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Tuesday 31 March 2020

सात रंग होली के (कविता) - डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)

सात रंग होली के
(कविता)
सात रंग होली के
किस रंग में रंग जाऊँ
सारे रंग अपने हैं
किस रंग में रंग जाऊँ ।।

लाल रंग है मेरे प्यार का
पिला रंग मेरे अपनों का
नीला रंग मेरे श्याम का
हरा रंग इस सृष्टि का
गुलाबी रंग मेरे राधे का
सफेद रंग हम सबके शांति का
अब बोल रे ! राधेय
मैं किस रंग में रंग जाऊँ
रंग है बेशूमार
मुझे इन सबसे है प्यार
सात रंग की होली
बता किस रंग में रंग जाऊँ ।।

सुन ! वसुधा मेरी
तू है सबसे प्यारी
ओढी है तुने
हरे रंग की चुनरी
तुझपर उधेड़  दूँ मैं
रंग गुलाबी 
तू भी लगे मुझे
राधा सी प्यारी 
सात रंग की होली ।।
-०-
पता :
डा. वसुधा पु. कामत (गिंडे)
बेलगाव (कर्नाटक)  


-०-

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"जीवित हैं संस्कार अभी " (लघुकथा) - रंजना माथुर

"जीवित हैं संस्कार अभी "
(लघुकथा )
“चलो कुछ खा पी लें”
पापा से बिट्टू बोले।
बिट्टू माँ-पापा के साथ रेस्टोरेंट में बैठा था।
मैन्यू कार्ड बिट्टू के हाथ में था।
उसने मसाला डोसा या पनीर डोसा और पाव भाजी आर्डर करनी चाही।
वेटर को बुला कर आर्डर किया तो वह सकुचा कर बोला – “साॅरी सर पाव भाजी अवेलेबल नहीं हो पाएगी। प्लीज़ कुछ और आर्डर कर दें।”
पापा कुछ नाराज़ हो कर-“अरे यार"
बिट्टू की ओर देखा।
वह बोला – “कोई बात नहीं। डोसा आर्डर कर देते हैं। ऐसा करो दो पनीर डोसा ले आओ।”
वेटर सहमति कर बोला – “सर। मसाला डोसा ही मिल पाएगा।”
पापा का पारा हाई हो चला-
” क्या तमाशा है। जो चीज़ आर्डर करते हैं वह उपलब्ध नहीं। यह लिस्ट यहाँ क्या मज़ाक के लिए लगाई है या कस्टमर को तंग करने के लिए।”
बेचारे वेटर का हाल खराब। उसे डर कि कहीं कस्टमर की आवाज़ मैनेजर के काउन्टर तक पहुंच गई तो नौकरी की छुट्टी।
माँ जब तक पापा को शांत करतीं तब तक बिट्टू धीरे से माँ से बोला – “माँ इसमें इनका क्या दोष। इन छोटे कर्मचारियों से पापा इतनी ज़ोर से न बोलें, प्लीज़ उन्हें मना कीजिए।”
” माँ ये वैसे ही दुखी होते हैं और इस व्यवहार से तो वे अपने आप को बिल्कुल डाउन फील करते हैं।”
“माँ इन लोगों से कोई दुर्व्यवहार करता है तो मैं इनकी जगह खुद अपने आपको खड़ा हुआ पाता हूँ। मानों यह सब मेरे साथ ही घटित हो रहा है।”
आज की जेनरेशन में पले-बढ़े बेटे के मुख से मानवता की भावना दर्शाती बड़ी बात सुनकर माँ हैरान भी थी और गर्वित भी। आज भी हमारे संस्कार जीवित हैं।
-०-
पता: 
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)


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आह्वान (कविता) - ज्ञानवती सक्सेना

आह्वान
(कविता)
सुनो,मेरी हमवतन कोशिकाओं
आओ,अपनी जिम्मेदारी निभाओ

हम हिदायतों में करें ना लापरवाही
हम आने ना दें कोई भयावह तबाही

फीका पड़ गया दुनिया का रंग
चीन अमेरिका तक हुए हैंअपं थेग

महकी फिजाएं हो न जाए बदरंग
हम कदम मिलाएं सरकार के संग

हम एकजुट हो करें कोरोना से जंग
‌ दुनिया सारी की सारी रह जाए दंग
-०-
पता : 
ज्ञानवती सक्सेना 
जयपुर (राजस्थान)
-०-

