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Saturday, 23 November 2019

चिड़िया रानी आ जा (बालगीत) - सतीश चंद्र शर्मा 'सुधांशु'

चिड़िया रानी आ जा
(बालगीत)
आ जा ,आ जा 
चिड़िया रानी ।
दाना खा जा
पी जा पानी ।
भक्ति लाई
चावल दाने ।
आ जा चिड़िया
दाने खाने ।
बिल्कुल करना
ना नादानी।।
रुद्रा लाया
भुना बाजरा ।
खा जा चिड़िया
पास आ जरा ।
करना अपनी
ना मनमानी ।।
स्तुति आई
पानी लेकर ।
पी जा चिड़िया
चोंच डुबोकर।
उड़ जा खाकर
दाना पानी ।।
आ जा, आ जा
चिड़िया रानी।
दाना खा जा
पी जा पानी।।
-०-
पता: 
सतीश चंद्र शर्मा 'सुधांशु'
बदायूँ (उत्तरप्रदेश)

-०-

***
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'माँ' (कहानी) - महावीर उत्तराँचली

'माँ'
(कहानी)
"सूरा-40 अल-मोमिन," पवित्र कुरआन को माथे से लगाते हुए उस्ताद अख़लाक़ ने कहा, "शुरू नामे-अल्लाह से। जो बड़ा ही मेहरबान और निहायत ही रहम करने वाला है। यह पवित्र कुरआन उतारी गई है, अल्लाह की तरफ से। जो ज़बरदस्त है। वह जानने वाला है। वह माफ़ करने वाला और तौबा कुबूल करने वाला है। वह सख़्त सज़ा देने वाला, बड़ी कुदरत वाला है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। अन्ततः उसी की तरफ हमें लौटना है।"

सभी बच्चे बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। अख़लाक़ बड़े ही खूबसूरत ढंग से पवित्र कुरआन की तालीम अनाथ बच्चों को दे रहे हैं। कुछ बच्चे जिन्होंने पिछला सबक याद नहीं किया था। कक्ष से बाहर खड़े होकर अगला सबक सुन रहे हैं।

"अख़लाक़ साहब, ज़रा घडी की जानिब देखिये। आपकी शाम की चाय का और बच्चो के खेल-कूद का वक़्त हो गया है।" कक्ष के दरवाज़े पर खड़ी अनाथालय की'आया' सबीना ने कहा। खेल-कूद का नाम सुनकर बच्चे खुश हो गए। ख़ुशी का एक सम्मलित शोर पूरे अध्ययन कक्ष में गूंज उठा। सबीना और अख़लाक़ ने चेहरे पर बच्चों द्वारा मचाये गए शोर की ऐसी प्रतिक्रिया हुई जैसे उस शोर में दोनों ने अपने बचपन को याद किया हो। सभी बच्चे तुरंत बाहर की तरफ खेलने के लिए दौड़ पड़े।

अमेरिकी बमबारी में अनाथ हुए एक मुस्लिम राष्ट्र के बच्चे शहर के लगभग वीरान से पड़े यतीमखाने को अपने खेल-कूद और शोर-शराबे से आबाद कर रहे हैं। पहले मात्र बारह बच्चे थे। अब हाल ही में यतीम हुए बच्चों को मिलकर चौवन बच्चे यतीमखाने को रोशन कर रहे हैं। छह-सात बरस की नन्ही फ़ातिमा भी उन बदकिस्मत बच्चों में से एक है। जो अभी हाल ही में अनाथ हुए हैं। दो दिन में ही नए बच्चे अनाथालय के पुराने बच्चों के साथ इतना घुल-मिल गए हैं कि खूब खेल-कूद कर धमाचौकड़ी मचाने लगे हैं। अनाथालय में पुनः रौनक लौट आई है।

"अब तो काफी ठाठ हो गए हैं तुम्हारे हमीदा" अख़लाक़ ने चाय का घूंट हलक से नीचे उतारने के उपरान्त कहा।

"ख़ाक ठाठ हुए हैं।" हमीदा खातून जो यतीम खाने की इंचार्ज है। अपनी नाक-भौ सिकोड़ते हुए बोली, "बच्चों ने नाक में दम कर रखा है। जब से नए बच्चे आये हैं। तबसे अपने लिए नहाने-धोने की भी फुर्सत नहीं मिलती। सुन रहे हो न, अभी भी कैसा शोर-शराबा जारी है शैतानों का। पढाई-लिखाई में मन लगते नहीं। सारा दिन खेल-कूद कर ऊधम मचाते रहते हैं। मेरा बस चले तो सबको पीट-पीट कर ठीक कर दूँ।" हमीदा ने माथा पकड़ते हुए कहना जारी रखा। हमीदा सख्त मिज़ाज़ औरत है। जिससे यतीमखाने के पुराने बच्चे तो ख़ौफ़ खाते ही हैं मगर नए बच्चों को अभी इसका अहसास नहीं है। क्योंकि नए बच्चों को अभी तक कोई सज़ा नहीं मिली है।

सूर्यास्त का वक्त है। प्रतिदिन की भांति बच्चे अनाथालय परिसर में बाल से खेल रहे हैं। परिसर के एक छोर पर ही बगीचे के बीच अनाथालय के कर्मचारी गपशप के साथ शाम की चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं। मौजूदा अनाथालय सरकारी सहायता प्राप्त है। पहले यह किसी पुराने रईस व्यक्ति की हवादार दो मंज़िला हवेली हुआ करती थी। अब हलकी-सी तबदीली यह हुई है कि पहले इसे अल्ताफ हॉउस कहा जाता था। जबकि आजकल इसकी पहचान अल्ताफ यतीमखाना के रूप में होती है।

"बच्चों आराम से खेलो। कांच की खिड़कियां हैं। कुछ टूट-फूट न हो जाये।"सबीना जो बच्चों हमदर्द है और अनाथालय में आया का काम करती है। बड़ी रहम दिल, पाक और नेक औरत है। वह बच्चों के दुःख से द्रवित होती है और सुख से खुश। उसने खेलते हुए बच्चों को हिदायत की मगर बच्चों पर उसके कहने का कुछ असर न हुआ। वह पूर्ववत वहीँ खेलते रहे।

"ये साले अमेरिकी, क्यों हमारे मामलों में टाँग अड़ाते हैं। कितने घर बर्बाद कर दिए इन कमीनों ने। कितने लोग वक्त से पहले भरी जवानी में कब्र में सुला दिए गए हैं। कितने बच्चे यतीम हो गए हैं?" अख़लाक़ के बगल में बैठे सज्जाद भाई ने बड़े ही गुस्से में भरकर कहा। सज्जाद भाई का दर्द वक़्त-बेवक़्त यकायक फूट पड़ता है। कभी भी, कहीं भी। ये बात यतीमखाने के सभी लोग जानते हैं।

"ये सब अपने-अपने आर्थिक संघर्षों की लड़ाई है। विदेशों में" अपना बाज़ार और बादशाहत क़ायम करने की कोशिश हैं। " अख़लाक़ ने सुलझे हुए ढंग से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और चाय का घूंट पुनः हलक से नीचे उतार दिया।

"ये अमेरिकी कभी अपने मंसूबों में कामयाब न हो सकेंगे। भाईजान, अगर हमारी अरब कम्यूनिटी यूँ ही कामयाब रही तो इंशा अल्लाह ताला, ये कभी हमारे तेल के कुँओं पर अपना कब्ज़ा नहीं कर सकेंगे।" सज्जाद का आतिशी स्वर अब भी बुलंद था।

"छोडो यार ये सब। क्यों शाम की चाय का लुत्फ़ खराब कर रहे हो?" अख़लाक़ ने सज्जाद को शांत करने के उद्देश्य से कहा।

"बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप! सज्जाद साहब तो हमेशा आतिश मिज़ाज़ बने रहते हैं।" हमीदा ने भी अख़लाक़ की बात का समर्थन किया। तत्पश्चात चाय का एक घूंट पीकर कप को पुनः मेज़ पर रख दिया। हमीदा हमेशा अपने स्वभाव अनुरूप धीरे-धीरे ही चाय पीती है। चाय का हर नया घूंट, पहले की अपेक्षा कुछ ठंडा।

"देखो सामने बाग़ में कितने सुन्दर फूल खिले हैं! यूँ लगता है जैसे कुदरत ने अरबी में कुरआन की आयतें लिखीं हैं।" अख़लाक़ ने बड़े ही रोमानियत भरे अंदाज़ में कहा। हमीदा और सबीना खिलखिलाकर हंस पड़ी।

"आप दोनों की हंसी, मौसम को और भी खुशनुमा बना रही है। इस मौके पर एक शायर ने क्या खूब कहा है—या तो दीवाना हँसे, या ख़ुदा जिसे तौफीक दे। वरना दुनिया में आके मुस्कुराता कौन है?" अखलाक ने बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में शेर कहा।

"बिलकुल मैं सौ फीसदी आपकी बात से इतफ़ाक रखता हूँ अख़लाक़ भाई जान। ऐसे मौसम में तो कोई दीवाना ही हंस सकता है।" और सज्जाद ने अपनी बात कहकर बड़े ही ज़ोरदार ढंग से ठहाका लगाया।

"आपका मतलब क्या है सज्जाद साहब! हम दोनों पागल हैं क्या?" हमीदा ने अपने और सबीना की तरफ से सवाल पूछा।

"अख़लाक़ साहब के शेर का मतलब तो यही बैठता है।" सज्जाद साहब ने अपनी चाय का कप उठती हुए कहा और मज़े से चाय की चुस्कियां लेने लगे। हमीदा जल-भुन गई.

"अरे भई, तुम इतनी सीरियस क्यों हो गई! सज्जाद साहब तो मज़ाक कर रहे हैं।" अखलाक ने हँसते हुए कहा।

गपशप जारी थी। तभी एक दुर्घटना घट गई. बगल में खेलते हुए बच्चों की बॉल अचानक मेज़ पर आ गिरी। बॉल का-का टप्पा किनारा लेते हुए हमीदा के चाय के कप से टकराया और कप धड़ाम से ज़मीं पर गिरकर फूट गया। चाय के छींटे हमीदा के कपड़ों को ख़राब कर गए. अब हमीदा का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। सारे बच्चे डरके मरे सहमे से खड़े हो गए.

"किसने फेंकी थी बॉल?" हमीदा गुस्से से चिल्लाई.

"फ़ा … फ़ातिमा ने।" कांपते हुए लड़खड़ाते हुए बोला।

"ऐ लड़की इधर आ। ज़्यादा चर्बी चढ़ गई है तुझे। यतीम खाने में आये हुए जुम्मा-जुम्मा दो दिन भी नहीं हुए और ऐसी गुस्ताखी?" हमीदा ने लड़की को पास बुलाया।

जाने भी दो न, बच्ची है। गलती हो गई. " सबीना ने फ़ातिमा का बचाव करते हुए कहा।

"सबीना तू 'आया' है। इंचार्ज बनने की कोशिश मत कर। अगर मैं आज इस बच्ची को कठोर सजा नहीं दूंगी तो ये सारे नए बच्चे मेरे सर पर चढ़ जायेंगे।"हमीदा ने एक ज़ोरदार थप्पड़ नन्ही-सी जान फ़ातिमा के गाल पर जड़ा। बेचारी छिटक कर दो हाथ दूर ज़मीं पर जा गिरी, "सबीना इसे ले जा और अँधेरी कोठरी में डाल दे और खबर दार जो इसे खाना दिया तो।"

अख़लाक़ और सज्जाद, हमीदा के गुस्से को जानते थे। इसलिए खामोश खड़े रहे। हमीदा अक्सर बच्चों को कठोर यातनाएं देती थी। पुराने बच्चे अकेले में उसे लेडी सद्दाम हुसैन कहकर पुकारते थे। अली ने वही अपनी पैन्ट में पेशाब कर दिया क्योंकि उसे वह दिन याद आ गया। जब सजा के तौर पर, उसे जेठ की कठोर धूप में दिनभर खड़ा था। चक्कर खाकर बेहोश होने के बाद उसे होश में आने पर और नार्मल होने में पूरा एक दिन लगा था। अली के बगल में खड़े रहमत की आँखों में 'घंटे भर मुर्गा बनाए रखने का दृश्य ताज़ा हो गया। तीन-चार दिनों तक उसकी जांघों की मासपेशियों में खिंचाव रहा था। जिनमे होने वाली असहनीय पीड़ा को वह अब भी नहीं भुला था। दुबले-पतले आलम को यतीमखाने के दस चक्कर लगाना याद आ गया। बाकी बच्चों को भी समय-समय पर हमीदा द्वारा बरसाये गए डंडे,थप्पड़, घूंसे आने लगे। इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की यातनाओं के किस्से बच्चों ने सुने हुए थे। कैसे अपने विरोधियों को सद्दाम ने बर्बर यातनायें देकर बेरहमी से मौत के घाट उतरता था? कईयों को भूखे शेरों के आगे फैंक देना। चाकुओं से ज़ख़्मी-तड़पते व्यक्ति को नमक लगाकर तड़पाना। अपनी बंदूक और तलवार से एक बार में शत्रुओं का काम ख़त्म कर देना उसके लिए आम बात थी। बच्चे रात को सोते वक़्त हमीदा की तुलना सद्दाम हुसैन से करने लगे थे। गुपचुप रूप से वह उसे लेडी सद्दाम हुसैन कहने से नहीं चूकते थे।

"फ़ातिमा आज लेडी सद्दाम के हाथों मरी जाएगी। बोल लगी शर्त।" बहुत ही धीमे स्वर में अली बुदबुदाया।

"अबे साले मरवाएगा क्या? साली के कान बहुत तेज हैं! सुन लेगी तो तेरा भी जनाज़ा साथ ही उठाना पड़ेगा।" रहमत मियां ने अली को अपने तरीके से टोका।

"साले, जब फ़ातिमा को थप्पड़ पड़ा तो मेरा पेशाब तो पैन्ट में ही निकल गया था।" अली ने अपनी कमीज पैन्ट से बाहर निकाल ली थी ताकि किसी को गीली पैन्ट दिखाई न दे।

"साले, तू तो जन्मजात फट्टू है" रहमत धीमे से हँसते हुए बोला।

"तू कौन-सा शेर दिल है? तुझे भी तो घंटा भर मुर्गा बनाया था। बस हलाल होना बाकी था उस दिन।" अली ने व्यंग्य कसा।

"ये पीछे क्या खुसुर-फुसुर ला रखी है?" अचानक हमीदा फ़ातिमा से ध्यान हटकर और बच्चों की तरफ देखकर बोली।

"कुछ नहीं मैडम जी." रहमत ने बड़ी मुश्किल से अपना थूक हलक से नीचे गटकते हुए कहा।

"तुम सब बच्चे खड़े-खड़े क्या देख रहे हो। जाओ पाक कुरआन का अगला सबक याद करो। जिसे सबक याद नहीं हुआ। उसे खाना भी नहीं मिलेगा। समझे।" शेरनी ने अगला नादरी फ़रमान सुना दिया।

