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Friday, 24 January 2020

रामचंद्र की कहानी (कविता) - डॉ. अलका पाण्डेय

रामचंद्र की कहानी
(कविता)
मेरी अम्माँ मुझे बताती
रामचन्द्र की कहानी सुनाती
राम ने रावण को मारा
तोड दिया अभिमान सारा
बुराई पर अच्छाई की जीत
असत्य पर सत्य की जीत
आज के दिन राम रावण
युद्ध का हुआ था अंत
राम के हाथो रावण का अंत
बुराई का पुतला हम हर साल जलाते है
सच्चाई की जीत का जश्न मनाते है
रावण के हार की कहानी हमें याद दिलाती है
कितनी भी बड़ी हो बुराई सच्चाई से हार जाती है
कितना भी हो शक्तिशाली
झूठ से मात खाता मवाली
तेरह दिन भीषण युद्ध हुआ
फिर रावण का अंत हुआ
सत्य को करो कितना भी प्रताड़ित
कर न सकेगा सत्य को पराजित
तेज उसका निंरन्तर निखरता रहेगा ,
जानता है देश सारा
मानता है , हर राम का बंदा
संकटों से लड़ कर शक्तिशाली बन जाते है
संघर्षो की डगर पार कर नंई मंजिल पा जाते है
मेरी अम्मा मुझे बताती
रामचंद्र की कहानी सुनाती
-०-
स्थाई पता
डॉ. अलका पाण्डेय
नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
-०-

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जाड़ा दूर भगाना तुम (कविता) - डॉ. प्रमोद सोनवानी

जाड़ा दूर भगाना तुम
(कविता)
सूरज भैया जल्दी आकर ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।
सर - सर , सर - सर हवा चल रही ,
गर्मी हमें दिलाना तुम ।।1।।

जाड़ा के इन दिनों में ,
दूर कहीं मत जाना तुम ।
पास हमारे रहकर भैया ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।।2।।

जाड़ा हमें कपाता थर - थर ,
उसे तनिक समझना तुम ।
ठिठूरन में कांपे न कोई ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।।3।।
-०-
डॉ. प्रमोद सोनवानी
रायगढ़ (छतीसगढ़)


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आपका माल कि बाप का माल (लघुकथा) - श्याम मठपाल

स्टाफ
(लघुकथा)
सुरेश एक गाँव का नौजवान . उम्र करीब 18 साल . पिता एक दिन बोले 'सुरेश आज बेलों के जोड़ी ले जाओ और कुंवे वाले खेत पर हल चलाओ . ना-नुकुर के साथ वो हल व दोनों बेलों के साथ खेत पर पहुंचा . बैलों को जोतने के साथ ही मोटे सोटे से बैलों को मारने लगा. उधर से रामू काका जा रहे थे. बोले 'सुरेश हल चला रहे हो'. 'हाँ काका' सुरेश बोला . काका बोले 'बेटा आप का माल की बाप का माल ' सुरेश बोला ' हैं हैं काका बाप का माल . ' तभी ' काका बोलते हुवे रवाना हो गए. कुछ बर्षों बाद सुरेश के पिता गुजर गए . बैल भी बूढ़े होकर मर गए. अब सुरेश के कन्धों पर पूरा भार आ गया. वो एक बूढ़े बैलों की जोड़ी खरीद कर लाया. उनको लेकर खेत जोत रहा था. बैल दो-चार कदम चलते व रुक जाते. सुरेश उन्हें बड़े प्यार से बोलता ' चल मेरे राजा ,चल मेरे बच्चे ,बहुत अच्छे ..आदि-आदि ' उधर से बुजुर्ग रामू काका गुजर रहे थे. बोले 'सुरेश हल चला रहे हो, ये बताओ आपका माल की बाप का माल 'सुरेश बड़े भी गंभीर आवाज में बोला ' काका पिताजी तो गुजर गए , अपना ही माल है.' काका बोले 'तभी-तभी ' और आगे बढ़ गए.
-०-

पता:
श्याम मठपाल
उदयपुर (राजस्थान)

-०-


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माँ (कविता) - डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)

माँ
(कविता)
माँ मैं हूँ गुडियाँ
सुन रही हो मेरी आवाज़
मैं तुम्ही से बोल रही हूँ
सुन रही हो मेरी आवाज़
माँ बताना इतनी
सहमी सहमी तुम क्यूँ हो
क्यूँ डरी डरी सी हो माँ
मै आनेवाली हूँ दुनिया में
इसका डर है तुझे
क्या हो रहा है दुनिया में
जिसका तुझे डर है माँ ।

माँ
बेटी मुझे तेरे आने से डर नही
डर तो उन दरिंदों का है
जो तुम्हें नोचने बैठे है
डर तो तेरे यौवन का मुझे
जो तेरे यौवन पर
काकभुशुण्डि आँख लगाकर बैठे है
मैं जितना भी तुम्हे छुपा लूँ
पर वो रक्कस तुमपर हावो हो जायेंगे
नौ महीनों की कोख मेरी
नन्ही सी , नाजूक वो परी
बिना मतलब के
उन रक्कस की
बली चढ़ जायेगी
तेरी माँ रोने के अलवा
कुछ भी नही कर पायेगी
खुदको कोसती रहूँगी
तो कभी ऊपरवाले को
मै कोसती रहूँगी ।।

बेटी
माँ सुन ना
मै रोज रोज
पापा को सुनती हूँ
कहते है ना वो,
मेरी बिटियाँ रानी
बनेगी नये भारत की
नयी नारी
फौलाद सी होगी वो
निडर बनके जियेगी
हमारे देश के लिए
मिसाल बनेगी
बनकर रानी लक्ष्मीबाई
करेगी खात्मा उन
काकभुशुण्डियों की
जो कु - नजर रखेंगे
उनकी आँखें नोच लेगी
बनेगी भारत माता की
एक शूर वीर पुत्री
करगी रोशन अपने
पिता का नाम
ऐसी होगी मेरी बेटी
देख माँ तू अब ड़रना छोड़ दें
एक वीर माँ की तरह
वीर बेटी को जनम दें ।।-०-
पता :
डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)
बेलगाव (कर्नाटक)  


-०-

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जाड़े की धूप (कविता) - गीतांजली वार्ष्णेय

जाड़े की धूप
(कविता)
कितनी प्यारी लगती है जाड़े की ये धूप"
थर थर काँपें,सूरज दादा जब जाते छुप।
सुबह कुहराआया था,घुप अंधेरा छाया था,
बहुत दिनों में आज खिला है,अम्बर का ये रूप।।
कितनी प्यारी लगती है,जाड़े की ये धूप।

लुका छिपी खेल रहे,बादलों बीच डोल रहे,
सूरज दादा फैला रहे,जग में गुनगुनी ये धूप।
जीवन का अंग जैसे बुढ़ापे में
आ जाये जवानी का वो रूप।।
कितनी प्यारी लगती है,जाड़े की ये धूप

जाड़ा प्रतीक संघर्षों का,
दुख के साथ सुख का प्रतीक
बन जाती ये धूप ।।
कितनी प्यारी लगती है जाड़े की ये धूप।।
-०-
पता:
गीतांजली वार्ष्णेय
बरेली (उत्तर प्रदेश)
-०-
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