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Thursday 29 October 2020

जैसा अन्न... वैसा मन (लघुकथा) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

जैसा अन्न... वैसा मन
(लघुकथा)
शर्मा जी भले ही शहर में आकर बस गए हैं परंतु पास के गाँव में उनकी खेती आज भी होती है। उन्हीं के गाँव का ननकू बहुत ही ईमानदार और मेहनती मजदूर है। वही उनकी खेती संभालता है। ननकू का एक लड़का है, दीनू।अभी उसकी उम्र होगी करीब 15-16 साल की। अक्सर वह शर्मा जी के पास आता रहता  है। उसके आने पर शर्मा जी कभी उसे सब्जी  लेने तो कभी नल, टेलीफोन, बिजली के बिल जमा कराने भेजते हैं । वह भी उसके पिता की तरह ईमानदार है। खर्च होने के बाद जितने रुपए बचते हैं, वह उन्हें लौटा देता है।शर्मा जी, ननकू की तरह दीनू की ईमानदारी पर भी गर्व करते हैं।
एक दिन शर्मा जी के एक मित्र उनसे कहने लगे, 'कोई ईमानदार लड़का हो तो बताओ, हमारे साहब को उनके घर में काम करने के लिए चाहिए।
उन्होंने दीनू के बारे में बतलाया और उनके यहां काम करने भेज दिया।
एक दिन दीनू , शर्माजी के पास आया तो उसने बतलाया, साहब अकेले रहते हैं। मैं ही उनके घर का पूरा काम करता हूं। खाना बनाता हूं, झाड़ू-पोंछा, बरतन धो-मांजना, बाजार से सामान लाना ऐसे सभी काम करता हूं। वहीं रहता हूं। वहीं खाना खाता हूं।उनकी मेम साहब दूसरे शहर में नौकरी करती हैं।
         फिर एक दिन जब दीनू आया तो उसने बतलाया - 'साहब की ऊपरी कमायी बहुत है। घर पर बहुत लोग आते हैं और रुपए दे जाते हैं।' शर्मा जी ने उसे गौर से देखा। उसके नये कपड़े, नये जूते देखकर पूछा- ' ये साहब ने ही... '
' हाँ, उन्होंने ही दिलाए हैं'  शर्मा जी की बात पूरी होने के पहले ही वह बोला।
शर्मा जी, उसे दो सौ रुपए देते हुए बोले, 'बाइक में पेट्रोल डलवा लाओ। ' वह बाइक लेकर गया तो बहुत देर बाद लौटा। आते ही कहने लगा- ' घर चला गया था। बहुत दिनों से नहीं गया था।'
       एक दिन जब वह आया तो शर्मा जी ने उसे बिजली का बिल जमा करने भेजा। वापिस आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ, उसने बाकी के रुपए नहीं लौटाए। उससे बाकी के रुपए मांगे तो वह बोला-  ' मेरे दोस्त मिल गए थे, उन्हें चाय पिलाने में खर्च हो गए।'
शर्मा जी ने महसूस किया। वह बदलने लगा है और उसकी ईमानदारी कहीं खोती जा रही है।
        एक दिन उनका वही मित्र घबराते हुए आया और पूछा - ' दीनू ! यहां आपके पास  आया था क्या? मेरे साहब ढूँढ़ रहे हैं। दो दिन से वह उनके यहां नहीं जा रहा है।उन्होंने, उसे बैंक में रुपए जमा करने दिए थे वे भी उसने जमा नहीं किए। मैंने आपको ईमानदार लड़के का बोला था। वह तो बेईमान निकला।
 शर्मा जी स्तब्ध रह गए।
'जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन'... उन्हें बचपन में पढ़ी एक कहानी की सीख याद आ गई।
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संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
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रमाबाई (कहानी) - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव


रमाबाई
(कहानी)

