(कविता)
गिन रही हूँ,
आसमान में उड़ते परिंदों को,
क्यों कि गिन पा रही हूँ....।
नहीं गिन पाई ....
सांभर के तट पर,
क्षत विक्षत ,
बिखरी पड़ी,
टुकड़ों में बटी
बेज़ुबान परिंदों की लाशों को।
बिखरे पंखों को,
टुकड़ों में बँटीं हड्डियों को,
देख रही हूँ....
मर्घट बने तटों को,
ख़ामोश कलरव को,
उदास झील को,
जो कभी इन बेज़ुबान परिंदों की,
सकूँन का सबब थी,
आज इनकी मौत की गवाह है।
सुन रही हूँ.....
पुकारते बाशिंदों को,
कराहते परिंदों को,
अभी तांडव जारी है,
बेज़ुबानो की मौत का।
महसूस कर रही हूँ...
दम तोड़ते दर्द की पीड़ा को,
नमक की दलदल में फंसे परिंदे,
कराह रहे है,
उड़ने की आस में,
फड़फड़ा रहे हैं।
डर कर प्रलय के झरोखों से,
आशा के हलकोरों से,
धीरे धीरे,
टूट गई आशाएँ,
फड़फड़ाते पंख,
हो गए शान्त,
रह गए फँस कर,
नमक के दल दल में,
सो गए थक कर,
काल के बवंडर में।
मिल गए मिट्टी में,
मंज़िल तय करते करते,
छोड़ गए मरते मरते,
पंख ओर हड्डीयों के निशाँ,
कौन भर पाएगा,
इन बेज़ुबानों की जान का नुक़सान ?
तड़प तड़प कर,
शरीर को कीड़ों के हवाले कर,
मिट्टी में समा कर,
तट जो कभी इनके सकूँ का सबब थे,
गवाह बना कर ,
सो गए चिर निद्रा में।
कराह परिंदो की,
दर्द बेज़ुबानों का,
चुनावी शोर में दब जाएगा।
प्रशासन कारण ढूँढता रह जाएगा।
कुछ रेस्क्यू ऑपरेशन ,
पर गति सुस्त,
कुछ काग़ज़ी कार्यवाही,
हो गए मुक्त,
सरकारी आँकड़ो में
कुछेक पंछी मरे है,
मैंने आँखों से देखा है,
हक़ीक़त इससे परे है,
किससे करें आशा ?
घोर निराशा,
सब कह रहे,
कारण ढूँढ तो रहे है,पर
हक़ीक़त इससे परे है।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-0-
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