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Tuesday, 31 March 2020

कोरोना (कविता) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

कोरोना
(कविता) 
मुझे विश्व में अब
सभी पहचानते
मेरे ही डर से
सभी मुंह ढककर फिरते
मैं छिपी थी
चीन के यूहान में
अवसर देख
निकल आई दुनिया घूमने ।
सात बहनों से
मैं सबसे छोटी हूँ
जल, स्थल , आकाश
तीनों लोको में घूमती
लेकिन घर बसाती
प्राणियों की फेफड़ों में ।
खासी और छींक में
बाहर निकल कर
नए शिकार
तलाशती हूँ ।
सर्दी खासी जुकाम बुखार
और जब साँस लेने में
हो तकलीफ
जांच कर लेना
हो सके
मैं हूँ तेरे यहाँ ।
जानना नहीं चाहोगी
मैं कौन हूँ!
सुनो बताती हूँ
मैं वायरसों की मल्लिका
मैं हूँ नोबल कोरोना ।

मुझसे अगर चाहो बचकर रहना
बाहर के चीज़ और ठंडा न खाना ।
करमर्दन और गले मिलना छोड़
सदा दूर से ही सबको हाथ जोड़ ।
साबुन से बार बार हाथ धो लो
एक मुखौटे अवश्य पहन लो ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

-०-

***
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