      रमाबाई गुजर गईं । इस समाचार को जिसने भी सुना वह ही आश्चर्य में पड़ जाता ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है भला......अभी चार-पांच दिन पहिले तक स्कूल में काम कर रही थी वह बीमार भी नहीं थी फिर अचानक कैसे गुजर गई । सभी का आश्चर्य उस समय और बढ़ गया जब यह ज्ञात हुआ कि रमाबाई की मौत तो चार दिन पहिले ही हो चुकी थी पर किसी को उनकी मृत्यु होने का आभास तक नहीं हुंआ । चार दिन बाद जब उनका कमरा खोला गया तो पीछे का सारा आंगन बदबू से भरा चुका था । लोग अपनी नाक पर रूमाल रखकर कमरे के अंदर गए जहां रमाबाई का निश्चेत शरीर धरती पर पड़ा था । सारे लेाग अचंभित थे । रमाबाई के दोनो बेटे भी तो वहीं रहते हैं फिर किसी को कैसे पता नहीं चला कि रमाबाई की मृत्यु हो गई है ‘‘जरूर दाल में कुछ काला है’’ । संदेह का बीजारोपण हो चुका था । मुझे भी रमाबाई के देहवसान का समाचार मिला । मैं भगा-भगा उसके घर चला गया था और बहुत देर तक उस दिवंगत रमाबाई को देखता रहा था । रमाबाई का संघर्ष मेरे सामने चलचित्र की भांति जीवंत दिखाई देने लगा था ।
         रमाबाई अपने पति की मृत्यु के बाद स्कूल में अनुकंपा नियुक्ति पर काम कर रही थी । उसके पति का अवसान भी ऐसे ही अचानक हो गया था कम उम्र में ही, वो उसी स्कूल में क्लर्क थे । जब पति की मौत हुई उस समय रमाबाई तीन छोटी-छोटी संतानों की माॅ बन चुकी थी । रमाबाई ने अपने पति के जीवित रहते तक कभी घर की दहलीज के बाहर कदम तक नहीं रखा था । निहायत सभ्रांत परिवार और सीधीसादी महिला । बच्चों को पालना था इसलिए काम तो करना ही था । पर ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए उसे चपरासी की नौकरी ही मिली । । सिर पर पल्ला और चेहरे पर उदासी के भाव लिए वह स्कूल में अपनी नौकरी पर पहुंची थी । तीन-तीन बच्चों का भार उसके ऊपर था । बडे और छोटे बेटे को वो स्कूल में छोड़ आती और बिटिया को अपने कांधे पर लेकर स्कूल आ जाती । बिटिया खेलती रहती और वह दिन भर भागदौड़ करती रहती । स्कूल बंद होने के बाद वह अपने बच्चों को साथ लेकर घर लौटती और उनके खाने आदि का इंतजाम करती । उसके व्यवहार के चलते स्कूल का सारा स्टाफ उससे प्रसन्न रहता और उसकी मदद भी करता रहता । देखते ही देखते उसके बच्चे बड़े होते चले गए । एक दिन उसने बिटिया का भी ब्याह रचा दिया । लड़के वाले गरीब थे पर सीधे सादे थे सो उसे बिटिया का ब्याह का करने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई । उसके दोनों बेटो ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी । छोटा बेटा पंडिताई करने लगा और एक दिन अपना सामान समेटकर इंदौर चला गया और बड़ा बेटा मां के साथ ही बना रहा । वह कोई काम नहीं करता था दिन भर आवारगर्दी करता रहता । रमाबाई अक्सर उसे लेकर चितित हो जाया करती । कहने को तो रमाबई के बहुत सारे रिश्तेदार थे पर उसकी मदद करने कोई सामने नहीं आते थे । कम तनखाह में वह अपनी घर गृहस्थी को ढो रही थी । इन परिस्थितियों में बड़े बेटे की आवारागर्दी ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया था ।
                 स्कूल के पास में ही मेरी दुकान भी थी । वह दिन में एकाध बार दुकान पर अवश्य आती और कुछ कहना हो तो मेरे खाली होने का इंतजार करती नहीं तो ‘‘राम राम’’ करके चली जाती । वह एक सीधी सादी सभ्रान्त महिला थी । यदि उसके पति जिन्दा रहते तो वह कभी घर के बाहर कदम तक न निकालती पर उसका दुर्भाग्य था कि उसे उसके पति की मौत के बाद नौकरी करनी पड़ी । उस समय उसके तीनों बच्चे छोटे थे । दो लड़के और एक लड़की । उसके सामने अपने दुधमुंह बच्चों को पढ़ाने