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Wednesday, 12 August 2020

उम्र के इस पड़ाव पर (ग़ज़ल) - सपना परिहार


उम्र के इस पड़ाव पर
(ग़ज़ल)
उम्र के इस पड़ाव पर थकना भी लाज़मी है,
अपने हिस्से में आज भी बस थोड़ी सी जमीं है।

वक्त और हालात के सभी मारे है दोस्तों,
बता ए जिंदगी तू किसके लिए थमीं है।

न रात मेरी थी कभी,न दिन उसका है अभी,
हम दोनों के हिस्से में अभी भी कुछ कमीं है।

हसरतों के बाजार से कुछ ख़्वाब खरीद लाये थे हम,
वो हकीकत न बन सके,उसके जिम्मेदार भी हमीं है।

अफ़सोस रहेगा ताउम्र इस बात का,
किसी की बदौलत आज भी इन आँखों में नमीं है।

थकने लगे हैं वो अब जिम्मेदारियों के बोझ से,
उनके काँपते हाथों में अब ताकत की कमीं है।


मुट्ठी भर खुशियाँ ही माँगते है वो उस ख़ुदा से,
वो खुशियाँ भी न जानें क्यों हमसे अनमनीं है।
-०-
पता:
सपना परिहार 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)


-०-
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तब याद उन्हें मेरी आती है...(कविता) लक्ष्मी बाकेलाल यादव

तब याद उन्हें मेरी आती है...
(कविता)
हाँ मेरी सखियाँ भी मुझे याद करती हैं...
अपनी ही धुन में मस्त रहतीं
जब कोई बात बिगड़ जाती है
चारों ओर से हताश जब वह
थक-हार उदास सी हो जाती हैं
तब याद उन्हें मेरी आती है...
हाँ मेरी सखियाँ भी मुझे याद करती हैं...।

भविष्य के सपनों को संजोये
वर्तमान भूल जाती हैं
ख़्वाबों के जंगल में जब यूंही भटकने निकलती हैं
पैरों में काँटा चुभता तब आँखें यूं भर आती हैं
बेमतलब सी दुनिया जब लगती
तब याद उन्हें मेरी आती है...
हाँ मेरी सखियाँ भी मुझे याद करती हैं...।

जिंदगी में जब हलचल सी मच जाती है
कहने-सुनने को कोई पास ना हो तब
भीड़ में भी खालीपन का एहसास हो जब
धीरे से मन में इक कुहूक सी उठ जाती है
तब याद उन्हें मेरी आती है...
हाँ मेरी सखियाँ भी मुझे याद करती हैं...।

वैसे तो बरसों बीत जाते
इकदूजे की ख़बर तक ना रखती हैं
जैसे ही कोई काम निकल आए
तो मिलने की फरियाद वो करती हैं
यह सोच के खूश हो लेती हूं मैं
चलो सुख में ना तो दुख में ही सही
पर याद उन्हें मेरी आती है...
हाँ मेरी सखियाँ भी मुझे याद करती हैं...।
***
पता:
लक्ष्मी बाकेलाल यादव
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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मां तुमसे ही है मेरी उत्पत्ति (कविता) - रोशन कुमार झा

मां तुमसे ही है मेरी उत्पत्ति
(कविता)
मां तूने जन्म दी, पर गर्लफ्रेंड के बिना दिन कटी ,
हम रोशन हमें बनना है न किसी के पति !
बस इसी तरह बढ़ते रहे मेरी सफलता की गति ,
मां तूने मुझे उत्पन्न की और मैं तेरा पुत्र हर रोज़ करता
हूं एक कविता की उत्पत्ति !!

मां सुन लो मेरी कविता , अगले साल की कविता
पर लिखा हूं ये कविता ,
सुन लीजिए आप , पूजने योग्य है पिता !
लिखता हूं पूजा पाठ व करके योग कविता ,
हे ईश्वर,खुदा, मसीहा मत मेरे रोग मिटा ,
हे जिन्दगी तू हमें हरा , हमें न तू जीता !!

हार के आऊं हमें हार से है न आपत्ति ,
चाहे मुझ पर आये लाख विपत्ति !
रहें या न रहे मेरी आंख की गति ,
बस मां तुम्हारी दया बना रहे , जिससे मैं रोज़ करते
रहूं एक कविता की उत्पत्ति !!

सुख-दुख सबके जीवन में है सटी ,
कुछ बनना है , इसलिए सुनता हूं, करता हूं न
कभी किसी का बेइज्जती !
खुद को पहुंचता, पर पहुंचाता हूं न किसी को क्षति ,
हे माँ तुम्हारी दया बना रहे, मैं दुख में भी मुस्कुरा कर
करते रहूं हर रोज़ एक कविता की उत्पत्ति !!
-०-
रोशन कुमार झा
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)

-०-



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एक नया रूप (ग़ज़ल) - प्रशान्त 'प्रभंजन'

एक नया रूप 
(ग़ज़ल)

जब संवेदना ही जी-हजूरी बन जाये
हृदय के भाव भी मजबूरी बन जाये

क्या फर्क है - मरकर जीयें या जी मरें
जब खुद से ही खुद की दूरी बन जाये

घात पर घात मिले अपने ही लोगों से
इंतहाँ में जख्म और अंगूरी बन जाये

एक हों ख्वाब और बिछड़ना नसीब हो
चलते-चलते रास्ते अधूरी बन जाये

बेमक़सद हो जिंदगी और जीना पड़े
ऐसे में एक कहानी जरूरी बन जाये
-०-
पता:
प्रशान्त 'प्रभंजन'
कुशीनगर (उत्तरप्रदेश)

-०-



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