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Saturday, 26 December 2020

इस जिंदगी का कितना गुमान है (कविता) - लखनलाल माहेश्वरी


इस जिंदगी का कितना गुमान है

(कविता)
तेरी जिन्दगी का तुझे कितना गुमान है 
चार दिन की है जिन्दगी क्या शान है 
इस शान में कितना तेरा सममान है 
खत्म हो जायेगी यह जिन्दगी क्या गुमान है। ।तेरी जिन्दगी,,,,,,
इस माटी के पुतले पर इतना गुमान न कर 
तेरी क्या ओकात है कितनी क्या शान है 
खत्म हो जायेगी यह जिन्दगी 
चार दिन का मेहमान है। ।तेरी जिन्दगी,,,,,,,,,
यहाँ सब पराये है अपना कोई नहीं है 
मौत से आज तक बच न पाया कोई है 
तू समझता नहीं कैसा तू इन्सान है 
माटी के पुतले तेरी क्या शान है। । तेरी जिन्दगी,,,,,,,,,
जो दुनियां हंसीन नज़र आ रही है 
तेरी औकात को न समझ पा रही है 
यह जवानी तेरी रहने वाली नहीं है 
सब खाक हो जायेगी तेरी जिन्दगानी है ।।तेरी जिनदगी,,
जो कमाया जिन्दगी में सब भूल जायेगा 
चार दिन तेरी याद आयेगी फिर भूल जायेंगे 
प्रेम लखन कहे अब तो सम्भल जा 
अब तो हरि मिलन को तैयार हो जा। । तेरी जिन्दगी,,,,,,
-०-
पता:
लखनलाल माहेशवरी
अजमेर (राजस्थान)

-०-


***
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पलभर की दुल्हन (कहानी) - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

  

पलभर की दुल्हन
(कहानी)