शुक्र है फ़ातिमा को एक थप्पड़ लगाकर सिर्फ़ अँधेरी कोठरी में एक रात भूखे रहने की सजा मिली है। वहाँ उपस्थित लोगों ने मन-ही-मन राहत की साँस ली। आदेशानुसार सबीना फ़ातिमा को जल्द से जल्द घटनास्थल से दूर ले गई. कहीं हमीदा का इरादा बदल न जाये और वह कोई दूसरी कठोर सज़ा बेचारी फ़ातिमा को न दे दे। बाकी बच्चे भी अध्ययन कक्ष की तरफ बिना एक भी क्षण गंवाए बढ़ गए।

अँधेरे कमरे में मात्र एक ज़ीरो वॉट का बल्व अपना धुंधला प्रकाश फैलाये कोठरी में व्याप्त अन्धकार से संघर्ष करता जान पड़ रहा था। एकांत में फ़ातिमा को अजीब-सा डर सताने लगा। वह अपने हाथ-पैरों को एक कोने में सिकोड़कर बैठ गई. अपने माँ-बाप की स्मृति उसके ज़ेहन में ताज़ा थी। उसे जब कभी डर लगता था तो अपनी माँ को कसकर पकड़ लेती थी या उनकी गोद में जाकर चिपक कर सो जाती थी। उसकी माँ उसके सर को सहलाती थी और उसे 'अल्लाह' का नाम लेने को कहती। जिससे उसका डर भाग जाया करता था। 'कहाँ चली गई तुम माँ, लौट आओ. मेरी प्यारी माँ।' कहकर फ़ातिमा की आँखों में अश्कों की दो बूंदें तैर गई.

"अल्लाह-अल्लाह …" कोने में हाथ-पैरों को सिकोड़कर बैठी फ़ातिमा इस तरह अपने भीतर के डर पर विजय पाने का प्रयास करने लगी। न जाने कितनी देर वह यूँ ही बैठी 'अल्लाह-अल्लाह' दोहराती रही। यकायक उसे अहसास हुआ फ्रॉक की जेब में कुछ पड़ा है। हाथ डाला तो उसके हाथ में एक चाकलेट चॉक का टुकड़ा था। उसे दिन की घटनाएँ याद आ गईं।

"शाबास फ़ातिमा, तुमने बहुत अच्छे से अपना सबक याद किया तुम्हारा तरन्नुम अच्छा है। एक बार फिर से सुना दो।" अख़लाक़ सर के कहने पर फ़ातिमा ने फिर से गाया। पूरी क्लास मंत्रमुग्ध होकर सुन रही थी।
"लो यह चॉकलेट।" अख़लाक़ ने इनाम के तौर पर फ़ातिमा को दी। फ़ातिमा अपनी सीट पर जाकर बैठ गई।
"तुम लोग अपना सबक याद करो। मैं अभी आता हूँ।" कहकर अख़लाक़ क्लास से बाहर चले गए.
फ़ातिमा को पीठपर कुछ लगा। उसने मुड़कर देखा तो पता चला। चॉक का एक टुकड़ा रेशमा ने मारा था।
"क्या है री?" फ़ातिमा ने चॉक का वह टुकड़ा अपनी जेब में डालते हुए रेशमा से पूछा।
"अकेले-अकेले ही खाओगी चॉकलेट।" रेशमा ने बड़ी-बड़ी ऑंखें करके सर हिलाते हुए कहा।
"तू भी खा लेना मगर स्कूल ख़त्म होने के बाद।" फ़ातिमा मुस्कुराते हुए बोली, "अभी अपना सबक याद करो।"
अँधेरी कोठरी में वह चॉकलेट का रैपर फाड़कर चॉकलेट खाने लगी। खाने आवाज़ पूरे वातावरण में गूंज रही थी। काफी हद तक अब फ़ातिमा ने अपने डर पर काबू कर लिया था।

उसने चॉक से फर्श पर आड़ी-टेडी रेखाएं खींचनी शुरू की। पहले एक बिल्ली का चित्र बनाया। जो उसे अच्छा नहीं लगा तो मिटा दिया। फिर उसने सोचा क्यों न अपनी माँ की तस्वीर बनाऊँ। चॉक से बानी रेखाओं से वह अपनी माँ की छवि तो नहीं बना पाई. मगर स्त्री की आड़ी-टेडी रेखाओं को मिलाने के बाद अंत में सबसे नीचे उसने अरबी भाषा में 'माँ' लिखा। इससे उसने अपनी माँ के होने के अहसास को चित्र में महसूस किया। चित्र इतना बड़ा था कि गोद वाले हिस्से में सिमट गई.नन्ही बच्ची के लिए यही अहसास काफी था कि वह अपनी स्वर्गवासी माँ की गोद में सोई है।

उसकी नन्ही स्मृतियों में अतीत के कई खुशनुमा पल तैरने लगे। तितलियों के पीछे दौड़ती नन्ही फ़ातिमा। माँ की गोद में खेलती नन्ही फ़ातिमा। पिता के कंधे पर झूलती नन्ही फ़ातिमा। टॉफी, चॉकलेट, बिस्कुट के लिए ज़िद करती नन्ही फ़ातिमा। कभी ढेरों टॉफियों, चॉकलेटों और बिस्कुटों के मध्य गुड्डे-गुड़ियों से खेलती नन्ही फ़ातिमा। तभी अचानक घर के बाहर एक धमाका … खिलौने छोड़कर खिड़की से बाहर झांकती। चौंकती नन्ही फ़ातिमा। बाहर चारों तरफ आग। अफरा-तफरी लोगों के चिल्लाने की आवाज़ें। यहाँ-वहां मरे हुए लोग ही लोग। ज़ख़्मी और तड़पते लोग ही लोग। सड़क पर यत्र-तत्र बिखरा हुआ खून ही खून। मांस के लोथड़े ही लोथड़े। ये सब देखकर गुमसुम बेबस कड़ी नन्ही फ़ातिमा। उस धमाके के बाद बाज़ार से कभी न लौटे अम्मी-अब्बू की राह तकती नन्ही फ़ातिमा। जिन्हे सोचकर,यादकर कई दिनों तक बिलखती नन्ही फ़ातिमा। बाकी अनाथ बच्चों के साथ अपने-अपने अम्मी-अब्बू को तलाशती कई मासूम आँखों के बीच नन्ही फ़ातिमा।

रोज़ की तरह रसोइया महमूद भोजन कक्ष में सब बच्चों की प्लेटों में भोजन परोसने के बाद अपने कर्कश स्वर में बच्चों को भोजन के लिए पुकार रहा था। सब बच्चे आये भी मगर एक ने भी भोजन ग्रहण नहीं किया। न जाने क्या बात थी?

कुछ देर उपरांत हमीदा जब हाथ-मुंह धोकर भोजन के लिए कक्ष में आई. तब भी बच्चों का यही रवैया था। खाने पर रोज़ गिद्ध की तरह टूट पड़ने वाले बच्चे,आज खाने के सामने खड़े होकर भी उसे छू नहीं रहे थे।

"क्या हुआ बच्चों? खाना क्यों नहीं खा रहे आप सब।" हमीदा ने तेज स्वर में पूछा।

"इंचार्ज साहिबा, बच्चों की माँग है। जब तक फ़ातिमा न खायेगी। एक भी बच्चा खाना नहीं खायेगा।" रसोइया महमूद अपने कर्कश स्वर में बोला।

"अख़लाक़ सर नहीं दिखाई दे रहे हैं!" हमीदा ने भोजन की मेज़ पर अपने बगल में कड़ी सबीना से पूछा।

"मैंने कई बार कहा मगर उन्होंने हर बार यह कहकर टा ल दिया कि उन्हें भूख नहीं है।" सबीना ने दुखी स्वर में कहा।

"ठीक है तुम सब खाओ या भूखे मरो। इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे तो ज़ोरों से भूख लगी है। मैं तो खूब जम कर खाऊँगी।" हमीदा ने सामने राखी थाली से रोटी का एक कोर तोड़ते हुए कहा।

"हाँ इंचार्ज साहिबा, एकदम सही बात। इन सबको भूखा मरने दो। सबकी अक्ल ठिकाने आ जाएगी। जब रात को पेट में चूहे दौड़ेंगे।" रसोइये महमूद ने फिर अपने कर्कश स्वर में कहा। वह दाँत फाडे हंस दिया। भद्दी कर्कश हंसी.