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कोरोना (कविता) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

कोरोना
(कविता) 
मुझे विश्व में अब
सभी पहचानते
मेरे ही डर से
सभी मुंह ढककर फिरते
मैं छिपी थी
चीन के यूहान में
अवसर देख
निकल आई दुनिया घूमने ।
सात बहनों से
मैं सबसे छोटी हूँ
जल, स्थल , आकाश
तीनों लोको में घूमती
लेकिन घर बसाती
प्राणियों की फेफड़ों में ।
खासी और छींक में
बाहर निकल कर
नए शिकार
तलाशती हूँ ।
सर्दी खासी जुकाम बुखार
और जब साँस लेने में
हो तकलीफ
जांच कर लेना
हो सके
मैं हूँ तेरे यहाँ ।
जानना नहीं चाहोगी
मैं कौन हूँ!
सुनो बताती हूँ
मैं वायरसों की मल्लिका
मैं हूँ नोबल कोरोना ।

मुझसे अगर चाहो बचकर रहना
बाहर के चीज़ और ठंडा न खाना ।
करमर्दन और गले मिलना छोड़
सदा दूर से ही सबको हाथ जोड़ ।
साबुन से बार बार हाथ धो लो
एक मुखौटे अवश्य पहन लो ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

-०-

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जिंदगी तुझसे (कविता) - दिनेश कुमार चतुर्वेदी

जिंदगी तुझसे
(कविता)
जिंदगी तुझसे शिकायत है सभी को
रास तू आती नहीं क्यों हर किसी को

प्यार केवल रूप से होता नहीं है
चूसता भँवरा नहीं है हर कली को

हर तरफ चेहरे पै चेहरा लग रहा
आदमी ही छल रहा है आदमी को

हर किसी में ही कमी क्यों ढूँढते हैं
देख भी लें हम कभी अपनी कमी को

दर्द से भी दोस्ती होती मजे की
क्यों तरसता है भला तू बस खुशी को

ये गलत है वो गलत है कह रहे हैं
बोल क्यों पाते नहीं हैं हम सही को

दुश्मनी से कुछ भला होता नहीं है
हम बदल दें दोस्ती में दुश्मनी को
-०-
पता:
दिनेश कुमार चतुर्वेदी
खोखरा
जांजगीर चांपा (छत्तिसगढ़)

-०-

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Monday 30 March 2020

सेवा भाव (कविता) - सुनील कुमार माथुर

सेवा भाव
(कविता)
आज हम अपने आपकों
इस देश का सभ्य नागरिक कहते है लेकिन
सेवा भाव से कतराते है
जब दीन दुखियों और
पशु पक्षियों की सेवा की बात करतें है तो
लोग कहते है कि
यह तो मांगने का तरीका है
कोई गाय के नाम से
कोई मंदिर के नाम से
कोई वृध्दाआश्रम के नाम से तो
कोई दीन दुखियों की सेवा के नाम से
आये दिन मांगते ही रहते है
लेकिन हम कहते है कि
आप दीन दुखियों की सेवा करें
गायों की सेवा स्वंय कीजिए
अगर आप गऊशाला मे
दान पुण्य की रकम नहीं देना चाहते है तो
मत दीजिए लेकिन
अपने घर के बाहर
गायों को गर्मी से राहत दिलाने के लिए
पानी की कूंडी तो रख सकते हैं या
पानी से भरा एक टप तो रख सकते हैं
गाय को चारा तो डाल सकते हैं
जब हम अपने घर पर
आये मेहमान से चाय नाश्ते के लिए पूछते है तो
क्या इन मूक गायों के लिए
इतना भी नहीं कर सकतें
-०-
सुनील कुमार माथुर
जोधपुर (राजस्थान)

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अपनी ताकत को पहचानो (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


