मने आँसू की
मने आँसू की लाशों को पलकों में दफनाया है
दुख का सागर पीकर सबकुछ आँखों से समझाया है
दुश्मन को तो भनक नहीं थी मंजिल क्या, रस्ते हैं क्या
अपनी मंजिल से हरदम ही मित्रों ने भटकाया है
लपटें अगल-बगल जाएँगी उनको ये अहसास न था
किसी पड़ोसी ने ईर्ष्या से अपना गाँव जलाया है
चार किताबें पढ़कर हम भी राह पुरानी चलते क्यों
जन की पीड़ा पढ़ कर हरदम रस्ता नया बनाया है
शब्द सरल थे, भाव सहज थे, पढ़ने वाले समझे कब
खुद पर कविता लिखकर हमने खुद को अर्थ बताया है
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