"तुमने खाना परोस दिया।" हमीदा ने महमूद से बड़ी सख्ती से पूछा।

"जी." अपनी हंसी पर विराम लगते हुए कर्कश स्वर में महमूद ने जवाब दिया।

"तो फिर यहाँ क्या कर रहे हो? चुपचाप रसोई में जाओ." हमीदा ने महमूद से उसी सख्त लहजे में कहा। वह गर्दन झुकाये रसोई में चला गया। हमीदा ने रोटी का कोर सब्जी में डुबोया मगर उसे वह मुंह तक न ले जा सकी।

"एक बात कहूँ!" सबीना ने हमीदा से अपने मन की बात कहनी चाही।

"क्या?" रोटी का कोर थाली में वापिस रखते हुए हमीदा बोली।

"फ़ातिमा को माफ़ कर दो। उस नन्ही-सी जान को अँधेरी कोठरी में डालकर आपने अच्छा नहीं किया। शायद यही वजह है कि अख़लाक़ सर ने भोजन नहीं किया।" सबीना ने अपनी निजी राय राखी, " आज ही सुबह अख़लाक़ सर ने इनाम के तौर पर फ़ातिमा को चॉकलेट दी थी।

"किसलिए?" हमीदा के चेहरे पर वही सख्ती थी।

"फ़ातिमा ने अपने तरन्नुम से सबका दिल छू लिया था। इतनी काम उम्र में इतने अच्छे ढंग से गाकर उसने अपना सबक सुनाया था कि इनाम स्वरुप उसे सर ने चॉकलेट दी और आज ही आपने सजा के तौर पर उस नन्ही जान को काल कोठरी में डाल दिया है। शायद यही वजह है तमाम बच्चों की तरह अख़लाक़ सर ने भी भोजन नहीं किया है।"

"और सज्जाद।" हमीदा ने पूछा।

"उन्होंने भी न खाने का फैसला किया है। वह अध्ययन कक्ष में र-ज़ोर से कुरआन पढ़ रहे हैं।" सबीना ने भरी मन से कहा। हमीदा जानती है जब सज्जाद का मन भरी पीड़ा और विषाद से भर जाता है, तब वह तेज स्वर में पवित्र कुरआन पढ़कर अपने दर्द को कम करते हैं।

"चलो अंधेरी कोठरी की तरफ फ़ातिमा को ले आएं।" हमीदा ने नरम भाव से कहा। सबीना की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।

अँधेरी कोठरी की लाइट ऑन की तो फ़ातिमा चॉक से बनाई अपनी माँ की छवि के बीचों-बीच बड़े आराम से चैन की नींद सो रही थी। मानो जन्नत में कोई नन्ही परी सोई हो। सबीना और फ़ातिमा को ऐसा महसूस हुआ कि फ़ातिमा वाकई में अपनी मरहूम माँ की गोद में सोई हुई है। हमीदा ने अपने मोबाइल फ़ोन पर वह खूबसूरत नज़ारा कैद कर लिया।

"वो देखो, इन्चार्ज साहिबा, बच्ची ने चित्र के नीचे 'माँ' लिखा है।" सबीना ने अति भावविभोर स्वर में कहा। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये।

"जल्दी दरवाज़ा खोलो सबीना।" हमीदा को अपनी कठोरता का पहली बार अहसास हुआ। उसका ह्रदय अपराध बोध की भावना से घिर गया। फ़ातिमा के प्रति उसके ह्रदय में असीम संवेदना उभर आई.

"अल्लाह! मुझे माफ़ करना।" हमीदा ने अपने गुनाह की माफ़ी मांगते हुए कहा, "आज से मैं किसी भी बच्चे पर सख्ती नहीं करुँगी।" हलचल होने से फ़ातिमा की नींद टूट गई थी। वह उठ खड़ी हुई. सबीना और हमीदा, फ़ातिमा के सामने खड़े थे।

"आ जाओ मेरी बच्ची।" रुंधे हुए गले से भर्राये स्वर में हमीदा ने कहा। उसकी ममतामयी दोनों बाहें फ़ातिमा की तरफ फ़ैल गई थी।

"माँ।" कहकर नन्ही फ़ातिमा हमीदा से लिपट गई. बच्ची भी काफी लम्बे अरसे से माँ के प्यार की भूखी थी।

"हाँ, मेरी बच्ची आज से मैं ही तेरी माँ हूँ। तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी।" बरसों से सोई हुई ममता जगी तो हमीदा के भीतर की लेडी सद्दाम हुसैन अपने आप मर गई. बगल में खड़ी सबीना यह दृश्य देखकर भाव विभोर थी। वह बस रुमाल से अपने आंसुओं को पोंछने में व्यस्त थी।
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पता: 
महावीर उत्तराँचली
दिल्ली
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फिक्र (लघुकथा) - आभा दवे

फिक्र
(लघुकथा)
बेटू इधर आना ,गौरी के पिताजी ने बड़े प्यार से पुकारा ।
जी पिताजी, गौरी अपना काम छोड़कर पिताजी के पास आकर खड़ी हो गई ।
"कुछ चाहिए पिताजी ? माँ बस अभी थोड़ी देर में ही बाजार से आ जाएगी ।" गौरी ने हंस कर कहा ।
पिताजी ने बड़े प्यार से गौरी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा " थोड़े दिनों के बाद तुम्हारी शादी हो जाएगी । तुम अपने ससुराल चली जाओगी । फिर कहां तुम्हें अपने पिताजी से बात करने का मौका मिलेगा ? आज जी भर कर तुम से बात करना चाहता हूं । पिताजी ने उदास होते हुए कहा ।
"नहीं ऐसा नहीं है पिताजी, मैं आप से रोज फोन पर बात किया करुंगी । हां, ये जरूर है कि आपका स्नेह भरा हाथ सिर पर नहीं होगा ?" गौरी ने रुआंसी होकर कहा ।
गौरी ने अपने हाथ में पकड़ा हुए कागज का टुकड़ा पिताजी को देते हुए कहा "मैंने इस में सारी दवाईयों के नाम और उनका समय लिख दिया है । समय से लेते रहिएगा , अभी तक तो मैं देती आ रही हूं । " इसके आगे गौरी कुछ न कह पाई उसका गला रुधं गया ।
पिताजी की आँखों से भी आंसू छलक पड़े । उन्हें लगा था कि गौरी अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त हैं पर ये क्या? उसे तो मेरी ही फिक्र है । कैसे कर पाऊंगा बेटी को बिदा?
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पता:
आभा दवे 
ठाणे (पश्चिम) मुंबई
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पगलिया (कहानी) - लायक राम ‘मानव’