छुटकी को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था । उसे उधार खरीदकर लाई गई सस्ती लाल साड़ी पहना दी गई थी, जो लोग, मिहिलाल के लिए कफन लेकर आये थे वे ही साथ में लाल साड़ी भी ले आये थे और लाल चूड़ियां भीं । हाथों में चूड़ियां और माथे पर बड़ी बिन्दी लगा दी गई थी । छुटकी की आज शादी होने वाली थी एक लाश के साथ । छुटकी समझ नहीं पा रही थी कि वह हॅसे या रोये । उसे दोनों काम करने थे । पहले उसे खुष होना था कि उसकी लंबी प्रतीक्षा के बाद उसकी शादी हो रही है वो भी उससे जिससे वह प्रेम करती है फिर उसे रोना भी था, क्योंकि वह जिससे प्रेम करती है उसका निर्जीव शरीर उसकी आंखों के सामने पड़ा था ।
              एक छोटी सी झोपड़ी के अंदर छुटकी को दुल्हन बनाने का कार्य चल रहा था । झोपड़ी के बाहर एक लाष पड़ी थी जिसके अंतिम संस्कार की तैयारियां की जा रही थीं । पहले शादी होगी फिर अंतिम संस्कार ।  गांव की औरतों ने जोड़-तंगोड़ कर उसे दुल्हन बना दिया था । छुटकी लाष से ज्यादा निःश्चेत नजर आ रही थी । उसकी आंखों के सामने अपने जीवन के पल-पल चित्र की भांति घूम रहे थे ।
             छुटकी एक आदिवासीे गांव की अल्हड़ युवती । मां बाप की प्यारी संतान । दिन भर जंगल में हिरनी जैसी कुलांचे भरना जंगल से उसे प्यार था वह उसके एक-एक रास्ते से वाकिफ थी । रात में मां-बाप के सीने से लग कर सो जाना । उसकी दिनचर्या थी । इस दिनचर्या में बदलाव तब आया जब उसकी दोस्ती मिहि से हो गई । मिहि भी उसके जैसे सामान्य परिवार का इकलौता पुत्र था । बलिष्ठ शरीर और गोरा रंग, छुटकी उस पर लट्टू हो गई । भगोरिया मेला में जब उसे मिहि ने पान खिलाया तो उसका तन-मन लालिमा से रंगा गया था । इस पान खिलाने का मतलब वह अच्छी तरह से जानती थी । अब उसकी दुनिया बदल चुकी थी । धने जंगल के किसी घने पेड़ की छांव में दोनों दिन भर भविष्य की कल्पनाओं में डूबे रहते । यकायक मिहि के परिवार  पर गाज गिरी और उसके मां-बाप दोनों असमय कालकवलित हो गये । मिहि दुःख में पागल हुआ जा रहा था । छुटकी उसको ढाढ़स तो बंधाती पर यह जानती थी कि जिन परिस्थितयां में मिहि रह रहा है, उसमें उसका उसके साथ रहना जरूरी है पर शादी हुए बिना या पचायत की इजाजत के बिना यह संभव नहीं था ।
                    पंचायत ने साफ कह दिया था कि जब तक सारे समाज को भोज नहीं दिया जाता तब तक वे शादी-षुदा नहीं माने जा सकते । पंचायत की यह घोषणा मिहिलाल के लिये किसी वज्रपात से कम नहीं थी । आज उसकी उतनी माली हालत थी भी नहीं कि वह सारे सामाज को भोज दे सके । उसने समाज के लोगों से बहुत अनुनय-विनय किया पर समाज के लोग मानने तैयार ही नहीं हुए, इतना अवष्य हुआ कि पंचायत ने उन्हें बगैर शादी किये साथ-साथ रहने की इजाजत दे दी इस चेतावनी के साथ कि वो जल्दी ही पंचायत को भोज देगा ।
             छुटकी और मिहिलाल साथ-साथ रहने लगे थे । पर उनके आर्थिक हालात नहीं सुधर पा रहे थे । दोनों दिन भर की कड़ी मेहनत करते पर पेट भूखा और तन कम कपड़ों का बना रहता छुटकी ने भोज के लिए कुछ पैसे जोड़े अवष्य थे पर जैसे ही पहली संतान हुई उसमें वे पैसे खर्च हो गए । घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि छुटकी जचकी के बाद आराम कर पाती । दो-तीन दिन में ही उसने फिर काम पर जाना शुरू कर दिया । मिहिलाल उसे रोकता भी पर वह मानती कैसे, वह जानती थी कि पेट में दो दानें तब ही आयेगें जब वह भी मजदूरी करने जाएगी । पहली संतान हो जाने के बाद पंचायत ने उन्हें चेताया था ‘‘ जल्दी से भोज दे दो वरना जाति से बाहर कर दिये जाओगे’’ । दोनो महिनों तक चिंतित बने भी रहे पर उनकी चिंता से कोई हल नहीं निकल पाया । पहली संतान के बाद उनकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती जा रही थी। कई बार तो उन्हें एक टाइम खा कर सो जाना पड़ता था  । छुटकी जंगल से लकड़ी बीन कर लाती और जंगल वाले साहब उसे छुड़ा लेते वह रोती रहती पर किसी को उन पर दया नहीं आती । उस दिन छुटकी और मिहिलाल को भूखा ही सोना पड़ता । इस बीच छुटकी ने एक और संतान को जन्म दे दिया था । अबकी पंचायत ने उन्हें साफ चेता दिया था कि यदि उन्होने समाज को भोज नहीं दिया तो तो वे जाति से बाहर कर ही देगें ।