अपनी ताकत को पहचानो 
(गीत)
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में ,
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।
*****
आदम की योनी तुमने पाई लासानी ।
हर योनी इसके आगे भरती है पानी ।।
भग्यवान हो तुम जो ऐसा अवसर पाया ।
परम पिता ने खुश होकर के तुम्हें बनाया।।
पहचानोगे खुद को तब ही बात बनेगी।
झांको खुद में देखो तुम क्या हो दीवानों।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में ।
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।।
*****
खुद रब ने जिसको अपने सांचे में ढ़ाला ।
भला नहीं क्यों होगा वो उसके गुणवाला ।।
वो सामान दृष्टा बन भेद नहीं करता है ।
वो खुशियों से सबकी ही झोली भरता है ।।
करूणा दया शील संतोष आदि गुण सारे ।
हों जिसमें वो शख्स आदमी है ये जानों ।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहां में।
ऐ लोगो तुम अपनी ताकत को पहचानों।।
********
आदम हैं हम,हैं"अनन्त" उसकी परछाई ।
दूर जो हमसे बैठा है ,हममें है भाई ।।
क्या है गलत सही क्या है हर पल बतलाता।
लेकिन कम अक्लों का उसपे ध्यान न जाता ।।
सबके दिल में बैठा वो,क्योंभटक रहे हम।
पा सकते हैं उसको, ये समझो नादानों ।।
बना खलीफा तुमको भेजा गया जहाँ में।
ऐ लोगों तुम अपनी ताकत को पहचानों ।।
-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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यादों का पिटारा (कविता) - श्रीमती सुशीला शर्मा

यादों का पिटारा
(कविता)
तहखाने में मैंने देखा, इक लोहे का बक्सा
रखा हुआ था उसमें मेरी, किस्मत का लेखा-जोखा
झाड़ पौछ कर खींचा आगे, लगा हुआ था ताला
चाबी लाकर खोला तो, निकली यादों की माला ।

एक कोने में रखे खिलौने , छोटे चकला बेलन
एक कढ़ाई, करछी, थाली, चूल्हा और एक झाड़न
एक तरफ था मेरे प्यारे, गुड्डे - गुड़िया का जोड़ा
बैठ के गुड्डा जिसमें आया, वो भी था एक घोड़ा ।

धूमधाम से हमने मिलकर, उनका ब्याह रचाया
घर के पिछवाड़े में मंडप, फूलों का सजाया
फेरे लेकर गुड़िया रानी, मेरे घर आई थी
मित्र मंडली नाच नाच कर, उसे संग लाई थी ।

पास में कुछ छोटे कपड़े ,जो मुझको चिड़ा रहे थे
जिनकी खातिर लड़ती थी मैं, सब कुछ बता रहे थे
दीदी वाली पुस्तक भी , जो मैनें भी पढ़ डाली थी
ड्रेस भी दीदी वाली थी, जो पहन के स्कूल जाती थी ।

एक छड़ी भी रखी थी इसमें, माँ हमको हड़काती थी
हल्ला ,गुल्ला करने पर वो, इससे हमें डराती थी
कुछ दद्दू की चिट्ठी भी थीं, जिससे हमें बुलाते थे
गर्मी की छुट्टी में हम सब, गाँव घूम कर आते थे ।

गेहूँ, गन्ना, चने, मटर की, फसलें वहाँ लहराती थीं
दूध, दही, घी लस्सी, मक्खन, दादी हमें खिलाती थी
हृष्ट-पुष्ट हो कर आते थे, स्वस्थ सभी रहते थे
लेकिन पढ़ने की खातिर हम, शहर में ही रहते थे ।

बक्से में सब मिला पिटारा, यादें हो गईं ताजा
भूल गए वो सादा जीवन, किससे करेंगे साझा
अब हम दादा-दादी हैं पर, कुछ भी ना कर पाते
क्योंकि बच्चे अब छुट्टी में ,परदेस घूमने जाते ।