पगलिया
(कहानी)
कितनी तेजी से बदल जाता है सब कुछ। लखनऊ जंक्शन के ठीक सामने टैम्पो स्टैण्ड नम्बर नौ, जहाँ से मैं कभी टैम्पो चलाया करता था। ये अट्ठाइस साल पहले की बात है। इन अट्ठाइस सालों में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। न तो अब मैं ड्राइवर हूँ, न यहाँ अब टैम्पो स्टैण्ड है। पर अभी तक सब कुछ याद है। स्टैण्ड के ठीक नुक्कड़ पर गुलमोहर का कुबड़ा सा पेड़ था। उस पर सिर्फ डेढ़ शाखाएँ थीं, जो गर्मियों में सुर्ख फूलों से लद जाती थी। गुलमोहर के नीचे सीताराम की पान की दुकान थी। कोई गुमटी नहीं, कोई ठेला नहीं, कोई कुर्सी.मेज नहीं, सीताराम जमीन पर ही दुकान लगाता था। पान, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट के साथ भाँग की गोलियाँ भी रखता था वह। वैसे आस-पास गुमटियों से सजी.धजी पान की दुकानें भी थीं, लेकिन स्टैण्ड के सारे ड्राइवर सीताराम के पास ही पान खाते थेे। कौन ड्राइवर कैसा पान खाता है, कौन सी बीड़ी या सिगरेट पीता है, यह सब सीताराम के दिमाग में छपा हुआ था। 


इसी स्टैण्ड पर पंचम अपना ठेला लगाता था। पूड़ी, कचैड़ी, पुलाव और मटर का छोला। मटर का छोला वह बहुत अच्छा बनाता था। उसे भी हर एक की पसंद.नापसंद पता थी। जब कभी मैं पूड़ी माँगता था, तो वह मुझे पूड़ी के साथ सिर्फ छोले देता था। क्योंकि आलू मुझे पसंद नहीं थे। यहीं एक औरत घूमती रहती थी, बल्कि यों कहें कि रहा करती थी। उसका कोई घर नहीं था, कोई अपना नहीं था, कोई ठिकाना नहीं था। उम्र होगी यही कोई तीस साल। रंग तो पता नहीं उसका कैसा होगा, शायद गोरा ही होगा। रंग का पता चले भी कैसे, उसके पूरे शरीर पर मैल की एक मोटी परत जमी थी, काली चीकट। बाल तो जैसे गोंद से चिपकाए गये हों। कपड़ों के बारे में कुछ भी कह पाना मुश्किल था। कभी फटी साड़ी और ब्लाउज, कभी सिर्फ पेटीकोट और लम्बा कुर्ता। सबके सब फटे.चीकट। उसे कभी किसी ने मुँह धोते नहीं देखा, कभी नहाते नहीं देखा। वह नहाती थी तो सिर्फ बरसात के पानी में। देर तक भीगने से मैल फूल जाता था। तब उसे खुजली मच जाती थी। वह तिलमिला.तिलमिला कर अपना बदन खुजलाने लगती थी। लोग समझते थे वह नाच रही है। खूब हँसते थे सब. अरे देखो.देखो पगलिया नाच रही है। हाँ, उसे पगलिया ही कहते थे लोग। 

यह पगलिया न जाने कब से इस स्टैण्ड पर रह रही थी। लाली नाम था उसका। यही नाम गुदा हुआ था उसकी कलाई पर, जो जमें हुए मैल के साथ मिलकर उसी में गुम हो गया था। उसका कोई चूल्हा.चौका नहीं था, कोई बिस्तर नहीं था। कोई तथाकथित धर्म नहीं था, कोई जाति नहीं थी। कोई अपनी पसंद नहीं थी। कोई हमदर्द नहीं था। वह सबके लिए बस पगलिया थी, सिर्फ पगलिया। उसकी पूरी दुनिया उसके अंदर थी। वह कभी-कभी गुमसुम गुलमोहर के नीचे बैठकर रोती रहती। कभी खूब खिलखिला.खिलखिला कर हँसती रहती, और कभी घण्टों नाचती रहती। नाचते समय वह गाना भी गाती, जिसका मतलब सिर्फ वही समझती। नाचते समय बीघे भर में फैले स्टैण्ड की पूरी जगह भी उसके लिए कम पड़ती। 

वह हँसती थी, तो लोग हँसते थे। वह रोती थी, तो भी लोग हँसते थे। जब वह नाचती गाती थी, तो भी लोग हँसते थे। वह क्यों हँसती थी, क्यों रोती थी, क्यों नाचती.गाती थी, इसके बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा। सोचने की फुर्सत भी किसे थी। 

स्टैण्ड पर 15-20 टैम्पों लगभग हमेशा खड़े रहते थे। दो-दो, चार-चार के गुट में बैठे हुए ड्राइवर कभी ताश खेल रहे होते, कभी गप्पें लड़ा रहे होते और कभी अश्लील चुटकुले कह.सुन रहे होते। शायद ही कोई ड्राइवर ऐसा हो, जिसकी कोई बात बिना गाली के निकलती हो। ऐसी-ऐसी गालियाँ, जो उनके अलावा सिर्फ पुलिसवालों को पता हैं। आम लोगों के लिए ये गालियाँ उनकी हैसियत से बाहर हैं। गालियाँ तो पगलिया भी देती थी, लेकिन कभी.कभी। वह ड्राइवरों की तरह हर बात में गाली नहीं देती थी। जब कभी आक्रोश में होती या कभी किसी भले मानस की कोई चटपटी बात उसे अटपटी लग जाती अथवा कोई सामान्य सी हरकत उसे बेहूदी लग जाती, तभी वह गालियों का इस्तेमाल करती। उसकी गालियों का कोश भी बहुत छोटा था। आम लोगों से भी छोटा। वह जिस अंग से पैदा हुई थी, उसी के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग गालियों में करती थी या फिर ड्राइवरों को गाली देते समय कुछ खास विशेषणों से उन्हें नवाजती जैसे. कमीना, हरामी, गांडू, हिजड़ा, सुअर, भडुहा, चोट्टा और लुच्चा आदि। 

पगलिया आम लोगों और ड्राइवरों से कई मामलों में बिल्कुल अलग थी। मसलन वह कभी बेवजह किसी को परेशान नहीं करती, किसी की बुराई नहीं करती, अपने स्वार्थ के लिए किसी का नुकसान नहीं करती, किसी का मजाक नहीं उड़ाती, किसी से ईर्ष्या, द्वेष नहीं रखती, कभी झूठ नहीं बोलती, छल-कपट नहीं करती, किसी को दुःख नहीं पहुँचाती और न ही किसी को अपना दुखड़ा सुनाती। उसकी कोई माँग नहीं थी, किसी से कोई शिकायत नहीं थी, कोई हवस नहीं थी, मन में लालच नहीं था, भय नहीं था, भविष्य की चिन्ता नहीं थी, किसी से मोह नहीं था। शायद इसीलिए लोग उसे पागल कहते थे। 

ड्राइवरों की दुनिया भी बिल्कुल अलग थी। कुछ अलग तरह की बोली, भाषा, व्यवहार, सोच और शब्दावली उन्हें एक अलग पहचान देती थी। इसी दुनिया में एक ड्राइवर था- काने। उसकी एक आँख पत्थर की थी। शायद इसीलिए उसका नाम काने पड़ गया होगा। काने की ड्राइवर बिरादरी में एक खास हैसियत थी। पगलिया द्वारा दिए जाने वाले सारे विशेषण उसके लिए कम पड़ते थे। कोई ऐसा नशा नहीं था, जो उसकी पहुँच से बाहर हो। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, गाँजा, भाँग, अफीम और दारू सभी का इस्तेमाल करता था वह। झूठ, फरेब, छल-कपट और मक्कारी जैसे सारे गुण थे उसमें। बहुत ही निष्ठुर और झगड़ालू था वह। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता, जब उससे किसी से झगड़ा या मारपीट न होती हो। उसकी हर बात गाली से शुरू होती और गाली से ही खतम होती। वह किसी की तारीफ भी करता तो गालियों के साथ। वह खुद को भी गालियाँ देता। कुछ ही ड्राइवर थे, जो उसके पास उठते-बैठते थे, उससे बातें करते थे। उसके साथ नशा-पत्ती करते थे। 

