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Friday 15 November 2019

वे दिन (कविता) - मोनिका शर्मा

सृजन शिल्पी पुरस्कार से सम्मानित रचना !!!!

वे दिन
(कविता)
वे दिन बहुत याद आया करते हैं
जब हम जेठ की दुपहरी में
आम के पेड़ से अमिया चुराकर खाया करते थे
वे दिन बहुत याद आते हैं

जब एक हाथ में चानी
और दूसरे में नींबू का अचार होता था
और डर के मारे पलंग के नीचे
छुप कर खूब खाया जाता था
वे दिन बहुत याद आते हैं
वे दिन जिसमें मेरा बचपन,
मेरी आंखों के सामने नाचता है
यूं ही बैठे-बैठे गुड्डे -गुड़िया का
ब्याह रचा दिया जाता था
उसमें भी हलवा पुरी का 
धमाल मचाया जाता था
वे दिन बहुत याद आते हैं

खरबूजे का बीज गलती से
यदि पेट में चला जाता,
तो दूसरे ही क्षण कानों से 
टहनियां निकलने की कल्पना से ,
दिल दहल जाता था
यह सोच, अभी भी याद आती है

इमली खाकर टेढ़े मेढ़े मुंह बनाना
कासार खाकर फूफा जी बोल कर दिखाना
वह शैतानियां बहुत याद आती हैं
तब महंगे खिलौने की जरूरत नहीं होती थी
स्टापू और पिट्ठू ग्राम में ही मजा आता था
फटी जुराब में भी खूब आनंद आता था
शाम को गलियों में क्रिकेट का धमाल मचाना
पड़ोसी की खिड़की का शीशा टूट जाता तो
वहां से झट पट छूमंतर हो जाना
वो टूटा शीशा अभी भी याद आता है

अब न वो गलियां है और ना ही वो खेल
ना वह दोस्त हैं और न ही वो मेल
व्हाट्सएप और फेसबुक में ही 
हाल-चाल पूछ लिया जाता हैं ,
मगर
दिल के किसी कोने में 
वो बचपन अभी भी बहुत याद आता है।
-०-
कासार (आटे - शक्कर का मिश्रण) 
-०-
पता:
मोनिका शर्मा
गुरूग्राम (हरियाणा)
-०-

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हे पवन (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


हे पवन
(कविता)
नज़र दे रहे तुझे,
मैं हँसी, हँसी
प्यार से, प्यार से
मैं हँसी, हँसी ...
घर के सामने रहे,
तेरी ओर देखते
प्यार से, प्यार से
मैं हँसी हँसी ...

प्रभात में
तेरा चेहरा
भीग गया था ..
दोपहर में
पागल था ये
मेरी आँखें जला दी ।।

हे , पवन !
ईर्ष्या है क्या ?
क्या यह एक मज़ाक है ?
चेहरे छ: हैं
बारह नेत्र हैं
क्या मेरा रूप है ये ?
-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
18, ग्रीन्फील्ड एटाविल, कलुतर, श्रीलंका

-०-

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दुलारे भारत माँ के (कविता) - डॉ. श्रीमती रश्मि नायर

दुलारे भारत माँ के
(गीत / कविता)
छोटे-छोटे बच्चे,दुलारे भारत माँ के
दिलके ये सच्चे है ,इरादोंके भी पक्के
ये नन्हे सिपाही ,ये नन्हें सिपाही (ओ भारत माँ)..।।धृ।।

करते है सलाम तुझेओ भारत माँता
कर देंगे कुर्बान अपना जीवन सारा
अपना है अब बस यही इरादा
जीवनभर गाते रहे आजादीका तराना (ओ भारत माँ)...

छोटे-छोटे बच्चे,दुलारे भारत माँके
दिलके सच्चे और इरादोके पक्के
है ये नन्हे सिपाही (ओ भारत माँ)

करने है सपने पुरे बापूजीके आराम है हराम
अब हमारे लिए जय जवान और जय जिसान
गर मिल जाये तो ,कौनसी वो मंजिल है
जो ना मिले पाये,जनम सिध्दअधिकार हमारा
आजादी की रक्षा करना (ओ भारत माँ)...