                  छुटकी और मिहिलाल के सामने भरपेट भोजन की समस्या तो थी ही पंचायत को भोजन कराने की चिंता भी उसे खाये जा रही थी । वह जानती थी जब तक पंचायत को भोज नहीं कराया जाएगा तब तक वे पति-पत्नी नहीं माने जाएंगे ऐसे में उनकी संतानों को क्या नाम दिया जाएगा ।
                   जंगल में काम मिलना मुश्किल होता जा रहा  था ।  छुटकी और मिहिलाल के उपर दो-दो संतानों की जिम्मेदारी आ पड़ी थी फिर भी वे पंचायत की धमकी को भुला नहीं पा रहे थे । हताषा और निराषा के दौर में मिहिलाल ने जंगल में एक कोयला खदान में काम करना शुरू कर दिया था । छुटकी कोयला खदानो में रोज  होने वाली  घटनाओं को  जानती थी  इसलिए  वह नहीं चाहती थी कि मिहिलाल खदान में काम करे  । जगंल में काम मिल नहीं रहा था जंगल के अफसर सारा काम मषीनों से करा लेते थे । काम नहीं मिलेगा तो बच्चों का पेट कैसे भरेगा । उनका पेट तो फिर भी जैसे-तैसे भरा जाये पर पंचायत को भोज तो देना ही था । अब जब उसके सामने कोई विकल्प नहीं रहा तब उसे यह स्वीकार करना ही पड़ा । जब तक मिहिलाल खदान से लौट कर नहीं आ जाता तब तक वह बैचेन बनी रहती । खदान का काम अधिक श्रम वाला था । उसे दिन भर कात करते रहना पड़ता था । लगातार की भुखमरी और पारिवारिक हालातों ने उसकी षारीरिक क्षमताओं को कम कर दिया था । वह थकाहारा लौटता और रात भर दर्द और बैचेनी के चलते करवटें बदलता रहता । छुटकी इस हालत को देख रो पड़ती । उसने कई बार उसे खदान का काम छोड़ देने को बोला था पर वह मानने को तैयार नहीं था । मिहिलाल के सामने पंचायत को भोज देने का मुखिया का फरमान सामने आ जाता और वह अपनी सारी पीड़ा भूलकर काम पर चला जाता ।
मिहिलाल का शरीर कब तक ज्यादती सहता । एक दिन मिहिलाल खदान में ही चक्कर खाकर गिर गया । खदान के लोग उसे घर में पटक कर चले गए । छुटकी को काटो तो खून नहंीं । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे । गांव में उसकी मदद करने वाला सिवाय उसके बाप के और कोई नहीं था । अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ वह कहां जाए, वह पूरी तरह टूट चुकी थी । उसके पिता ने मिहिलाल को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया था । पर उसका इलाज दवा के अ्रभाव में  नहीं हो पा रहा था । असहाय छुटकी अस्पताल के सामने बैठी रो रही थी । उसे रोते हुए देख वहां से आने जाने वाले उसे पैसे दे रहे थे । छुटकी ने हिम्मत कर उन पैसों से मिहिलाल के लिए दवायें खरीदीं । वह जब तक वहां पहुंचती मिहिलाल के प्रान पखेरू उड़ चुके थे ।
            अस्पताल के कर्मचारियों ने पूरी बेर्ददी के साथ उसकी लाश को अस्पातल के सामने रख दिया था । उस लाश से लिपट कर छुटकी रो रही थी । उसे रोता देख उसके दोनों बच्चे उससे लिपट कर रो रहे थे ‘‘ मां......म....त......रोओ.........मां  ।’’ नन्हीं आवाज उसकी रूलाई को बंद नहीं करा पा रही थी । उसका पिता अपने आपको जैसे तैसे सम्हाले हुए लाष को गांव ले जाने की जुगत भिड़ा रहा था । उनकी बदकिस्मती यह थी कि उनके पास पैसे नहीं थे, इस कारण न तो सरकारी एम्बुलेंस उसको ले जाने को तैयार थी और न ही कोई अन्य गाड़ी । छुटकी और उसके बच्चे रात भर मिहिलाल की लाश के गले लगकर रोते रहे । दिन निकलने के पहले उसके पिता ने लाश को अपने कंधे पर डाला और छुटकी ने अपने दोनों बच्चों की उंगलियां पकड़ी और चल दिये अपने गांव की ओर । गांव वैसे भी दूर था और उसके पिता के कंधे बुढ़ापे के कारण कमजोर । वे ज्यादा दूर नहीं चल पाते वे रूक जाते सुस्ताते और फिर चल पड़ते । दोनों को गांव तक पहुंचने में दोपहर हो गई थी । भूखे बच्चे, असहाय छुटकी और  बूढ़े बाप, लंबा सफर आंखों से न थमने वाले आंसू । मिहिलाल तो लाश बन चुका था उसका निर्जीव शरीर हर कदम के साथ डोलता चल रहा था । रास्ते भर उन्हें ऐसा कोई नहीं मिला जो उनकी मदद करता ।