स्टैण्ड के एक कोने पर मँगतों के दो डेरे थे। वे जाने कब से वहीं बरसाती तानकर रह रहे थे। एक डेरे में चार परानी थे। एक आदमी, जिसका नाम था- लंगड़। उम्र होगी यही कोई 50 साल। वह कहीं से लँगड़ा नहीं था। लेकिन दिन के समय वह बैसाखी लेकर स्टेशन के सामने खड़ा होता था। आने-जाने वाले मुसाफिरों से पैसा माँगता था। पूरे दिन लँगड़ा रहने के बाद वह शाम को बिल्कुल चंगा हो जाता था। अपने डेरे पर दारू पीकर नाचता था, गालियाँ देता था और मुर्गा नोचता था। 

लंगड़ की एक औरत थी और दो बच्चे। बच्चे भी अलग-अलग जगहों पर भीख माँगते और शाम को लंगड़ के साथ दो-दो घूँट लगाते। लंगड़ की औरत को लोग नंगी कहा करते थे। पता नहीं उसका यह नाम कब और कैसे पड़ गया था। कुछ भी हो, नंगी के नैन-नक्श अच्छे थे। खूब बन-ठनकर रहा करती थी। देखने से तो वह बहुत भोली-भाली, सुसभ्य और लाजवंती थी, लेकिन वास्तव में ऐसी थी नहीं। 

दूसरे डेरे में गामा का परिवार रहता था। गामा बस नाम का गामा था। कद-काठी ऐसी कि फूँक मारो तो उड़ जाए। उसके साथ उसकी माँ भी थी। सत्तर बरस की बुढ़िया को लोग रंगीली कहकर बुलाते थे। गामा की जोरू भी थी। चमेली नाम था उसका। चमेली तो बस चमेली ही थी। गेहुँआ रंग, तीखे नैन-नक्श, गठीला बदन और बलखाती पतली कमर। बस जबान की जरा तीखी थी। छूटते ही गरियाने लगती। ताज्जुब की बात तो यह थी कि गालियाँ खाकर भी लोगों को गुस्सा नहीं आता था। गामा और रंगीली सुबह-सुबह भीख माँगने निकल जाते। चमेली अपने चेहरे पर क्रीम-पाउडर चुपड़ कर, बालों में सफेद फूलों का गजरा लगाकर ड्राइवरों के साथ बैठकर ताश खेलती, गप्पें लड़ाती, कभी इस टैम्पो पर, कभी उस टैम्पो पर। 

ये दोनों डेरे टैम्पो स्टैण्ड के लिए खास महत्त्व रखते थे। कुछ को छोड़कर बाकी ड्राइवर रात के समय और कभी-कभी दिन के समय भी इन डेरों पर चमेली या नंगी का सानिध्य प्राप्त करते। अपनी-अपनी सुविधा और पानी के अनुसार कुछ पुलिस वाले भी इन डेरों में नाइट-ड्यूटी बजाते। रात के लिए दिन में एडवांस बुकिंग हो जाया करती थी। दिन के लिए एडवांस बुकिंग की जरूरत नहीं थी। वैसे भी शरीफ लोग दिन के समय परहेज करते हैं। आखिर मर्यादा भी कोई चीज है। मँगतों के डेरे में कोई घुसते हुए देख लेगा तो क्या कहेगा। हाँ, काने की बात और थी। उस पर किसी मर्यादा का पहरा नहीं था। गामा, लंगड़, चमेली, रंगीली और नंगी सबसे पटती थी उसकी। पुलिस वालों से भी खासा मेल-जोल था। सब पैसे का खेल था। जैसी फीस, वैसी सुविधा। देशी.विलायती शराब, मुर्गा, बिरयानी, शिक्षाप्रद उत्प्रेरक रंगीन एलबम आदि सब कुछ। कुछ ज्यादा फीस देकर पूरे शरीर की तेल-मालिश की भी सुविधा थी। बाहर लंगड़ और गामा या रंगीली का पहरा रहता था। कोई बिना इजाजत अंदर नहीं जा सकता था। जबरदस्ती करने पर पुलिस आ धमकती थी। कानून व्यवस्था बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त थी। 

पगलिया के नजदीक सिर्फ दो ही लोग ज्यादा थे। एक रंगीली, दूसरा काने। रंगीली उसकी हमदर्द थी। फटे-पुराने कपड़े वही जुटाती थी उसके लिए। अपने डेरे के पास ही बोरियाँ बिछा रखी थीं, जिन पर पगलिया अक्सर सोया करती थी। जाड़े के दिनों में ऊपर से दो बोरियाँ और डाल देती थी। जब लोग उसे तंग करते तो रंगीली उन पर नाराज होती। पगलिया जाकर उन्हीं बोरियों में दुबक जाती। 

पगलिया को तंग करने वालों में काने सबसे आगे था। कभी.कभी तो वह उसे इतना तंग करता कि वह चीख-चीखकर गालियाँ बकने लगती या फिर अपनी छाती पीट-पीटकर रोने लगती। इसी में काने को मजा आता। दूसरे ड्राइवर उसे रोकना चाहते तो वह उनसे लड़ बैठता। चीख-चीखकर वह भी गालियाँ बकने लगता। इसीलिए उससे कोई उलझना नहीं चाहता। काने सिर्फ उसे तंग ही नहीं करता, बल्कि कभी-कभी उसके साथ बैठकर बातें भी करता। उसकी बातें तो वही जाने। दूसरा कोई न उसके पास जाता, न उसकी बातें सुनने की कोशिश ही करता। 

पगलिया थी तो बहुत गंदी। उसके बदन से तीखी दुर्गन्ध भी आती। लेकिन मरियल और बीमार नहीं थी। उसे कभी किसी नेे भूख-प्यास और बीमारी से घिसटते हुए नहीं देखा। पंचम का ठेला उसकी सबसे बड़ी रसोई थी। लोग पूड़ी-सब्जी खाकर दोने एक ड्रम में डालते थे। पगलिया उसी ड्रम से दोने निकालती। उनमें बची हुई सब्जी और पूड़ियों के टुकड़ों के चटखारे लेती। वहाँ दो-तीन कुत्ते भी थे, जो उसके चटखारों में खलल डालते। अक्सर पगलिया और उन कुत्तों के बीच झगड़ा हो जाया करता। आखिर में जीत पगलिया की होती। वह उन्हें गुम्में मार-मारकर खदेड़ देती। कभी-कभी जब उसका पेट नहीं भरता तो वह जूठा दोना लेकर पंचम के सामने खड़ी हो जाती। पंचम भी कभी इंकार नहीं करता। सब्जी और पुलाव से उसका दोना भर देता। ऊपर से दो पूड़ी भी डाल देता। 

वहाँ कई फलों के ठेले भी लगते थे। ठेले वाले दुकानदार सड़े-गले केले, संतरे, सेब आदि फेंक दिया करते थे। पगलिया उनका भी स्वाद लेती। उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अच्छी रही होगी। कद काठी भी मजबूत थी। पूरी बरसात वह भीगती, पूरे जाड़े भर ठंड से ठिठुरती, गर्मियों में लू के थपेड़े सहती, फिर भी शरीर से कभी शिथिल नहीं हुई। तभी तो उस दिन सभी लोग चैंक पड़े, जब वह एकाएक बीमार पड़ गई। 