ये है नन्हें सिपाही (2)
छोटे-छोटे बच्चे, दुलारे भारत माँ के दिलके
सच्चे और इरादोंके पक्के है ये नन्हे सिपाही
-०-
पता:
श्रीमती रश्मि नायर
ठाणे (महाराष्ट्र)

-०-

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प्रदूषण का मातम मना रहे (कविता) - अर्विना

प्रदूषण का मातम मना रहे
(कविता)

हर तरफ धुंध है धुआं है।
हर एक का दम समस्या से फूला हुआ है।
इस बात पर मीटिंग बैठा रहे है।
प्रदूषण की इंतहा हो गई ।
रही सही जिंदगी फना हो गई।
सरकारी तंत्र अपना कर्तव्य निभा रहे है।
प्रदूषण कितना है प्रतिशत बता रहे।
कौन कितना धुआं पी रहा ।
सिगरेट में गिन के बता रहे ।
कहते है विकास की रफ्तार बढ़ रही।
मोत की नई परिभाषा गढ़ रही ।
रोकना है प्रदूषण की गति ।
उपयोग में लाओ अपनी मति।
सब के सब प्लास्टिक में खा रहे ।
अवशेषों को चारों ओर फैला रहे।
प्रदूषण कम करो का नारा लगा रहे।
क्यों नहीं सीमित करते उपयोग।
मत करो संसाधनों का दुरुपयोग।
ये धूल उड़ती हुई गाड़ियां ।
फेफड़ों की बढ़ती बीमारियाँ।
आँगन से तुलसी मिटाते जारहे।
जूही चंपा की जगह केक्टस लगा रहे।
पटाखों के नाम प्रदूषण लगा रहे ।
खुद खेत में पराली जला रहे।
जहरीली हवा खुद पी रहे ।
दूसरों को पीने को मजबूर कर रहे ।
सिर पर हाथ धरे मुंह पर मास्क लगा रहे।
सारे के सारे प्रदूषण का मातम मना रहै
-०-
अर्विना
प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)

-०-

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बारिश (लघुकथा) - संतोष श्रीवास्तव

बारिश
(लघुकथा)
मुंबई की धुआंधार बारिश की चपेट में था महानगर ।निचले भागों में तो घुटने घुटने पानी भर चुका था। विवेकी बाबू का चार मंजिल की बिल्डिंग में पहली मंजिल पर टेरेस फ्लेट था। टेरेस से पानी सीधा कमरों में घुसने लगा ।थोड़ी ही देर में हल्का फुल्का सामान कमरों में भरे पानी में तैरने लगा। घर के सभी प्राणी पानी उलीचने में लग गए। पर वे जितना उलीचते पानी लौट लौट कर उतना ही भरता जाता।
" अरे, फोन करो घसीटाराम को। समझ में नहीं आ रहा पानी लौट लौट कर क्यों आ रहा है।"
आवाज मोहिनी की थी ।जो घसीटाराम मेहतर को घर की दहलीज तक पर खड़े नहीं होने देती थीं। वह दरवाजे पर आ भी जाता तो बाल्टी भर पानी डाल जगह पवित्र करती थीं। कभी कंपाउंड की सफाई कर उनके दरवाजे पीने को पानी या चाय मांगता तो पैसे टिका देतीं।
" जा होटल में पी ले जाकर ।"
उसके जाते ही दरवाजे पर अगरबत्ती लगा देतीं। कमरों में अगरबत्ती की खुशबू भरने लगती।
"मुआ ,नालियां साफ कर खुद भी नाली जैसी बदबू छोड़ता है। गांधी जी ने वैष्णव जन कहकर इन्हें सर चढ़ा लिया। वरना क्या मजाल कि ये ड्योढ़ी चढ़ें। "
मगर आज ........
विवेकी बाबू ने फोन लगाकर उसे बुलाया ।इतनी भारी बारिश में भी वह दौड़ता हुआ आया। घुटनों तक पैंट चढ़ाए, तवे जैसा काला, पीली आँखों वाला घसीटाराम दरवाजे से कमरों में भरे पानी में पैर डुबोता रसोई घर से होता हुआ टेरेस तक गया। घुटने के बल बैठ कमीज की बाँहे चढ़ाईं और नाली में हाथ डालकर ढेर सारा कचरा निकाला । नाली खुलते ही पानी तेजी से बह चला। कमरों में रह गई कीचड़ जिसे साफ कर पूरे घर को कपड़े से पोछ कर सुखा डाला । घर चमक उठा। घसीटाराम विवेकी बाबू के दिए हुए मेहनताने के रूपए गिन ही रहा था कि मोहनी की रसोई घर से आवाज आई 
"सुनते हो ,चाय बिस्किट दे दो उसे। बेचारा इतनी बारिश में आया। नहीं आता तो हमें तो पानी बर्बाद ही कर डालता।"
अब घर सुरक्षित था।पानी उतर गया था।
-०-
संपर्क
संतोष श्रीवास्तव
भोपाल (मध्य प्रदेश)


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