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Friday, 29 November 2019

अनजान डर (कविता) - राजीव डोगरा


अनजान डर
(कविता)
किसी के आने से पहले
किसी के जाने का
डर बना रहता है।
जीवन में एक अनजाना सा
निराशा का पल
बना रहता है।
कभी सोचता हूं,
सब कुछ समेट लू खुद में
फिर खुद को लोगो से
छुपाने का इलज़ाम बना रहता है।
रेत की तरह समय
हर पल हर जगह
हाथो से निकलता जा रहा है।
यूं लगता है,
सब कुछ पाकर भी
कुछ-कुछ खोता जा रहा हूं।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




***
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