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Tuesday, 14 January 2020

मशीन बनते बच्चे (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

मशीन बनते बच्चे
(कविता)
सुबह सुबह कड़कती ठण्ड में,
कच्ची नींद से जागते बच्चे,
जल्दी जल्दी तैयार हो,
स्कूल को भागते बच्चे।
साथ साथ ,
मम्मी की भाग दौड़,
नाश्ता बीच में छोड़,
होम वर्क पूरा करवाती,
बच्चे के वज़न से भारी बस्ता,
कंधे पर लादे,
बस तक छोड़ने जाती।
सुबह सुबह ,
जल्दी जल्दी चल कर,
ऊपर से टीचर की डाँट का प्रेशर,
मानो चार छः वर्ष की आयू में ही,
बनाना है उन्हें,
इंजीनियर या कलेक्टर।
टिफ़िन में ठण्डा खाना,
देख कर भूख मर जाना,
घर लौटते ही ज़बरन नहाना,
उलटा सीधा खा कर,
टयूशन पढ़ने जाना,
आते ही,
होम् वर्क में सर खपाना,
उफ़्फ़ ! बच्चों पर इतना दबाव ?
ना खेलने का समय,
ना आराम का।
बच्चों की जान लोगे क्या..?
अगर ऐसे ही चलता रहा तो,
एक दूसरे की होड़ में,
बच्चों का बचपना फिसल जाएगा,
उनका स्वाभाविक विकास रूक जाएगा।
हिम्मत है तो,सुबह पाँच बजे उठ,
उनकी तरह काम कर के दिखाओ,
बच्चों को बच्चा रहने दो,
उन्हें आराम ओर खेलने का समय दो,
मशीन मत बनाओ।-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


***
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1 comment:

  1. आजकल बच्चों को जिस तरह दबाव में जीना पड़ता है, कच्ची उम्र में इतना तनाव झेलना पड़ता है उसका यथावत चित्रण किया है आपने इस रचना में।

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