का बोझ था । सुबह जल्दी से उठकर घर के सारे काम निपटाकर वह अपने बच्चों को स्कूल छोडती और स्वंय काम पर आ जाती । सिर पर पल्ला और चेहरे पर उदास मुस्कान । दिन भर वह भाग भाग कर काम करती और शाम को अपने घर लौट जाती । बच्चे धीरे धीरे बड़े होने लगे । रमाबाई बच्चें पर ज्यादा ध्यान दे नहीं पाई थी इस कारण बच्चे ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए । छोटा बेटा तो पंडिताई करने लगा और इंदौर में जाकर रहने लगा बड़ा बेटा आवारागर्दी करने लगा ।
‘‘सर मैं सोच रही थी जीपीएफ के कुछ पैसे निकालकर बड़े बेटे का एक ट्रेक्टर दिलवा दूॅ’’
‘‘क्यों.......और जानती हो ट्रेक्टर कितने का आयेगा’’
‘‘बेटा कह रहा था कि बैंक से कर्जा में ट्रेक्टर मिल जाता है’’
‘‘मिल तो जाता है पर इतने सारे पैसे लौटाओगी कैसे ।’’
‘‘वो बेटा जिद्द कर रहा है......कि ट्रेक्टर लेना है.......’’
‘‘उसके जिद्द करन से क्या......तुम खुद भी सोच समझकर निर्णय लो....’’
‘‘उसने दो दिन से खाना नहीं खाया कह रहा था कि जब तक ट्रेक्टर लेकर नहीं दोगी तब तक खाना नहीं खाऊंगा........उसके चक्क्र में मैंने भी दो दिन से खाना नहीं खाया’’
मैं चुप रहा मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं ।
‘‘अच्छा सर जी मैं जाती हूॅ........बैंक जाकर पता करती हूॅ’’
वह चली गई ।
 कुछ महिनों तक रमाबाई ने अपने घर के संबंध में कोई बात नहीं की थी । मुझे लगने लगा था कि अब बड़े बेटे का काम भी जम गया होगा और रमाबाई का भार भी हल्का हो गया हो गया । एक दिन रमाबाई को उसका बेटा मोटरसाईकिल से छोड़ने आया
‘‘सर जी बेटे को मोटरसाईकिल दिला दी है उसे काम के लिये यहां वहां जाना होता था और मुझे भी यहां स्कूल आना पड़ता है...वह कह रहा था कि रोज मुझे स्कूल छोड़ दिया करेगा........कंपनी वालों ने ही फायनेंस कर दी है ।’’
मैं कुछ नहीं बोला ।
कुछ दिन तक मैं रमाबाई को रोज मोटरसाईकिल पर आते और जाते हुए देखता रहा ।
         गर्मियों के अवकाश के कारण रमाबाई से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई थी । रमाबाई के प्रति मेरी हमदर्दी बढ़ती जा रही थी । उसके चेहरे की उदासी और उसका संघर्ष मुझे हर पल उसकी मदद करने के लिये प्रेरित करता था पर वह मुझसे कोई मदद कभी नहीं लेती थी । केवल चर्चा भर करती थी और मेरी सलाह को भी नजर अंदाज कर देती थी । इसके बाबजूद मुझे उसे सलाह देते रहना अच्छा लगता था । मैं उसमें नारी सशक्तिकरण की संभावानयें खोजने का प्रयास करता था । वैसे तो रमाबाई जितना अपनी नौकरी में कमाती है उससे वह पूर्ण संतुष्टी के साथ जीवन यापन कर सकती थी पर उसका बेटा उसका संघर्ष बढ़ा रहा था, स्ववाभाविक रूप से उसका स्नेह अपने बेटे के प्रति अधिक था इसलिए वह बेटे की जिद्द के आगे झाुक जाती और न चाहते हुए भी अथवा मेरी सलाह को भी नजरअंदाज करते हुए वह अपने भविष्य को दांव पर लगा देती । मेरा उससे कोई नाता नहीं था और न ही उसके पति से मेरे कोई प्रगाढ़ संबंध थे फिर भी एक मातृत्व अटैचमेन्ट मैं महसूस करता था । गर्मियों के अवकाश के बाद वह स्कूल आई थी पर मुझसे मिली नहीं थी । हो सकता है मेरे पास आने का समय न मिला हो पर कुछ दिन बाद जब वह मिली तो उसके उदास चेहरे को मैंने पढ़ लिया था
‘‘रमाबाई कुछ उदास हो’’
‘‘कुछ नहीं सर....’’ उसने पल्लू से अपनी आंखें पौंछी ।
‘‘कुछ तो बात है.....पर रहने दो तुम बताना नहीं चाहतीं...’’
