दो पहिए
(कविता)
हैं दो पहिए, मेरे पास भी,
पर धुआँ नहीं उड़ाती हूँ ।
रफ्तार है मेरी धीरे-सी,
पर मंजिल तक पहुंचाती हूँ।
बच्चें, बूढ़ें और बड़ें
सबके मन को भांति हूँ।
हूँ पुरानी शैली मैं पर,
नूतन-सी झलक दिखलाती हूँ।
आज नहीं, कल भी था मुझ पर,
सेहत को विश्वास।
दोस्ती मेरी रही हमेशा
तंदरुस्ती के साथ।
अच्छी नींद, भोजन का पचना,
दर्द घुटनों का, तो कोसों दूर।
अपनाएं जो,नितक्रम से मुझको,
बीमारी उसकी, हो जाएँ भुर्र।
पेड़, पौधे और पंछी प्यारे,
हर वक्त करते, मेरा गुणगान।
जहरीला धुआँ,और अनचाही ध्वनि से ,
मैं न करूँ कभी परेशान।
देती हूँ, कम खर्च सवारी,
महंगाई में, बड़ी वफादार।
दो पहिया होकर भी हूँ मैं,
सहस्त्र पैरों का आधार।
-०-डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
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