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Wednesday, 7 October 2020

दो पहिए (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

 

दो पहिए
(कविता)
हैं दो पहिए, मेरे पास भी, 
पर धुआँ नहीं उड़ाती हूँ ।
रफ्तार है मेरी धीरे-सी, 
पर मंजिल तक पहुंचाती हूँ। 

बच्चें, बूढ़ें और बड़ें 
सबके मन को भांति हूँ। 
हूँ पुरानी शैली मैं पर,
नूतन-सी झलक दिखलाती हूँ। 


आज नहीं, कल भी था मुझ पर,  
सेहत को विश्वास। 
दोस्ती मेरी रही हमेशा 
तंदरुस्ती के साथ। 

अच्छी नींद, भोजन का पचना, 
दर्द घुटनों का, तो कोसों दूर। 
अपनाएं जो,नितक्रम से मुझको, 
बीमारी उसकी, हो जाएँ भुर्र। 

पेड़, पौधे और पंछी प्यारे,
 हर वक्त करते, मेरा गुणगान। 
जहरीला धुआँ,और अनचाही ध्वनि से ,
मैं न करूँ कभी परेशान।

देती हूँ, कम खर्च सवारी,
महंगाई में, बड़ी वफादार।
दो पहिया होकर भी हूँ मैं,
सहस्त्र पैरों का आधार। 
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

***
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📖✍️ किताबें ✍️📖(कविता )- डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया

 

📖✍️ किताबें ✍️📖
(कविता )
हाँ हम किताबें हैं ......
युगों युगों के इतिहास समाज की
       भावनाएँ  संचित रखती हैं ,
जन जन के व्यक्तित्व को
       जीवन मूल्यों से सींचित करती हैं ।
मोह , माया , अहंकार में भटके
       अंधियारे की हम दीपशिखा हैं ,
सृष्टि के जीव मात्र को
        सँवरने की उत्तम जीवन रेखा है ।
  युग युग के मनुष्य भावों के
          दस्तावेज के रक्षक हैं ,
व्यक्ति, समाज के अभिनीत के
           रंगमंच के शिक्षक हैं ।
ऋषि - मुनियों के चिन्तनों की
          अमूल्य संपत्ति का भण्डार हैं ,
वेद, पुराण, महाभारत, रामायण
          उदात्त जीवन के रत्नाकर हैं ।
त्रिभुवन में सावित्री का सत्
           और श्याम की गीता हैं ,
विश्व में पार्वती का तप
            और राम की सीता हैं ।
वेदव्यास, वाल्मीकि, तुलसी
            बुद्ध, गांधी की धरोहर हैं ,
तुलसी, सुर, कबीर, जायसी और
            मीरा की सहोदर हैं ।
साधु-संतों की मंगल वाणी का
            हम किताबें सुर-मंदिर हैं ,
वीरों,शहीदों के त्याग ,समर्पण ,
             शौर्यता के उर-मंदिर हैं ।
मानव उर्मि और चेतना के
            अनंत ज्योति के पुँज हैं ,
आत्मोत्सर्ग के विश्ववाणी के
          गीता सी अमर गूँज हैं ।
उत्तम ,शिक्षा, धर्म, कर्म के
              नेक रास्ते की पाठशाला है ,
श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के
               निर्माण की कार्यशाला है ।
किसान, मजदूर, पीडितों ,
                शोषितों की करुण वेदना है ,
दीन-दुखी, धृणित ,अन्यायी की
                 कोमल प्रेम संवेदना है ।
एक एक ध्वनि में प्राण और
             प्रत्येक शब्द में भाव सुंदर हैं,
एक एक वाक्य में रस और
              परिच्छेद में माधुर्य बरकरार है ।।
हाँ हम किताबें हैं...
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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पावस ऋतु (गीत) - राजेश तिवारी 'मक्खन'

 

पावस ऋतु
(गीत)
गोपीं  गा रहीं  राग मल्लार  , प्यारी पावस की ऋतु आई ।
..........................................................
भक्ति वर्षा ऋतु सम आई,  दई मेघों ने झरी लगाई ।
प्रमुदित मन रहे गायक गाई । प्यारी....................१

गर्मी लू लपटै अब नईया,  अंकुर हरे हरे चरै गईया ।
न ई न ई वनस्पति र ई छाई । प्यारी ....................२

गिरि के शैल सभी धुल गये है, उपवन हरे भरे सब भये है ।
सृष्टि सुरभि सुमन  महकाई । प्यारी .....................३

दादुर वटुक वेद ध्वनि करै, वन में हिरन सुचालै भरै ।
नाचै मोर शोर सुनत बदराई । प्यारी .........................४

झूला झूलन समय सुहाई, प्रिया की देखें राह कन्हाई ।
कान्हा  वंशी मधुर  वजाई । प्यारी.................................५

जामुन आम रसीले भारी , तरू पर अलि समूह छवि प्यारी ।
पक पक पेड़ तरै रहे छाई ।............................६
-०-
पता:
राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी  (उत्तरप्रदेश)

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याद क्या है (कविता) - अमित डोगरा

याद क्या है
(कविता)
यादें क्या है,
यादें जो हमें किसी के होने का
एहसास करवाती है,
यादें जो हमें
किसी को भूलने नहीं देती,
यादें जो अक्सर
तन्हाई में आती है,
यादे उसकी आती है ,
जो प्रत्येक स्थिति में हमारे साथ रहता है,
यादें उसकी आती है,
जिसे हमारे दर्द का एहसास होता है,
यादें उसकी आती है ,
जो हमारी खामोशी को पढ़ लेता,
यादें उसकी आती है ,
जो हमारी प्रत्येक गलती को
माफ कर देता है,
यादें उसकी आती है,
जिसे अक्सर हम छोड़ आते हैं ,
यादें उसकी आती है,
जिसे हम कभी समझ ही नहीं पाते,
यादें उसकी आती है,
उस जैसा कोई ओर मिलता ही नहीं है,
यादे उसकी आती है,
जो पास होकर भी हमसे दूर चला जाता है।
-०-
पता:
अमित डोगरा 
पी.एच डी -शोधकर्ता
अमृतसर

-०-

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जा रहे घर हम (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

जा रहे घर हम
(कविता)
घुट रहा है इस शहर में,
दैहिकी का दम,
जा रहे घर हम |

जेलचुंगी पर खड़ा है,
ले दरोगा डंड,
निर्दयी है और देता,
बिना लांछन दंड,
हाथ खाली, पेट भूखा,
और फिर कितने गिनाऊँ,
ये लगे क्या कम ?

गाँव में है एक छोटी
छान, छोटा घेर,
काट लेते दिन पिताजी,
रोज गन्ना पेर,
साथ सोते पेड़-पौधों
के सघन हँसमुख बगीचे,
और ऋतु है नम |

खेत हरियल, है नयापन,
है टहलती वायु,
लोग कहते, रह यहाँ, है
गगन चढ़ती आयु,
सड़क पर कारें अबाधित,
तेज गति से दौड़ती हैं,
साथ चलता यम |

जल रहे पगडण्डियों पर,
दीपलट्टू आज,
निडर होकर चल रही है,
रात में भी लाज,
चोरबत्ती के बिना है,
साँझ का सावन अकेला,
दुम-कटा है तम |
-०-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


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