उस दिन वह नाच रही थी। नाचना-गाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। घण्टों बिना थके नाचती रहती। लेकिन उस दिन तो 10 मिनट भी नहीं नाच पाई थी कि कटे रूख सी गिर पड़ी। सभी ड्राइवर दौड़ पड़े। उनमें मैं भी था। वह बिल्कुल निश्चेष्ट पड़ी थी, जैसे सो रही हो। लोग अपना-अपना अनुमान लगा रहे थे- ''अरे, ये तो चली गई। नहीं-नहीं, ये बेहोश हो गई है। अरे मुझे तो लगता है, अब इसका आखिरी समय आ गया है। नहीं बे, नया है क्या, ये तो मर चुकी है |''

तभी जैसे बिस्फोट हो गया। अब तक चुपचाप खड़ा हुआ काने एकाएक चीख पड़ा- ''अबे चुप मादर ....... अंधा है क्या ? देखता नहीं, दोनों छातियाँ उठ-बैठ रही हैं। यह जिंदा है |'' उसके बाद वह बैठ गया और उसकी दोनों छातियों पर हाथ रखकर जैसे उसके जिंदा होने के सबूत ढूँढने लगा। तभी भीड़ को चीरते हुए रंगीली आ पहुँची। देखते ही फूट पड़ी- ''अरे ई का कर रहा है हरमिया। हट बेशरम ! का हुआ पगलिया के। कउन सुअर ने मारा है। काने तू .....'' 

काने उठकर खड़ा हो गया. ''अरे चुप ससुरी ! बंदकर अपनी चाँय-चाँय। इसे किसी ने नहीं मारा। ई ससुरी नाचत-नाचत खुदै गिर परी। बिना जाने-समझे गदहिया की तरह गला फाड़े जा रही है।''

रंगीली नीचे बैठ गई। पगलिया का सिर हिला-डुलाकर देखा। वह सचमुच बेहोश पड़ी थी। एक पल को वह सोचती रही, क्या करे, क्या न करे। फिर काने से बोली- ''अब चल, उठा। हाथ लगा जरा।'' काने ने उसे एक तरफ से उठा लिया। दूसरी तरफ से रंगीली ने टाँग लिया। उसे ले जाकर बोरियों पर लिटा दिया। भीड़ वहाँ भी पहुँच गई। लेकिन रंगीली ने किसी को फटकने नहीं दिया। सबकी माँ-बहिन का गुणगान करते हुए भगा दिया। वहाँ सिर्फ काने बचा और रंगीली। उसके बाद पता नहीं क्या हुआ। शाम हो गई थी। मेरा नम्बर भी आ गया था। टैम्पो में सवारियाँ भरकर मैं चला गया। दूसरे दिन मुझे गाँव जाना था। परिवार में ही एक शादी थी। उसमें कई दिन लग गए। 

मैं एक हफ्ते बाद लौटकर आया। गाड़ी नम्बर पर लगाने के बाद तुरन्त दिमाग में सवाल उठा- क्या हुआ होगा पगलिया का ? गुलमोहर के नीचे नजर दौड़ाई। वह वहाँ नहीं थी। पंचम के ठेले के आस-पास भी नहीं थी। रंगीली के डेरे की तरफ देखा। वह वहीं बोरियों पर चुपचाप बैठी आसमान को घूर रही थी। चलो जिंदा तो है, लेकिन अचानक उसे कौन सी बीमारी हो गई ? किससे पूछूँ !

तभी पीछे से किसी ने एक धौल जमा दी। घूमकर देखा, विनोद था। खड़ा मुस्कुरा रहा था- ''अरे बहुत दिन लगा दिए गाँव में। क्या बात है ? तुम खड़े.खड़े कुछ सोच रहे थे ?''
'' पगलिया की बीमारी का कुछ पता चला ?''
''हाँ, बहुत गम्भीर बीमारी है। साला हरामी, उल्लू का पट्ठा, सुअर......''
''अरे यार, ये किसे गालियाँ दे रहे हो ?'' मैंने उसे टोंकते हुए पूछा- ''क्या हो गया ? मैंने तो बीमारी के बारे में पूछा था। तुम गालियाँ देने लगे।''
वह शांत और गम्भीर हो गया था- ''माफ़ करना यार, ये गालियाँ तुम्हें नहीं दे रहा था। वह पगलिया के बारे में तुम पूछ रहे थे न। उसे किसी सुअर ने गाभिन कर दिया।'' 
''क्या !'' मैं एकदम अवाक् रह गया। बस विनोद को घूरे जा रहा था। वह फिर बोला- ''तुम्हें विश्वास नहीं होगा। जाकर रंगीली से पूछ लो। उसी ने दूसरे दिन इस बात का खुलासा किया था |''

विनोद की बात सच्ची थी। पगलिया पेट से थी। पगलिया जैसी औरत, जिसे कोई छूना तक पसंद नहीं करता था, जिसकी दुर्गन्ध नाक में घुसकर घिन पैदा करती थी, उसके साथ... छि-छि। जाने वह कौन रहा होगा, जिसने ऐसा घिनौना कुकृत्य किया। कोई यह अपराध स्वीकार करने को तैयार नहीं था। 

धीरे-धीरे समय बीतने लगा। पगलिया अब पहले की तरह हँसती नहीं थी, रोती नहीं थी, नाचती-गाती नहीं थी। बस गुमसुम बैठी रहती थी। अब वह गालियाँ भी नहीं देेती थी। उसके अंदर आये ये परिवर्तन आश्चर्यजनक थे। रंगीली अब उसका ज्यादा ध्यान रखने लगी थी। जब तक वह डेरे पर रहती, पगलिया के पास किसी को आने नहीं देती। इस बात को लेकर कई बार काने और रंगीली में गाली-गलौज हो जाती। काने ने पगलिया को परेशान करना अभी बंद नहीं किया था। जब भी मौका मिलता, वह उसे परेशान करता, उसे नाचने-गाने के लिए कहता, लेकिन वह तो नाचना-गाना जैसे भूल ही गई थी। हाँ, ज्यादा परेशान करने पर काने को दो-चार गालियाँ जरूर देती। उसके बाद बैठकर चुपचाप सिसकियाँ लेती रहती। अब वह पहले की तरह चिल्लाकर छाती पीट-पीटकर नहीं रोती। 

पगलिया के बारे में चिन्ता सभी को होने लगी थी। जिसे अपने तन, मन, कपड़े-लत्ते और भूख-प्यास का होश नहीं है, वह बच्चे को कैसे संभालेगी ? कैसे कर पायेगी उसकी परवरिश ? थोड़ी बहुत उम्मीद थी तो रंगीली से। वह बच्चे के पालन-पोषण में मदद कर सकती है, लेकिन कितनी ! जिसने पगलिया को इस हालत में पहुँचाया, क्या वह भी कुछ मदद करेगा ! शायद नहीं। जो यह कुकृत्य स्वीकार करने को तैयार नहीं, वह भला क्या मदद करेगा। ऐसा करने से उसकी शराफत पर उँगलियाँ उठाये जाने का भय था। घूम-फिरकर सभी का शक काने पर जाता था। कुछ को तो पूरा विश्वास भी था। एक वही था, जो पगलिया के पास उठता-बैठता था। कभी वह उसके साथ ठुमके भी लगा लेता था। उससे बातें करता था। उसे छूने में भी परहेज नहीं था। यह जरूर उसी की हरकत होगी, लेकिन कहे कौन ? उससे झगड़ा कौन मोल ले ? पुलिस भी तो कुछ नहीं करेगी। ये सब बातें थीं, जो अक्सर ड्राइवरों के बीच होती रहतीं। 

