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Tuesday 14 January 2020

नूतन वर्षाभिनंदन (कविता) - प्रकाश तातेड़


नूतन वर्षाभिनंदन
(कविता)
नववर्ष के नवप्रभात में,
नूतन वर्षाभिनंदन। 
शोभित हो आपके मस्तक पर अक्षत चंदन।
तन स्वस्थ रहें, मन प्रसन्न रहें,
सब सफल हों, सुखी संपन्न बनें,
जननी जन्मभूमि का, करें सब सादर वंदन।
नूतन वर्षाभिनंदन।
हर परिवार में प्यार का दरिया बहे,
दोस्तों में मोहब्बत का जरिया रहे,
देश का हर कोना हो, जैसे सुरभित नंदन।
नूतन वर्षाभिनंदन।
निर्धन वंचितों को शक्ति मिले,
महंगाई भ्रष्टाचार से मुक्ति मिले,
अब सुनाई न दे,किसी कली का क्रंदन।
नूतन वर्षाभिनंदन ।
राजा और प्रजा में विश्वास बढ़े,
देश हमारा उन्नति के सोपान चढ़े,
आंखों में सपने हो,सांसों में हो स्पंदन।
नूतन वर्षाभिनंदन, नूतन वर्षाभिनंदन।।-०-
पता-
प्रकाश तातेड़
उदयपुर(राजस्थान)
-०-

***
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ऊँचाइयों पर तो आसमान है (कविता) - सविता दास 'सवि'


ऊँचाइयों पर तो आसमान है
(कविता)
विवश होकर
क्यों कुछ करना है
कर्तव्य के पथ पर
दृढ़ संकल्पित होकर
यूँही बस चलना है
त्याग और संघर्ष
एक सिक्के के
दो पहलू हैं
व्यक्तित्व अपना
इसीसे तो
निखरना है
आँसूं आए तो
बहने देना
कुछ अंतर में भी
जमने देना
देखना ये बूंदे ही
एक दिन चट्टान
बन जाएंगी
आनेवाली पीढ़ी फिर
इनमे प्रेरणा की
कहानियाँ लिख पाएंगी
आज कठिन लग रहा जो
कल सरल हो जाएगा
इन क्षणिक कठिनाइयों
के सामने तेरा
प्रण और कठिन हो जाएगा
अपने पे आजा तू
देख तेरी क्षमता
जिसके सामने
हर बाधा धराशायी है
तेरी छलांग से बड़े गड्ढे
किसने यहाँ बनाए हैं
तू जानता है
आत्मबल ही
तेरी पहचान है
तू बस जड़ो को
फैला अपनी ज़मीन पर
अनन्त उँचाई पर तो
अभी आसमान है।
-०-
सविता दास 'सवि'
शोणितपुर (असम) 


-0-
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जेब बहुत ही भारी है (ग़ज़ल) - मृदुल कुमार सिंह

जेब बहुत ही भारी है
(ग़ज़ल)
जेब बहुत ही भारी है,
सख्त बड़ा अधिकारी है।

मोबाइल से चुपकी है,
सारी दुनिया-दारी है।

अच्छे दिन की बात,अरे
भैया जी अखबारी है।

देख सियासी रुतबे को,
चोर बना दरबारी है।

फाइल घूम रही है जो,
लगता वो सरकारी है।

देखो आज अदालत में,
न्याय हुआ बाजारी है।

पैसा-पैसा करते सब
जाने क्या बीमारी है।
-०-
पता:

मृदुल कुमार सिंह
अलीगढ़ (अलीगढ़) 

-०-


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मशीन बनते बच्चे (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

मशीन बनते बच्चे
(कविता)
सुबह सुबह कड़कती ठण्ड में,
कच्ची नींद से जागते बच्चे,
जल्दी जल्दी तैयार हो,
स्कूल को भागते बच्चे।
साथ साथ ,
मम्मी की भाग दौड़,
नाश्ता बीच में छोड़,
होम वर्क पूरा करवाती,
बच्चे के वज़न से भारी बस्ता,
कंधे पर लादे,
बस तक छोड़ने जाती।
सुबह सुबह ,
जल्दी जल्दी चल कर,
ऊपर से टीचर की डाँट का प्रेशर,
मानो चार छः वर्ष की आयू में ही,
बनाना है उन्हें,
इंजीनियर या कलेक्टर।
टिफ़िन में ठण्डा खाना,
देख कर भूख मर जाना,
घर लौटते ही ज़बरन नहाना,
उलटा सीधा खा कर,
टयूशन पढ़ने जाना,
आते ही,
होम् वर्क में सर खपाना,
उफ़्फ़ ! बच्चों पर इतना दबाव ?
ना खेलने का समय,
ना आराम का।
बच्चों की जान लोगे क्या..?
अगर ऐसे ही चलता रहा तो,
एक दूसरे की होड़ में,
बच्चों का बचपना फिसल जाएगा,
उनका स्वाभाविक विकास रूक जाएगा।
हिम्मत है तो,सुबह पाँच बजे उठ,
उनकी तरह काम कर के दिखाओ,
बच्चों को बच्चा रहने दो,
उन्हें आराम ओर खेलने का समय दो,
मशीन मत बनाओ।-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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ऐ दरिंदों (कविता) - संजय कुमार सुमन


ऐ दरिंदों
(कविता)
ए दरिंदो सुनो,
मैं तुम्हारी मां हूं,
मैं तुम्हारी बहन हूं,
मैं तुम्हारी प्रेमिका हूं,
मैं तुम्हारी पत्नी हूं,
ए दरिंदों सुनो।
मैं तुम्हारी जननी हूं,
मैं तुम्हारी रक्षक हूं,
मैं तुम्हारी पालनहार हूं,
मैं तुम्हारी संकटमोचन हूं,
ना जाने क्या-क्या
मैं हूं ।
बावजूद इसके,
तुम मुझे जलाते हो,
तुम मेरा मर्दन करते हो,
अपनी मर्दानगी दिखाते हो,
सरेआम मुझे नीलाम करते हो,
ना जाने मैं क्या क्या हूँ।
ऐ दरिंदों सुनो,
मैं तुम्हारी मां हूँ।
काश मैं यदि ऐसा जानती कि,
तुम मैं मानवता नहीं बचेगी,
तुम हैवान बन जाओगे,
तुम भक्षक हो जाओगे।
सचमुच मैं तुम्हें,
उसी समय अपने गर्भ में,
मार डालती,
पर,
मेरी मानवता तो देखो,
मैंने तुम्हें जन्म दिया,
पाला पोसा,
अपना दूध पिलाया,
फिर तुम मुझे,
अपनी हैवानियत दिखाते हो,
ऐ दरिंदों सुनो,
मैं तुम्हारी मां हूं।
-०-
संजय कुमार सुमन
मधेपुरा (बिहार)
-०-

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