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Tuesday, 31 March 2020

सात रंग होली के (कविता) - डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)

सात रंग होली के
(कविता)
सात रंग होली के
किस रंग में रंग जाऊँ
सारे रंग अपने हैं
किस रंग में रंग जाऊँ ।।

लाल रंग है मेरे प्यार का
पिला रंग मेरे अपनों का
नीला रंग मेरे श्याम का
हरा रंग इस सृष्टि का
गुलाबी रंग मेरे राधे का
सफेद रंग हम सबके शांति का
अब बोल रे ! राधेय
मैं किस रंग में रंग जाऊँ
रंग है बेशूमार
मुझे इन सबसे है प्यार
सात रंग की होली
बता किस रंग में रंग जाऊँ ।।

सुन ! वसुधा मेरी
तू है सबसे प्यारी
ओढी है तुने
हरे रंग की चुनरी
तुझपर उधेड़  दूँ मैं
रंग गुलाबी 
तू भी लगे मुझे
राधा सी प्यारी 
सात रंग की होली ।।
-०-
पता :
डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)
बेलगाव (कर्नाटक)  


-०-

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"जीवित हैं संस्कार अभी " (लघुकथा) - रंजना माथुर

"जीवित हैं संस्कार अभी "
(लघुकथा )
“चलो कुछ खा पी लें”
पापा से बिट्टू बोले।
बिट्टू माँ-पापा के साथ रेस्टोरेंट में बैठा था।
मैन्यू कार्ड बिट्टू के हाथ में था।
उसने मसाला डोसा या पनीर डोसा और पाव भाजी आर्डर करनी चाही।
वेटर को बुला कर आर्डर किया तो वह सकुचा कर बोला – “साॅरी सर पाव भाजी अवेलेबल नहीं हो पाएगी। प्लीज़ कुछ और आर्डर कर दें।”
पापा कुछ नाराज़ हो कर-“अरे यार"
बिट्टू की ओर देखा।
वह बोला – “कोई बात नहीं। डोसा आर्डर कर देते हैं। ऐसा करो दो पनीर डोसा ले आओ।”
वेटर सहमति कर बोला – “सर। मसाला डोसा ही मिल पाएगा।”
पापा का पारा हाई हो चला-
” क्या तमाशा है। जो चीज़ आर्डर करते हैं वह उपलब्ध नहीं। यह लिस्ट यहाँ क्या मज़ाक के लिए लगाई है या कस्टमर को तंग करने के लिए।”
बेचारे वेटर का हाल खराब। उसे डर कि कहीं कस्टमर की आवाज़ मैनेजर के काउन्टर तक पहुंच गई तो नौकरी की छुट्टी।
माँ जब तक पापा को शांत करतीं तब तक बिट्टू धीरे से माँ से बोला – “माँ इसमें इनका क्या दोष। इन छोटे कर्मचारियों से पापा इतनी ज़ोर से न बोलें, प्लीज़ उन्हें मना कीजिए।”
” माँ ये वैसे ही दुखी होते हैं और इस व्यवहार से तो वे अपने आप को बिल्कुल डाउन फील करते हैं।”
“माँ इन लोगों से कोई दुर्व्यवहार करता है तो मैं इनकी जगह खुद अपने आपको खड़ा हुआ पाता हूँ। मानों यह सब मेरे साथ ही घटित हो रहा है।”
आज की जेनरेशन में पले-बढ़े बेटे के मुख से मानवता की भावना दर्शाती बड़ी बात सुनकर माँ हैरान भी थी और गर्वित भी। आज भी हमारे संस्कार जीवित हैं।
-०-
पता: 
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)


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आह्वान (कविता) - ज्ञानवती सक्सेना

आह्वान
(कविता)
सुनो,मेरी हमवतन कोशिकाओं
आओ,अपनी जिम्मेदारी निभाओ

हम हिदायतों में करें ना लापरवाही
हम आने ना दें कोई भयावह तबाही

फीका पड़ गया दुनिया का रंग
चीन अमेरिका तक हुए हैंअपं थेग

महकी फिजाएं हो न जाए बदरंग
हम कदम मिलाएं सरकार के संग

हम एकजुट हो करें कोरोना से जंग
‌ दुनिया सारी की सारी रह जाए दंग
-०-
पता : 
ज्ञानवती सक्सेना 
जयपुर (राजस्थान)
-०-

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कोरोना (कविता) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

कोरोना
(कविता) 
मुझे विश्व में अब
सभी पहचानते
मेरे ही डर से
सभी मुंह ढककर फिरते
मैं छिपी थी
चीन के यूहान में
अवसर देख
निकल आई दुनिया घूमने ।
सात बहनों से
मैं सबसे छोटी हूँ
जल, स्थल , आकाश
तीनों लोको में घूमती
लेकिन घर बसाती
प्राणियों की फेफड़ों में ।
खासी और छींक में
बाहर निकल कर
नए शिकार
तलाशती हूँ ।
सर्दी खासी जुकाम बुखार
और जब साँस लेने में
हो तकलीफ
जांच कर लेना
हो सके
मैं हूँ तेरे यहाँ ।
जानना नहीं चाहोगी
मैं कौन हूँ!
सुनो बताती हूँ
मैं वायरसों की मल्लिका
मैं हूँ नोबल कोरोना ।

मुझसे अगर चाहो बचकर रहना
बाहर के चीज़ और ठंडा न खाना ।
करमर्दन और गले मिलना छोड़
सदा दूर से ही सबको हाथ जोड़ ।
साबुन से बार बार हाथ धो लो
एक मुखौटे अवश्य पहन लो ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

-०-

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जिंदगी तुझसे (कविता) - दिनेश कुमार चतुर्वेदी

जिंदगी तुझसे
(कविता)
जिंदगी तुझसे शिकायत है सभी को
रास तू आती नहीं क्यों हर किसी को

प्यार केवल रूप से होता नहीं है
चूसता भँवरा नहीं है हर कली को

हर तरफ चेहरे पै चेहरा लग रहा
आदमी ही छल रहा है आदमी को

हर किसी में ही कमी क्यों ढूँढते हैं
देख भी लें हम कभी अपनी कमी को

दर्द से भी दोस्ती होती मजे की
क्यों तरसता है भला तू बस खुशी को

ये गलत है वो गलत है कह रहे हैं
बोल क्यों पाते नहीं हैं हम सही को

दुश्मनी से कुछ भला होता नहीं है
हम बदल दें दोस्ती में दुश्मनी को
-०-
पता:
दिनेश कुमार चतुर्वेदी
खोखरा
जांजगीर चांपा (छत्तिसगढ़)

-०-

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