समय तो अपनी गति से चलता रहता है। धीरे-धीरे पगलिया का पेट भी पूरा हो गया और एक दिन सुबह सूरज की पहली किरन के साथ बच्चे की किलकारी फूट पड़ी। पूरे स्टैण्ड पर खबर फैल गई। पगलिया ने एक बच्चे को जन्म दिया था। उसकी छातियों में दूध भी उतर आया था। सिर्फ दूध ही नहीं, उसके साथ दिल में ममता का सागर भी उमड़ पड़ा था। उसके होठों पर मुस्कान खिल उठी थी। सब कुछ आशा के विपरीत था। अपने तन-मन का होश न रख पाने वाली पगलिया अपने बच्चे से इतना मोह करेगी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। वह हर समय बच्चे को गोद में रखती। किसी को अपने पास फटकने तक न देती। कोई बच्चे को देखने की कोशिश करता, तो वह बच्चे को और ज्यादा सीने से चिपका लेती। कोई बच्चे की तरफ हाथ बढ़ाता, तो वह चीखती-चिल्लाती। 

केवल एक रंगीली ही थी, जो बच्चे को अपनी गोद में ले सकती थी। काने भी कई बार बच्चे को लेने की कोशिश करता। लेकिन रंगीली उसे डंडा लेकर दौड़ा लेती। गालियों की बौछार कर देती। फिर भी काने को मौका मिल ही जाता। रंगीली हर समय तो डेरे पर रहती नहीं थी। मौका मिलते ही वह बच्चे को छीन कर भाग जाता। पगलिया उसे दौड़ाती, चीखती-चिल्लाती, गालियाँ देती। जब नहीं पाती तो वहीं बैठ जाती और छाती पीट-पीटकर रोने लगती। उस समय उस पर सभी को तरस आता। काफी देर बाद काने बच्चे को लेकर लौटता। पगलिया बच्चा पाते ही उसे बेतहाशा चूमने लगती। साथ-साथ रोती भी जाती। फिर उसे सीने से चिपका कर भाग जाती। 

सभी को आश्चर्य था पगलिया की ममता पर, कुदरत के करिश्मे पर। अक्सर यह सोचना पड़ जाता, यह औरत क्या सचमुच पागल है ? क्या इसे माँ बनाने वाला व्यक्ति दिमागी रूप से स्वस्थ था ? पता नहीं, जो भी हो, लेकिन इस तरह के सवाल रोज उठते, जिनका कोई जवाब नहीं मिल पाता। इसी तरह पगलिया की चीख-पुकार, रोने-चिल्लाने और गालियों के साथ बेपनाह ममता के बीच बच्चा पल रहा था। समय अपनी गति से भाग रहा था। 

इतवार के दिन स्टैण्ड पर ज्यादातर सन्नाटा ही रहता। एक-एक गाड़ी का नम्बर कई-कई घंटों में आता। उस दिन भी इतवार ही था। रंगीली बैठी डेरे के बाहर खाना खा रही थी। पगलिया बच्चे को दूध पिला रही थी। तभी काने आ पहुँचा। पगलिया बच्चे को लेकर दूसरी ओर घूम गयी। रंगीली ने काने को रोकने की कोशिश की। लेकिन काने नहीं माना। उसने पगलिया की गोद से बच्चे को छीन लिया। पगलिया चिल्लाने लगी। रंगीली मुँह का कौर छोड़ती हुई बोली- ''अरे हरमिया काहे परेशान करता है पागल औरत को ? दे-दे बच्चा।'' 

काने हँस पड़ा- ''अरे चुपचाप खाना खा बुढ़िया। बिना मतलब टांग मत अड़ाया कर। मैं बच्चे को कोई विदेश नहीं ले जा रहा हूँ। इसे गाड़ी चलाना सिखाऊँगा। लल्लनटाप ड्राइवर बनाऊँगा। अभी इसे घुमाकर लाता हूँ।''

काने बच्चे को लेकर चल पड़ा। पीछे से पगलिया भी चीखते-चिल्लाते, गालियाँ देते हुए दौड़ पड़ी। काने भागकर गुलमोहर के नीचे आ गया। पगलिया भी आ पहुँची। लेकिन वह बच्चे तक पहुँच पाती, इसके पहले ही काने फिर भाग पड़ा। वह बच्चे को लेकर सड़क के उस पार निकल गया। पगलिया एक पल अवाक् रह गई। वह सिसक पड़ी। ऐसा पहली बार हुआ था, जब काने बच्चे को लेकर सड़क के उस पार भागा था। पगलिया को लगा कि उसका बच्चा अब नहीं मिलेगा। उसकी ममता भड़क उठी। वह आँखें फाड़कर चिल्लाते हुए बेतहाशा काने की तरफ दौड़ी। तभी तेजी से आती हुई एक सिटी बस के ब्रेक चीख पड़े. चें....ए ! सब कुछ पलक झपकते हो गया। पगलिया बस के नीचे आ गयी और उसकी चीख-पुकार हमेशा के लिए बंद हो गयी। 

सभी ड्राइवर दौड़ पड़े। रंगीली भी थाली छोड़कर दौड़ी। काने सड़क के उस पार था। बिलकुल अवाक्, निस्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़। उसकी आँखें फैल गई थीं। वह धीरे.धीरे भारी कदमों से इस पार आया। एकटक पगलिया की छत-विछत लाश को देखने लगा, जिसकी आँखें अभी तक खुली हुई थीं। वैसे ही, जैसे वह आँखें फाड़कर दौड़ी थी। बच्चा गला फाड़कर चिल्ला पड़ा। वहाँ खड़े हर ड्राइवर की आँखें गीली थीं। कोई क्या करे, क्या कहे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रंगीली की आँखें सूखी थी। उनमें गुस्सा था, नफरत थी, शायद वहाँ खड़े हर शख्स के प्रति, काने के प्रति, या फिर बस ड्राइवर के प्रति। कुछ पल बाद उसकी भी आँखें बरस पड़ीं। उसने लपक कर काने की गोद से बच्चे को छीन लिया और अपने सीने से चिपका कर फूट-फूटकर रो पड़ी। उस समय काने के अंदर बैठा जानवर भी सिसक पड़ा। उसकी आँख में लगा पत्थर पिघल कर बहने लगा। 
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पता:
लायक राम 'मानव'
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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नन्हीं सी कली मैं.. (कविता) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

नन्हीं सी कली मैं..
(कविता)
एक दिन की नन्ही सी कली मैं ,
शीत में क्यों मुरझा सी रही ।
मात-पिता के होते हुए क्यों ,
मैं अनाथ कहला भी रही।

शीत से कम्पित रही रात भर,
किसने , क्यों मुझको फेंका।
एक दिवस का दोष था कैसा ,
जो उसने मुझमें देखा ।

माँ की ममता क्यों न जागी,
दूध न क्यों स्तन झरा ।
बस देकर के जन्म मुझे क्यों ,
मन से मोह का मान गिरा ।

कोस रही हूँ अपने जन्म को,
कचरे में कचरा होकर।
मुझको तो अपना न सका जो ,
क्या पाए मुझको खोकर।

दोष है मेरा या भगवन का ,
जिसने मुझे बनाया है ।
या बुद्धि स्तर में, जो सबसे ऊपर,
मानव नाम कहाया है।

मनुष्य कोख से जन्म मैं लेकर ,
कोख में ही क्यों जिंदा हूँ।
मातृ शक्ति के नाम को पाकर,
फिर क्यों मैं शर्मिंदा हूँ।

मां, पत्नी और बहिन रूप तो,
नारी पवित्र महान बनी ।
बेटी रूप जो पहली सीढ़ी ,
क्यों जग-पाप समान बनी।

बेटी ही जब जग न होगी ,
और रूप सब शून्य समान।
बेटी पा जो धन्य कहलाए ,
बस दुनियां में वो ही महान।
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पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

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सृजन रचानाएँ

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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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