  घर के सामने लाष को रख दिया गया था । गांव में मिहिलाल की मौत की खबर जैसे-जैसे फैलती जा रही थी वैसे-वैसे गांव के लोगों का आना प्रारंभ हो चुका था । पंचायत के लोग जमा हो चुके थे । सभी के सामने एक ही प्रश्न था कि उनके भोज का क्या होगा । जब तक भोज नहीं तब तक छुटकी, मिहिलाल की पत्नी नहीं मानी जा सकती और न ही वे बच्चे मिहिलाल की संतान माने जा सकते । फिर लाष को आग कौन लगायेगा । छुटकी का बाप हाथ जोड़े पंचायत के सामने खड़ा था । पंचायत को फिलहाल इस बात की
चिंता नहीं थी की मिहिलाल की मौत हो गई है और न ही इस बात की चिंता थी कि उसके बच्चे भूखे प्यासे हैं ।
‘‘ मेरी बेटी के पास क्रियाकर्म करने पैसे नहीं हैं, वो आप सब को भोज कैसे करायेगी आप हम पर रहम करें । ’’
           छुटकी का बाप गिड़गिड़ा रहा था । पंचायत के लोग बेषर्म हो चुके थे ।  ‘‘ नहीं उसे भोज कराना ही पड़ेगा, पंचायत को भोज कराये बगैर हम उसे मिहिलाल की पत्नी नहीं मान सकते ।’’
पंचायत के मुखिया ने साफ कह दिया था ।
‘‘ पर.....उसके पास पैसे नहीं ....हैं .......तो हमें कुछ तो मोहलत .....देनी चाहिए’’ पंचायत के सदस्य ने डरते हुए यह कहा । पंचायत खामोष हो गई । वे अपने सदस्य की बात को नहीं काट पा रहे थे । आपस में खुसर-पुसर प्रारंभ हो गई । सभी एक मत नहीं थे । कुछ लोगों का साफ कहना था कि पंचायत ने इन्हें पर्याप्त अवसर दे दिया । इसी के कारण दो-दो बच्चे पैदा हो गये अब फिर समय दे भी दिया गया तो क्या गारंटी है कि छुटकी भोज करा ही देगी । फिर मिहिलाल का श्राद्ध भी तो किया जाना है वह श्राद्ध करायेगी या भोज करायेगी । श्राद्ध का नाम आते ही पंचायत में फिर खुसर-पुसर होनी शुरू हो गई । अंत में यह तय किया गया कि छुटकी को श्राद्ध करने तक की मोहलत और दी जाए वह श्राद्ध कराये और उसी को भोज मान लिया जाए । सभी ने इसका समर्थन कर दिया । अब समस्या छुटकी के विधि विधान से ब्याह की थी । मिहिलाल तो जीवित नहीं था फिर उसकी मांग कैसे भरी जाए । जब तक मांग नहीं भरी जाएगी तब तक उसे ब्याहता कैसे माना जाएगा । पंचायत ने फैसला किया कि लाष से छुटकी की मांग भर दी जाए । मिहिलाल के अंतिम संस्कार के पहले छुटकी को दुल्हन बनाया जाए, उसकी मांग भरी जाए फिर उसकी मांग पौछ दी जाए और उसे मिहिलाल की विधवा बना दिया जाए । पंचायत के फैसले को सभी ने मौन रह कर सुना ।
                 छुटकी पंचायत के इसी फैसले के चलते महिलाल की लाश घर के सामने पड़ी होने के बाबजूद दुल्हन बन रही थी । उसे अपने बच्चों को बाप का नाम दिलाना था । छुटकी को गांव की औरतों ने मिलकर दुल्हन बना दिया था । दुल्हन बनी छुटकी को लगभग खींचकर बाहर लाया गया । दो लोगों ने मिहिलाल के निर्जीव पड़े शरीर से बांये हाथ को पकड़ा और सिंदूर की डिब्बी में उसकी उंगलियां डुबाकर छुटकी की मांग को भर दिया गया । लोगों ने तालियां बजाईं । छुटकी आज मिहिलाल की पत्नी बन गई थी । उसकी मांग को सजे पल भर भी नहीं हुआ था कि गांव की औरतों ने छुटकी की मांग से सिंदूर पौछ दिया और उसकी चूड़ियों को तोड़ दिया गया । छुटकी की आंखों का बांध टूट चुका था । छुटकी रो रही थी । रोते-रोते उसकी हिचकी बंध जाती थी पर कोई नहीं था जो उसको सान्तवना दे सके ।
                   मिहिलाल का क्रियाकर्म हो चुका था, अब उसकी श्राद्ध होना था । छुटकी अपने भूखे बच्चों को अपने जिगर से चिपका कर भीख मांग रही थी । उसे श्राद्ध करना था उसे पंचायत को भोज कराना था, ताकि उसके बच्चों को अपने पिता नाम मिल जाये ।
-०-
पता:
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)
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*ऑनलाइन शिक्षा का नवाचार* (कविता) - बच्चू लाल दीक्षित