अब तहखाना होता है पर, बक्सा ना होता है
ना वैसे गुड्डे -गुड़िया का, ब्याह कोई करता है
ना दादी की चिट्ठी होती, ना पीपल की छाँव
कृत्रिम जीवन हुआ आज है, ना मिलता विश्राम ।
-०-
पता:
श्रीमती सुशीला शर्मा 
जयपुर (राजस्थान) 
-०-


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सेनानी (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

सेनानी
(लघुकथा)
"सेठजी, मेरे लिए सफेद रंग का पंद्रह मीटर और हल्का नीला रंग का पाँच मीटर कॉटन कपड़ा निकाल दीजिएगा।" रग्घू दर्जी ने कहा।
"क्या कर रहा है रग्घू इतना सूती कपड़ा ?" दो दिन पहले भी दस मीटर ले कर गया था।" सेठजी ने पूछा।
"मास्क बना रहा हूँ सेठजी। बहुत माँग है। कोरोना वायरस का कहर तो आप देख ही रहे हैं। अभी और बनाऊँगा।" रग्घू ने बताया।
"अरे वाह, तुम्हारी तो लॉटरी निकल गई। पाँच रुपए की लागत में डेढ़-दो सौ रुपये तक अंदर कर रहे हो।" सेठ जी ने आँख मारते हुए कहा।
"ऐसी कोई बात नहीं है सेठजी।" रग्घू ने कहा।
"मैं सब समझता हूँ रग्घू। चलो मैं तुम्हें एक जबरदस्त ऑफर देता हूँ। तुम जितना चाहे मेरी दुकान से कपड़े ले लो, और मास्क बनाओ और उसे मुझे ही बेच दो। मैं तुम्हें प्रत्येक मास्क का डेढ़ सौ रुपये दूँगा। बोलो मंजूर।" सेठ जी उत्साहपूर्वक बोले।
"माफ कीजिएगा सेठजी। मुझे ये सौदा मंजूर नहीं है। मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता, जिसकी मंजूरी मेरी अंतरात्मा न दे।" रग्घू ने हाथ जोड़ दिए।
"लगता है तू पगला गया है। ऐसे तो तू जिंदगी भर गरीब के गरीब ही रहेगा।" सेठ जी ने उसे ललचाया।
"आप कुछ भी समझ सकते हैं सेठ जी। मैं अपना सिद्धांत नहीं बदर सकता। आज देशवासियों की सेवा का अवसर मिला है तो पीछे नहीं हटूँगा। कोरोना वायरस के विरुद्ध जारी संघर्ष में मेरा पूरा परिवार अपने स्तर पर लगा हुआ है। हम पति-पत्नी लगातार मास्क बना रहे हैं, और हमारे दोनों बच्चे मात्र दस रुपए प्रति मास्क की दर पर बेच रहे हैं, जबकि कुछ लोग बाजार में यह डेढ़ से दो सौ रुपए में भी बेच रहे हैं। और हाँ, हम एक ग्राहक को अधिकतम दो ही बेचते हैं।" रग्घू ने बताया।
"तभी तो कह रहा हूँ कि तुम ही नहीं, तुम्हारा पूरा परिवार पगला गया है।" सेठ जी ने खिसियानी आवाज में कहा।
"सेठ जी, जब महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोग अपने सारे ऐश ओ आराम छोड़कर देश की सेवा का संकल्प लिए, तब लोगों ने उन्हें भी पागल ही समझा था। पर आज.... कोरोना के विरुद्ध संघर्ष में सिर्फ डॉक्टर और सरकार की भागीदारी जरूरी नहीं, हम सबकी भागीदारी जरूरी है। यहाँ हम सबको सेनानी बनना होगा, जब हम सभी अपने-अपने स्तर पर इस लड़ाई में भागीदारी करेंगे, तभी इसे परास्त कर सकेंगे। वरना..." रग्घू अपनी ही रौ में बोलता चला गया।
"मुझे माफ कर दो रग्घू भाई। मैं कुछ देर के लिए स्वार्थी हो गया था। तुम्हारी बातों ने मेरी आँखें खोल दी है भाई। आज जब हमें अपने देश और देशवासियों की सेवा का अवसर मिला है तो पीछे नहीं हटना चाहिए। मैं भी तुम्हारे इस मिशन में सहयोग करना चाहता हूँ। तुम्हें जितना चाहे, सूती कपड़ा मेरी दुकान से लो। मैं तुम्हें खरीदी मूल्य पर ही दूँगा, और अगर तुम चाहो तो तैयार मास्क मेरी दुकान में बेच सकते हो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उन्हें निर्धारित कीमत पर ही बेचूँगा। यही नहीं आज से बल्कि अभी से मेरे यहाँ काम करने वाले दोनों दर्जी प्रतिदिन कम से कम 50-50 मास्क सिलेंगे, जिन्हें मैं शाम को मंदिर के पास खड़े होकर जरूरतमंद लोगों को मुफ्त में बाँटूँगा।" सेठ जी प्रफुल्लित मन से बोले।
"वाह ! ये तो बहुत ही उत्तम विचार है सेठ जी। कोरोना के विरुद्ध हम सब मिलकर लड़ेंगे, तभी कामयाबी हासिल होगी।" रग्घू ने सेठ जी की ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखते हुए कहा।
"हारना तो हम भारतीय नहीं जानते। जीतेंगे तो हमीं रग्घू। चलो अभी से मिशन पर लग जाते हैं।" सेठ जी अपने दोनों दर्जियों को बुलाकर आगे की रणनीति समझाने लगे।
-०-
पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-