वह खामोश रही । मैंपे भी बात को जाने का प्रयास नहीं किया ।
            रमाबाई अब मोटरसाईकिल से नहीं आ-जा रही थी । वह लगभग भागते हुए सी स्कूल आती और वैसे ही भागते हुए सी वापिस लौटती । मैं उसे आते जाते देखता रहता ।
एक दिन रमाबाई ने अपने बेटे की शादी का कार्ड मुझे दिया ।
‘‘पर अभी तो भांवर ही नहीं है ’’
‘‘है न भड़रिया नमें कीं......’’
‘‘ओह......हां........तो क्या शादी जल्दी बन गई...’’
‘‘वो मेरा बेटा मान ही नहीं रहा है........तो करना पड़ रही है’’
‘‘अच्छा उसकी पंसद की हो रही है’’
‘‘जी.......’’
उसने और कोई बात नहीं की वह चली गई ।
मैं बहुत देर तक उसके जीवन में घट रहे घटनाक्रम को समझने का प्रयास करता रहा ।
मैंने महससू किया था कि वह अपने बेटे का शादी कार्ड देते समय भी प्रसन्न नहीं थी । रमाबाई जब अपनी बिटिया की शादी का कार्ड देने आई थी तब उसके चेहरे पर जो प्रसन्नता थी वह अभी नदारत थी । तब उसने जिद्द करके बोला था ‘‘सर आप जैसे बड़े लोग मेरी बेटी के ब्याह में आयेगें तो हमें अच्छा लगेगा....आप आईयेगा जरूर’’ । उसके इस स्नेहामंत्रण के कारण मैं उसकी बिटिया की शादी में गया भी था पर इस बार उसका आमंत्रण वैसा नहीं था । केवल औपचारिकता सा लग रहा था । हो सकता है वह बेटे की शादी की जिद्द के कारण उदास हो पर लड़की तो उसके समाज की ही है तो उसे उदास नहीं होना चाहिए । ऐसा मैने सोचा ।
               रमाबाई के बेटे की शादी में मैं गया था पर रमाबाई नहीं मिली थी । मैं करीब एकाध घंटे वहां रहा । रमाबाई को छोटा बेटा जो इंदौर में रहता था वह भी शादी में आया हुआ था । चारों ओर उल्लास का माहौल था । सभी नाच गा रहे थे । उनके हंसते हुए चेहरों में मैं रमाबाई का उदास चेहरा देख रहा था । शादी के सम्पन्न हो जाने के एकाध सप्ताह बाद रमाबाई स्कूल आई थी । उसके तन पर नई पीली साड़ी थी और चेहेर पर मुस्कान । उसका बड़ा बेटा उसे छोड़ने आया था ।
‘‘सर भगवान जी की कृपा से शादी अच्छी हो गई’’
रमाबाई की बातों में उत्साह था । मुझे अच्छा लगा ।
‘‘बहू कैसी है’’
‘‘बहुत अच्छी सर जी.....मेरा बहुत ध्यान रखती है.......’’
‘‘चलो अच्छा हुआ रमाबाई.....अब तुमको कुछ आराम मिलेगा...’’
