे दिन ग्राहकों की भीड़ लगी रहती । रामलाल देखता कि पहले लोग उसकी बंडी पर चाय पीते फिर उस दूकान पर जाकर कचौड़ी - समोसा आदि खाते । बहुत बार उसका भी मन करता कचौड़ी - समोसा खाने का परन्तु उसके पास पैसे नहीं होने के कारण वह मन मसोस कर रह जाता था।
एक दिन उसने अपनी मां को अपनी इच्छा के बारे में बताया ।तब उसकी मां ने उसे पांच रुपए दिए और कहा कि कल तूं भी एक समोसा खा लेना । रामलाल बहुत खुश हुआ और अगले दिन का इंतजार करने लगा । अगले दिन दोपहर का काम पूरा करके वह अपने मालिक से पूछकर उस दूकान पर गया ।डरते - डरते उसने दूकान के एक कर्मचारी से एक समोसा देने को कहा । पहले तो उसने सुना ही नहीं फिर जब उसने दोबारा कहा तो अखबार के कागज़ में लपेटकर एक समोसा उसे पकङा दिया और पैसे मांगे । रामलाल ने अपनी मुट्ठी में सहेजे हुए पांच रुपए उसे पकङा दिए और जाने लगा । इतने में ही उस कर्मचारी ने रामलाल को वापस बुलाया और एक रुपया और देने को कहा । रामलाल बोला - ' मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं और एक समोसे के तो पांच रुपए ही है ना ।'
'नहीं , आजकल छः रुपए हो गए हैं ।' इतना कहकर कर्मचारी ने उसके हाथ से समोसा छीन लिया और बिना पैसे लौटाए ही उसे वहां से भगा दिया । बेचारा रामलाल रोता ही रह गया , उसे ना तो समोसा मिला और ना ही पैसे ।उसकी यह दशा देखकर दूकान में लगा हुआ साइन बोर्ड हंस रहा था , जिस पर बङे - बङे अक्षरों में लिखा था - ' ग्राहक की सेवा ही हमारा प्रथम कर्तव्य ।' पता नहीं दूकानदार अपने इस ग्राहक की यह कैसी सेवा कर रहा था ?
-०-
श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
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