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अपनत्व का भाव भरें (कविता) - मोनिका शर्मा 'मन'

अपनत्व का भाव भरें

(कविता)
विचारों की ज्योति जला कर
अंधियारे को दूर करें
अपनत्व का दीपक बनाकर
स्नेह का बंधन बने बने बंधन बने बने।।

राह में जो कंकर पड़े हैं
उनको चुनकर हटाना हटाना होगा
यह गैरों का भाव सबसे पहले
खुद से ही मिटाना होगा ।।

फूलों को जो तोड़ -तोड़ कर
हम फेकेंगे तो
गुलिस्ता कैसे बनाएंगे
प्यार से एक दूसरे का हाथ का हाथ
थाम कर ही तो
काफिला बनाएंगे ।।

उस टूटते तारे से पूछो
किस जहां में वह जाएगा?
सबकी तमन्नाओं का
सहारा वह बन जाएगा।।

विचारों की ज्योति जलाकर
अंधियारे को दूर करें
अपनत्व का दीपक बनाकर
स्नेह का बंधन बने बने।।
-०-
पता:
मोनिका शर्मा 'मन'
गुरूग्राम (हरियाणा)

-०-

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Sunday 29 March 2020

तिलक होली (लघुकथा) - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'

तिलक होली
(लघुकथा)
लंबी कॉल बेल बजी। घर के सभी सदस्यों ने सुनी। विपुल के पापा स्वयं दरवाजा खोलने के लिए गए। दरवाजा खोलने से पहले रुके।बाहर कुछ फुसफुसाहट हो रही थी।उन्होंने सुनने का प्रयत्न किया। पर कुछ साफ सुनाई नहीं दिया। उन्होंने अंदाजा लगाया ,कौन हो सकता है ? बच्चों के जैसी फुसफुसाहट की ध्वनि आ रही थी ।
आखिर उन्होंने दरवाजा खोल दिया।बच्चे आगे बढ़े और उन्होंने होली की राम-राम की, तथा बारी-बारी से बच्चों ने विपुल के पापा के चरण स्पर्श किए । विपुल के पाप ने सभी को आशीर्वाद दिया । 
बालकों ने पूछा, "अंकल जी! विपुल कहाँ है? हम तो उसके साथ होली खेलने आए हैं । अच्छा ,बच्चों! तुम सभी का स्वागत , होली मुबारक। पर तुम बाहर क्यों खड़े हो। अंदर आओ। होली खेलने के लिए तुम्हारे हाथों में रंग, गुलाल, अबीर पिचकारी,गुब्बारे आदि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहे । इनके बिना तुम होली कैसे खेलोगे ?
इसी बीच अपने दोस्तों की आवाज़ सुन कर विपुल भी आ गया । उसके हाथ में लाल-गुलाबी गुलाल का एक दोना था। उसने उस दोने को सब दोस्तों के बीच रख दिया। सब उसमें से थोड़ी-थोड़ी गुलाल निकाल कर एक-दूसरे के
सिर पर तिलक लगाने लगे,तिलक होली खेलने लगे। "हैप्पी होली, हैप्पी होली, होली मुबारक ,होली मुबारक कह कर एक-दूसरे के गले मिलने लगे ।
घर का वातावरण होली की खुशियों से भर गया। घर के छोटे बड़े सभी सदस्य भी बालकों के साथ मिलकर, तिलक होली खेलने लगे। सभी बालक अपनी-अपनी कविता ,गीत चुटकले आदि सुनाने लगे। माँ जी, अपने हाथ के बने होली के लड्डू लेकर आई । सभी मिलजुल कर खाने लगे और होली की मुबारकबाद भी देने लगे,तथा अपने स्कूल के हेड सर की तारीफ़ करने लगे क्योंकि यह अनमोल आईडिया उनके द्वारा ही दिया गया था।
-०-
पता-
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
सिरसा (हरियाणा)
-०-