रमाबाई के दिन अच्छे कटते दिखाई देने लगे थे । वह दिनभर स्कूल में खुशी-खुशी काम करती और उसका बेटा शाम को उसे लेने आता वह उसके साथ घर लौट जाती । उसके चेहरे पर रंगत नजर आने लगी थी । रमाबाई काम के प्रति बहुत ईमानदार थी । वह पूरे समर्पण के साथ काम करती । स्कूल की हर कक्षा की सफाई करती बाहर मैदान में झाड़ू लगाती और स्कूल के स्टाफ का ध्यान रखती । स्कूल के सारे स्टाफ की वह चहेती थी । दोपहर में जब स्कूल की आधी छुट्टी होती तब वह स्टाफ को चाय-पिलाकर खाना का डिब्बा खोलकर जल्दी-जल्दी खाना खाती । कई बार वह काम के चलते खाना खा भी नहीं पाती पर फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान पर बनी रहती । बेटे की शादी के बाद उसकी बहु नये डिब्बे में स्वादिष्ट खाना रखने लगी थह जिसे वह बहुत चाव से खाती । रमाबाई दिन भर अपनी बहु की तारीफ करती रहती । सभी को संतुष्टि हो रही थी कि रमाबाई अब सुख से दिन व्यतीत कर रही है । बेचारी ने अपने जीवन में बहुत कष्ट सहन किए हैं ।
            रमाबाई देा दिन बाद स्कूल आई थी । उसके माथे पर पट्टी बंधी थी । चेहरा कुम्हलाया हुआ था । वैसे तो उसने स्टाफ को यही बताया था कि वह गिर गई थी जिसके कारण उसके माथे पर चोट लग गई है । पर मेरे सामने वह फफक कर रो पड़ी थी
‘‘सर जी.....मेरी कोई गल्ती नहीं थी.....अब बड़ा बेटा का काम अच्छा चल रहा है तो मैंने इस बार की तनख्वाह में से कुछ रूपये छोटे बेटे को भेज दिए थे .......बताओ सर जी यह गलत था क्या.........बड़े बेटे ने जब मेरी तनख्वाह में कम रूपये देखे तो नाराज हो गया...और डांटने लगा.......फिर उसने मुझे........’’ वह सुंबक पड़ी ।
मुझे भी आश्चर्य हुआ । कोई बेटा भला अपनी माॅ को मार भी सकता है । मैं चुप रहा ।
‘‘बहु ने भी मुझे बुरा भला कहा.......’’ ।
उसकी आंखों से लगतार आंसू बह रहे थे ।
‘‘तुमने कुछ खाया........’’
‘‘नहीं.....सर...कल शााम से जब मैं स्कूल से घर लौटी तबसे कुछ नहीं खाया’’
‘‘बहु ने भी नहीं कहा खाने को...’’
‘‘नहीं....वह भी मुझे गालियां ही दे रही थी...’’ ।
रमाबाई की सिसकी की आवाज अब चारो ओर फैलती जा रही थी ।
‘‘तुम कुछ खाओगी......मैं बुलवा दूं......’’
‘‘नहीं...सर....अब तो जीने की इच्छा ही खत्म हो गई है.......’’
‘‘कुछ नाश्ता ही कर लो......मैं बुलावाये देता हूॅ’’
‘‘नहीं सर.....पैसे के लिए......मेरे बेटे ने मुझे मारा सर.....’’ वह फिर सुबक उठी ।
मैं मौन रहा आया ।
‘‘छोटे बेटे का भी तो अधिकार है....मैंने उसको कुछ पैसे भेज भी दिए तो क्या गलत किया मैंने....यदि सर में कमाती नहीं तो मेरा बेटा तो मुझे घर से ही निकाल देता......मैंने कर्जा लेकर उसे ट्रेक्टर दिलवाया.......मोटरसाईकिल दिलवाई.....पूरी तनख्वाह उसे देती रही.......इतना सब करने के बाद भी.......उसने मुझे मारा सर.....गिलास फेंक कर मारा मेरे माथे पर चोट लगी और खून बहता रहा उसे फिर भी दया नहीं आई......बहु ने भी गालियां दी सर......’’ । उसके रोने की आवाज उसके हलक के नीचे ही गुम होती जा रही थी । मैं उसकी वेदना को महसूस कर रहा था । उसका दर्द चोट लगने का नहीं था उसका दर्द तो उसके बेटे और बहु के व्यवहार का ज्यादा था । मैं चाहकर भी उनके पारिवारिक मामले में हस्तक्षेप करना नहीं चाह रहा था । रमाबाई बहुत देर तक मेेरे पास आंसू बहाती रही थी और फिर अपना चेहरा पांैछकर स्कूल चली गई । वह शायद किसी को भी अपने बेटे की करतूत बताना नहीं चाह रही थी । मैं जानता था कि रमाबाई जब अपनी पूरी वेदना शब्दों में और आंसूओं में बहा देगी तब उसका मन कुछ हल्का हो जायेगा । मेरे बहुत कहने के बाबजूद भी उसने कुछ नहीं खाया था । वह चली गई पर मैं बहुत देर तक उसकी वेदना को महसूस करता रहा था ।
