(कविता)
वे दिन बहुत याद आया करते हैं
जब हम जेठ की दुपहरी में
आम के पेड़ से अमिया चुराकर खाया करते थे
वे दिन बहुत याद आते हैं
जब एक हाथ में चानी
और दूसरे में नींबू का अचार होता था
और डर के मारे पलंग के नीचे
छुप कर खूब खाया जाता था
वे दिन बहुत याद आते हैं
वे दिन जिसमें मेरा बचपन,
मेरी आंखों के सामने नाचता है
यूं ही बैठे-बैठे गुड्डे -गुड़िया का
ब्याह रचा दिया जाता था
उसमें भी हलवा पुरी का
धमाल मचाया जाता था
वे दिन बहुत याद आते हैं
खरबूजे का बीज गलती से
यदि पेट में चला जाता,
तो दूसरे ही क्षण कानों से
टहनियां निकलने की कल्पना से ,
दिल दहल जाता था
यह सोच, अभी भी याद आती है
इमली खाकर टेढ़े मेढ़े मुंह बनाना
कासार खाकर फूफा जी बोल कर दिखाना
वह शैतानियां बहुत याद आती हैं
तब महंगे खिलौने की जरूरत नहीं होती थी
स्टापू और पिट्ठू ग्राम में ही मजा आता था
फटी जुराब में भी खूब आनंद आता था
शाम को गलियों में क्रिकेट का धमाल मचाना
पड़ोसी की खिड़की का शीशा टूट जाता तो
वहां से झट पट छूमंतर हो जाना
वो टूटा शीशा अभी भी याद आता है
अब न वो गलियां है और ना ही वो खेल
ना वह दोस्त हैं और न ही वो मेल
व्हाट्सएप और फेसबुक में ही
हाल-चाल पूछ लिया जाता हैं ,
मगर
दिल के किसी कोने में
वो बचपन अभी भी बहुत याद आता है।
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