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पहले उनसे नजर (ग़ज़ल) - अमित खरे

पहले उनसे नजर
(ग़ज़ल)
पहले उनसे नजर मिला
उसपर एक खुमारी लिख
सबका चुकता करके तूँ
फिर से एक उधारी लिख
बोझ उठाकर थोडा सा
अपनी जिम्मेदारी लिख
छोड़ के मन्दिर मस्जिद को
भूखों की लाचारी लिख
सारी दुनिया नचा रहा जो
उसको बड़ा मदारी लिख
चाल फरेब धोखा गद्दारी
इनको दुनियादारी लिख
सारे चेहरे अलग अलग हैं


उसकी भी फनकारी है
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




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रिश्तों की डोर (कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'


रिश्तों की डोर
(कविता)
रिश्तों की डोर नाजुक ही होती है ।
सहज-सद्भाव से ही बंधी होती है।।

कुछ रिश्ते हल्के-भारी भी होते हैं ।
रिश्तों की उम्र छोटी-बड़ी होती है।।

रिश्ते तो आम तौर पर रिश्ते होते हैं।
रिश्ते निभाने की नीयत ही होती है।।

रिश्ते कुछ क्षणिक और अमिट होते हैं।
रिश्तों की प्रक्रिया भय-प्यार से होती हैं।।

रिश्ते भी आजकल नाम के ही होते हैं ।
कुछ रिश्तों की पहचान नाम से होती हैं।।

रिश्ते भी व्यक्तित्व व चरित्र से बनते हैं।
खून के रिश्ते की उम्र तो ताउम्र होती है।।

रिश्ते घर-समाज, देश दुनियाँ से जोड़ते हैं।
रिश्तों की दुनियाँ धूप-छांव जैसी होती है।।

रिश्ते कर्म-धंधे विविध भूमिका से होते हैं।
'नाचीज'रिश्ते की बुनियाद स्वार्थी होती है।
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

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हम भारतीय (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

हम भारतीय
(कविता)
हमारी मानसिकता...
अनंतकाल से,सहनशीलता।
हम संतोषी...
खोज ही लेते हैं..
दुर्गम से दुर्गम हालातों में भी,
अपनी ख़ुशी।
हम फरियादी ...
जब ना मिले सुख संतोष,
माँग लेते रब से,
करके फ़रियाद।
जब होती कोफ़्त...
जब कोई घटना,
मन को कचोटती,
कहीं किसी रोज़।
दर्द से बिलबिला कर,
अंगड़ाई लेते,
पर करवट नहीं बदलते,
हम भारतीय....
अपनी मानसिकता नहीं बदलते।
जैसा “वो” रखेगा,
रहेंगे..।
कुछ चाहिए तो,
अपने ज़िंदा होने का ,
सबूत भी देंगे।
हम भारतीय ,
सीधे साधे...
बात से कभी नहीं मुकरते ,
दिल माँगोगे,जाँ दे देंगे।
गर कह दें तो,कर के रहते।।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-0-


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उदासियां (कविता) - राजीव डोगरा