               रमाबाई ने एक अलग कमरा किराये पर ले लिया था और नये सिरे से अपने आपको सम्हालने की असफल चेष्टा कर रही थी । गाहे बेगाहे वह मेरे पास आकर अपना दर्द बयां कर जाती । मैं केवल उसका हौसला ही बढ़ा सकता था जो मैं कर भी रहा था । वह स्वाभिमानी थी इसलिये वह किसी किस्म की मदद नहीं लेती थी ।
‘‘सर जी....आपके पास आकर मैं रो लेती हूॅ.....मेरा दर्द हल्का हो जाता है...मैं किसी और के सामने रो भी तो नहीं सकती......आपका यह अहसान ही बहुत है मेरे लिए...’’ ।
रमाबाई अक्सर ऐसा कह कर मुझे चुप कर देती । एक दिन उसने बताया था कि उसका छोटा बेटा इंदौर से वापिस यहीं आने वाला है ।
‘‘कह रहा था कि माॅ आप परेशानी की हालत में हो ऐसे में मेरा मन भी बाहर नहीं लग रहा है’’
‘‘चलो अच्छा है......वह आ जायेगा तो आपको कुछ मदद मिलेगी’’ । मैंने उससे बोला ।
‘‘हां सर......इसलिए मैंने भी उसे आने का बोल दिया है ।
              रमाबाई का छोटा बेटा वापिस आ गया था और माॅ के साथ ही किराये के मकान में रहने लगा था । रमाबाई ने उधारी करके एक दुकान उसके लिए खुलवा दी थी । छोटा बेटा उसे स्कूल छोड़ने आता और लेने भी आता । रमाबाई अपने पुराने दर्द की टीस लिये नई जिन्दगी में रमती जा रही थी । बड़े बेटे को सन्तान प्राप्ति हुई । रमाबाई बहुत प्रसन्न थी । उसका बहुत मन कर रहा था कि अपने पोते को देखने जाये पर वह नहीं जा पाई पर छोटा बेटा तो बड़ें बेटे से मिलता रहता था सो वह ही गया और आकर अपनी माॅ को सब कुछ बताया साथ ही यह भी बताया कि बड़ा बेटा पैतृक मकान में उसका हिस्सा देने तैयार है ।
                    छोटे बेटे के पास कुछ जमा-पूंजी थी और कुछ रमाबाई ने अपने जीपीएफ फंड से निकाल ली थी । इसके चलते मकान का काम प्रारंभ कर दिया गया । बड़े बेटे के मकान से लगकर छोटे बेटे के मकान का काम चल रहा था । रमाबाई पूरी तल्लीनता और उत्साह के साथ उसमें हाथ बंटा रही थी । अपनी पूरी की पूरी तनख्वाह वह मकान में लगा रही थी कर्जा बन रहा था उसे भी चुकता कर देने का वायदा कर रही थी ।  मकान के पीछे का कमरा रमाबाई ने नहीं तोड़ने दिया था ।
‘‘इसमें कुल देवता की पूजा होती है....इसलिये इसे तोड़े बिना सुधार लो’’
बेटे ने माॅ की बात मान ली ।
बड़े बेटे के साथ भी उसके संबंध बेहतर होते जा रहे थे । वह स्कूल से लौटने के बाद नाती को अपनी छाती से चिपकाये घूमती रहती थी । छोटे बेटे की दुकानदारी भी जम गई थी पर फिर भी रमाबाई घर की जरूरतों की पूर्ति अपनी तनख्वाह से ही करती । वह बड़े बेटे के परिवार की जरूरतों को भी पूरा करती । उधारी चुकाने के चलते उसके पास ज्यादा कुछ बचता नहीं था ।
‘‘सर देखो मैने नाती के लिये सोने की ‘हाय’ बनबाई है....एक अंगूठी मेरे पास रखी थी न अब मैं तो अंगूठी पहनती नहीं हूॅं सोचा नाती के लिये हाय ही बनवा दूॅ’’ । उसने उत्साह और आतुरता के साथ मेरे सामने डिब्बी में से हाय निकाल कर रख दी थी ।
