मुट्ठी भर सुख
(कविता)
बंजारे की गाड़ी पर सिमटी हुई है गृहस्थी,
खाने-पीने ही नहीं सोने बैठने से लेकर,
मनोरंजन तक की सुविधाओं से युक्त गाड़ी,
सचमुच ! अचरज की चीज है,
जिस मुठ्ठी भर सुख के लिए,
आदमी विकल और बेचैन होता है,
काली लकीरें खींचता है, सौदे तय करता है,
झूठ बोलता है, दौड़-भाग करता है,
पर हर कीमत पर सुख को बांधे रखना चाहता है,
और सुख फिर भी पानी के बुलबुले की तरह
टूट-टूट जाता है,
वही सुख बंजारे की मुट्ठी में कैद है,
क्योंकि भोर होते ही बंजारा,
अपने हाथों की लकीरों को बदलता है,
गर्म रक्त लोहे को हथौड़े से पीट-पीटकर,
गढ़ता है औजार,
और खून उसकी पेशियों को चीरता हुआ,
पसीना बन बहने लगता है,
अनवरत आपादमस्तक,
तब देख कर सब,
श्रम की देवी का सिंहासन भी हिल उठता है,
और वह उसे सूखी रोटी में भी,
वह सुकून और सुख देने के लिए बेचैन हो उठती है,
बंजारे की गाड़ी पर सिमटी हुई है गृहस्थी,
खाने-पीने ही नहीं सोने बैठने से लेकर,
मनोरंजन तक की सुविधाओं से युक्त गाड़ी,
सचमुच ! अचरज की चीज है,
जिस मुठ्ठी भर सुख के लिए,
आदमी विकल और बेचैन होता है,
काली लकीरें खींचता है, सौदे तय करता है,
झूठ बोलता है, दौड़-भाग करता है,
पर हर कीमत पर सुख को बांधे रखना चाहता है,
और सुख फिर भी पानी के बुलबुले की तरह
टूट-टूट जाता है,
वही सुख बंजारे की मुट्ठी में कैद है,
क्योंकि भोर होते ही बंजारा,
अपने हाथों की लकीरों को बदलता है,
गर्म रक्त लोहे को हथौड़े से पीट-पीटकर,
गढ़ता है औजार,
और खून उसकी पेशियों को चीरता हुआ,
पसीना बन बहने लगता है,
अनवरत आपादमस्तक,
तब देख कर सब,
श्रम की देवी का सिंहासन भी हिल उठता है,
और वह उसे सूखी रोटी में भी,
वह सुकून और सुख देने के लिए बेचैन हो उठती है,
जो ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओ के,
शहंशाहों को मयस्सर नहीं होता,
तभी तो रात्रि में खुले
आकाश तले लेटता है जब,
शहंशाहों को मयस्सर नहीं होता,
तभी तो रात्रि में खुले
आकाश तले लेटता है जब,
तो नीम के पेड़ की बयार भी,
उसे वह सुख देती है जो,
एयर कंडीशनर की हवा में लोगों को नहीं मिलता,
वह उसे मीठी नींद सुलाती है,
जो लोगों को स्लीपिंग पिल्स खाने पर भी नहीं आती,
यही तो वह सुख है जिसे उस बंजारे ने,
भाग्य से नही वरन हथेली की रेखाओं को,
श्रम से बदलकर,
अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है।
-०-
उसे वह सुख देती है जो,
एयर कंडीशनर की हवा में लोगों को नहीं मिलता,
वह उसे मीठी नींद सुलाती है,
जो लोगों को स्लीपिंग पिल्स खाने पर भी नहीं आती,
यही तो वह सुख है जिसे उस बंजारे ने,
भाग्य से नही वरन हथेली की रेखाओं को,
श्रम से बदलकर,
अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है।
-०-
प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा, (राज.)
Very nice poem.
ReplyDeleteबहुत ही मारमीक कविता है बहन!आँप को बहुत बहुत बधाई ईश रचना के लिए।
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