*ऑनलाइन शिक्षा का नवाचार*

(कविता)
शिक्षा में नवाचार कोरोना लेकर आया है 
घर बैठे स्कूल लग रहे ऑनलाइन पढ़वाया है

क्या होगा नन्हे मुन्नों का प्राथमिकी के पाठ पढ़ रहे
  झाड़ू पोंछा वाली माई पर बोलो क्या उपकार कर रहे
 शालाएं तो बंद पड़ी हैं मोबाइल बिन ज्ञान दे रहे
बिन कक्षा और परीक्षा का छात्रों को उपहार दे रहे

अध्ययन अध्यापन की शर्तों को तुम  याद करो 
मध्यान्ह भोजन की बचत राशि का ध्यान धरो 
उसी राशि से घर घर में एंड्राइड का विस्तार करो
झुग्गी पथ गामी बच्चों की पढ़ने की योजना धरो

बिना पढ़ाई और परीक्षा  कक्षोन्नति निराली है 
बिन बोए बिन सींचे कैसे क्यारी में  हरियाली है

यदि आम हथेली पर उग जाए क्यों खेती अपनाएंगे
 पेट भरे बिन कौर निवाला क्यों पानी पेट हिलाएंगे
 सेटेलाइट से शिक्षा दीक्षा बटुक को पंगु बनाएंगे
जिनकी लाठी में बल है भैंस वही ले जाएंगे।।
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पता:
बच्चू लाल दीक्षित
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)

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चलो कुछ अच्छा करते हैं.. (कविता) - गोविन्द सिंह चौहान

 

 चलो कुछ अच्छा करते हैं..
(कविता)
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरों की हटे उदासी  दिल में, वो हँसी भरते हैं।
सन्तुष्ट जीवन जीने का पाठ पढ़ लें वरना,
चेतना शून्य होते मानवता के रिश्ते,
खबर बनते हैं।

एक करोड़ो का मालिक बेचारा बाप,
पुत्र की चाह का मारा बेघर बेसहारा हो जाता है,
झरते आँसुओं में रिश्तों के दर्द बह जाते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरों की हटे उदासी दिल में, वोहँसी भरते हैं।

दूसरा किस्सा और भी शर्मसार कर जाता है।
एक अरबपति महिला का तन,       बनके कंकाल रह जाता है।
सभ्य समाज में एक फ्लेट ही, शवगृह बन जाता है।
माँ की मृत्यु के सालभर बाद सपूत घर आते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरे की हटे उदासी दिल में , वो हँसी भरते हैं।

 बात जो हर युवा को समझाती है,
सास-बहु के झगड़े में पति की बलि हो जाती है।
अधिकारी की मौत, बिखरते रिश्तों,
की कथा बन जाती है।
परिवार-बीवी के बीच तनाव मौत की रेखा बन जाती है 
रिश्ते  रेल की पटरी पर आकर आत्महंता हो जाते हैं।
चलो कुछ अच्छा करते हैं,
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।

पद,पैसा ,प्रतिष्ठा, शक्ति संकलन,
अहंकार जीवन को खुश नहीं रखते,
समझते है सब सच अपना- अपना
फिर मानव ,जीवन को शांत क्यूँ नही रखते?
चलो कुछ अच्छा करते हैं
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।
 विश्वविजेता शूमाकर
 जिन्दगी  की जंग लड़ता है,
पत्नी की सम्पति सारी बेचकर 
डॉक्टरी ईलाज का बिल भरता है।

जीवन के छोटे प्रवास में कैसे-कैसे सबक मिलते हैं
इंसा नफरत और धर्म में क्यूँ झुझते हैं
चलो कुछ अच्छा करते हैं
चेहरे की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं।

रूपया जरूरत तो है,खुद हाथों, खर्च नहीं करता है।
घर-परिवार और दोस्तों से, जीवन बनता है।
भाग्य का एक हस्तक्षेप सब कुछ 
बदल देता है।
संग्रही संपत्ति, समस्याओं से निपटना पड़ता है
वस्तुओं सा मानव नगण्य,शक्तिहीन बनता है।
जी लो जी भर आज के पल, कल कभी नहीं बनते हैं।

चलो कुछ अच्छा करते हैं...
चेहरों की हटे उदासी दिल में, वो हँसी भरते हैं...  
-०-
गोविन्द सिंह चौहान
राजसमन्द (राजस्थान)


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