‘‘अरे ये तो बहुत वजनदार है......इतना सोना कोई बच्चे को पहनाता है क्या’’
‘‘क्या करूं सर जी....अंगूठी वजनदार थी न तो सुनार बोला कि सोना वापिस ले लो या उसके पैसे ले लो...मुझे लगा कि पैसे तो अभी खर्च हो जायेगें....और बचा सोना ले भी लिया तो कहीं भी रखकर गुम हो गया तो बेकार ही चला जायेगा न...इसलिये मैंने हाय को ही वजनदार बनवा लिया...’’ । उसने भोलेपन से जबाब दिया । मैं कुछ नहीं बोला । मैं उसके पारिवारिक मामलों में कुछ बोलता भी नहीं था । पर मैं जानता था कि रमाबाई का यह कदम आत्मघाती कदम है । उसकी छोटी बहु इसे बर्दाश्त नहीं करेगी । शायद हुआ भी यही था । रमाबाई ने खुलकर तो कुछ नहीं बताया पर इतना जरूर बताया कि छोटी बहु ने नाती को हाय देने ही नही दी और गुस्से में उसे कचरे में फेंक दी । रमाबाई की छोटी बहु से तनातनी प्रारंभ हो गई थी । छोटे बेटे ने भी डांटा । बड़े बेटे को जब सोने की हाय के बारे में पता चला तो उसकी भी भौंह तन गई । एक दिन जब वह स्कूल आई थी तब ही दोनों बेटों ने मिलकर उसके सामान की खानातलाशी ली और उसके सारे जेवर दोनों ने आपस में बांट लिये । शाम को जब वह लौटी तब तक उसका सारा सामान पीछे बने कुल देवता के कमरे में रखा जा चुका था । वह हतप्रभ सी खड़ी रह गई थी । उसकी आंखों के सामने दोनों बहुओं और बेटो ने उससे कोई बात नहीं की । उसके स्कूल से ही लौटते ही लपक कर उसकी छाती से चिपक जाने वाला नन्हा पोता अपनी माॅ की गोद से आल्हादित भावों से उसे देख रहा था । शायद वह रमाबाई की गोद में आने के लिये जोर लगा रहा था पर उसकी माॅ उसे कसकर पकड़े थी । उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उससे गल्ती कहां हो गई जिसके चलते उसके दोनों बेटे और बहु उसके दुश्मन बन गए । अपनी आंखों से बहते आंसूओं के बीच उसने अपने बेटे बहु के सामने हाथ जोड़ लिए थे ‘‘मुझसे कोई गल्ती हो गई क्या बेटा’’  । किसी ने काई जबाब नहीं दिया । उसने अपने हाथों से अपने चेहरे को ढंक लिया । वह सुबक पड़ी थी । उसके रोने की आवाज चारों और फैलती जा रही थी । उसके बेटो और बहुओं पर इसका का कोई असर नहीं हो रहा था । माॅ की गोद में बैठा नाती रोने लगा था वह गोदी से उतार दिये जाने का प्रयास कर रहा था पर उसकी माॅ उसे ऐसा नहीं करने दे रही थी । बड़ी बहु ने उसे खींच कर घसीटते हुए पीछे वाले कमरे के सामने लाकर छोड़ दिया था । रमाबाई की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे । वह बार बार विनती कर रही थी
‘‘मुझे क्षमा कर दो बेटा....मुझे नहीं मालूम की मुझसे क्या गल्ती हुई है पर फिर भी मैं हाथ जोड़ रही हूॅ......मुझें क्षमा कर दो......’’ । उसने कातर निगाहों से अपने छोटे बेटे की ओर देखा । उसने अपना मुंह घुमा लिया ।