उदासियां
(कविता)
कभी-कभी उदासियां
बहने लगती है इन अश्कों में।
जो बातें कही नहीं जाती
वे बह जाती है
अक्सर इन अश्कों में।

मत पूछा करो
इन खामोशियों की वजह
इन तनहा रस्तों से।
बहुत कुछ खोया है
बहुत कुछ पाया है
अक्सर इन गुमनाम रास्तों से।

मत पूछिए
वफ़ा की बातें हम से।
बहुत दिल लगाया है
और बहुतो से
दिल से निभाया है,
मगर फिर भी अक्सर
दर्द ही मिला है
हमें अक्सर सस्ते में।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




***
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Saturday 28 March 2020

जिंदगी में क्या चाहिए (गीत) - अनवर हुसैन

जिंदगी में क्या चाहिए 
(गीत)
जिंदगी में क्या चाहिए
आप की दुआ चाहिए ....

गमों से रहे दूरियां
हंसी हर सुबह चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

सब की सलामती वास्ते
ठंडी -ठंडी हवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

जिसे सुनते रहे उम्र भर
ऐसी मीठी सदा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए....

जीतने का जज्बा मिले
गीर - सी अदा चाहिए
दगी में क्या चाहिए.....

जब भी कोई देखे हमें
चाहती निगाह चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

साथ दे जो उम्र - भर
ऐसा हमनवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

दोस्तों से दोस्ती रहे
दुश्मनों से सुला चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए.....

मुश्किलों में साथ जो दे
साथ वो खुुदा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए.....

हर कोई सलामत रहे
लबों पे दुआ चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

जब तक जिंदगी मिले है
जीने की दवा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......

हर काम आसान हो
रब की रजा चाहिए
जिंदगी में क्या चाहिए......
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

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प्रेम के सब रस रंग (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



प्रेम के सब रस रंग
                    (कविता)
प्रेम प्यार स्नेह सब एक ही पेड़ के अंग
सतरंगी डालो में दिखे प्रेम के सब रस रंग

भाई बहन पितृ और माता
सबका सबसे है प्रेम का नाता
दादा नाना दोस्त और सखियां इनका आपस मै अद्भुत नाता

प्रेमरस की है अजब सी माया इससे कोई भी ना बच पाया
जो ना करे प्रेम किसे से तो
वो प्राणी दानव कहलाता

मुक बाघिर भी प्रदर्शित करते
मौन ही सही पर अपनी भाषा
मुक जानवर भी रखते मन में
प्रेम प्रदर्शन की अभिलाषा

राधा कृष्ण की प्रेम कहानी
हरेक के मन में प्रेम जगाती
एक दूजे पे अटूट श्रद्धा से
बिछड़े जोड़ो को मिलवाती

राधे राधे रट कर देखो
कृष्ण का संग यूं ही पा जाओगे
कृष्णा कृष्णा रटते रहना
प्रेम राधा का पा ही लोगे


युगों युगों तक याद रखी है
हमने लैला मजनू की प्रेम गाथा
ईश्वर की सुंदर सृष्टि में
प्रेम विरक्त कोई कैसे रह पाता

प्रेम करना बुरी बात नहीं
प्रेम से सच्चा कुछ भी नहीं
पर मर्यादा की हद पार करो
बस ये है युवाओं सही नहीं।

आधुनिक काल में बदल गये
प्रेम के सारे प्राचीन पैमाने
आंखों से उतरकर प्रेम आज तो
शर्तों की भाषा पहचाने

प्रेम की मर्यादाये भी तोड़ते
आज के प्रेमी पागल दीवाने
जाके कौन इन्हे समझाए
प्रेमी के होते दिल ही ठिकाने

सच्चे प्रेम की एक ही निशानी
सुनी तो होगी मीरा की जुबानी
कबीर के ढाई आखर का मतलब
कब समझेगी पीढ़ी नई दीवानी

आज प्रेम का अनुपम दिन है
प्रेम ही पाओ प्रेम ही बांटो
गर कोई दुखी मिल जाय
तो गले लगा उसके गम बांटो
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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