*क्या कमाया...?*
(कविता)
संसार-सागर
सिर्फ समय-सराय ,
परमात्मा से बिछड़,
आत्मा यहां आय।
पार्थिव तत्वों को
उसने ही गूँथकर,
घररूपी नश्वर
शरीर बनाया ।
हाथ खुले
रखकर है जाना ,
फिर क्यों सोचे..?
कि क्या
तूने कमाया ..?
पाने से ज्यादा तू
खोकर है जाता ।
मोहमाया के जाल में
उलझ-उलझ रह जाता ।
यहीं पे पाता ,
यहीं पे खोता ।
बस मूर्ख बन ,
जाने क्यों रोता ।
आमदनी तेरी बस
' समय फेर का '।
और कमाई
' हृदय भरा प्रेम का ' ।
जितना समय-चक्र
तेरा धरती पर ।
केवल यहाँ बस
' प्रेम-कमाई ' तू कर ।
यही प्रेम
तेरे साथ है जाना ।
नहीं तो दुनियां ,
जाने भुलाना ।
बंद मुट्टी तू
लेकर है आया ,
मुट्टी बन्द ,
न जा पाएगा ।
मोह के फेर में
पड़कर तू बस,
अंत समय
पछताएगा ।
प्रेम कमाई से
गठरी खाली गर ,
मुँह क्या तू ,
उसको दिखाएगा ।
समय फेर के
चक्कर में बस ,
खाली हाथ आया ,
खाली ही जाएगा ।
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