‘‘चल चुप हो जा......तूने हमारी जिन्दगी बर्बाद कर रखी है’’ बड़े बेटे ने उसे डांटते हुए उसके गाल पर चांटा मार दिया । रमाबाई को इसका अंदेशा नहीं था । उसके मुंख से रोने की आवाज आना बंद हो गई थी । वह एक हाथ से अपने गाल को सहला रही थी । वह समझ गई थी कि अब कुछ भी मिन्नत करना बेकार है । वह तो केवल अपनी गल्ती समझ लेना चाह रही थी । जो कोई बताने तैयार नहीं था । उसने एक बार फिर अपने दोने बहुओं को देखा जो उसे हिकारत भरी नजरों से देख रहीं थीं फिर उसने अपने बेटों को देखा जो उसे गुस्से से देख रहे थे । उसने अपने नाती को देखा उसके चेहरे पर ममत्व के भाव थे । उसने अपनी निगाहों को झुका लिया । अब उसकी आंखों में आंसू नहीं थे । उनमें कुछ दृढ़ निश्चय के भाव दिखाई दे रहे थे । उसने कमरे का दरवाजा खोला जहां उसका सामान बिखरा पड़ा था । अंदर जाने के बाद उसने अपने कमरे को बंद कर लिया था । वह हताश और निराश अपने नये ठिकाने पर जाकर पड़ी रहीं थी । रमाबाई उस कमरे से फिर कभी बाहर नहीं निकली । किसी ने भी उसके बारे में जानने का कोई प्रयास भी नहीं किया ।  .                   
रमाबाई जब दो तीन दिन तक बगैर बताए स्कूल नहीं पहुंची तो प्राचार्य ने रमाबाई की खोजबीन की । उसके बेटों ने रमाबाई के बारे में कुछ भी जानकारी होने से मना कर दिया । चपरासी को रमाबाई का कमरा दिखा दिया था । चपरासी बहुत देर तक कमरे का दरवाजा खटखटाकर रमाबाई को आवाजें देता रहा पर जब अंदर से कोई जबाब नहीं मिला तो उसकी घबराहट बढ़ गई । आनन-फानन में रमाबाई के कमरे के दरवाजे को तोड़ा गया जहां रमाबाई का चेतनाशून्य शरीर दिखाई दिया था  । सभी को समझ में आ चुका था कि रमाबाई देह को त्याग चुकी हैं । डाक्टर को तो खैर औपचारिकता के लिए बुलाया गया था । उसने नब्ज हाथ में लेकर बता दिया था कि रमाबाई की मृत्यु हुए तो तीन-चार दिन हो चुके हैं । मुझे भी उसकी मौत की खबर लगी थी । मैं भी भागता हुआ सा वहां पहुंचा था । मैं एकटक रमाबाई के चेहरे को देख रहा था जिसमें उसके जीवन के संघर्ष की पूरी दास्तां दिखाई दे रही थी ‘‘सर जी....औरत का जीवन ऐसा ही होता है.....घुट-घुट कर कटता है सारा जीवन.......मेरी तरह ही...’’ ।
मैं थके कदमों से लौट आया था उसके अंतिम संस्कार में सहभागी हुए बिना ।
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पता:
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)

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"मन का दीया" (कविता) - मधुकर वनमाली


"मन का दीया"
(कविता)
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

तेरे उर में तिमिर बसे जो
खाली मन का शिविर लगे जो
कांच के टुकड़ों सा बिखरा मन
पथ में तेरे जाके बिछे जो
नही जरा तुम राह को रोना
बस मेरी लौ तक आ जाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

जीवन में कैसी तृष्णा है
प्यास बढ़े पीने से देखो
हो न कभी जो पग ये डगमग
मजा नहीं जीने में देखो
स्वाति बूंद सा नीर नयन का
मैंने वह मोती पहचाना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।

मिलन की बेला में अलसाई
सोयी है या जाग रही तू
सुंदर वह सपनों की वीणा
मालकोश के राग चढ़ी तू
आज नया सा गीत तुम्हें दूं
सुन कर हौले से मुस्काना
मन का दीया जलाए बैठा
मीत मेरे जल बुझने आना।
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पता:
मधुकर वनमाली
मुजफ्फरपुर (बिहार)

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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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