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Monday, 28 October 2019

आओ हम दिवाली मनायें (कविता) - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’


आओ हम दिवाली मनायें
(कविता)
आओ हम ‘दिवाली’ मनाये,
अपने दिमाग की ‘चकरी’ चलाये।
‘फुलझड़ियों’ की तरह मुस्कुराये,
अपने बुलंद हौसलों और इरादों के,
खूब ‘राकेट’ चलाये।
प्यार का एक ‘दीप’ जलाये।
बैर के ‘बम’ छोड़कर,
खुशियों और दोस्ती के,
रंगीन ‘अनार’ जलाये।
इस कलयुगी जहाँ में,
अधर्म और असत्य के,
अँधेरे को मिटाये।
सत्य का एक ‘दीप जलाये।
आओ हम ‘दिवाली’ मनाये।।
-०-
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
नई चर्च के पीछे,शिवनगर कालौनी,कुंवरपुरा रोड,
टीकमगढ़ (म.प्र.)पिन-472001

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दीप मिलन (कविता) - जगदीश गुप्त


दीप मिलन 
(कविता)

दीवाली का पर्व , दीप पर्व
दीप से दीप जले , अन्धकार भगे
मन का अँधेरा भगाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये

गर मन में अहंकार है
एक दूजे की टांग उखाड़ने का दांव है
आज दीप मिलन है
दांव को सीख सिखाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये

मन की गागर की टोह न ली तुमने
भय द्वेष ईर्षा अहं से इसे भरना चाहा
सोचा समय आने पर ये अस्त्र बन जायेंगे
स्वार्थ की दुनिया में हमें सुख पहुंचायेंगे

मत भूलो ये एक दिन शूल बन
आत्मा को चुभायेंगे
नफरत बेईमानी से -
प्यार - नेह भला खरीद पाओगे ?

मन - गागर की गहराई कभी नापी है
गागर के सागर की उत्ताल तरंगों पर
मन की नैया कभी चलाई है ?
ये तो वो अतल समंदर है
जहाँ लक्ष्मी वास करती है
मोती समेटे सीपियाँ आपका
इंतजार करती हैं
पावन गंगा जहाँ समाई है
हर मनोमालिन्य और अवगुण की
जिसने कालिख धुलाई है

मन गागर के सागर में
अपना ठौर आज हमें पाना है
इसके घर में स्वागतम का
वंदनवार हमें सजाना है
दीपपर्व है , मन का दीप जलाना है
मन को मन से मिलाना है
आज की पुकार को सुनते चलिये
दीप मिलन है 
मन का अँधेरा भगाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये.  
-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


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वसुधैवकुटुम्भकम (ललित निबंध) - सुशीला जोशी


वसुधैवकुटुम्भकम
(ललित निबंध)
जी हाँ, वसुधैबकुटुम्भकम अर्थात पूरी वसुधा को अपना एक कुटुम्भ की भवना रखना जो हमारी संस्कृति की आत्मा है, कार्यक्षेत्र है ,एक मानवीय अहसास है । विभिन्न शारीरो में एक ही प्राण तत्व की प्रतिष्ठा की अनुभूति है अर्थात प्राणी मात्र की रक्षा व सहयोग का संकल्प किन्तु हर मानव,हर देश , हर समाज ,हर वर्ग का अपना अपना पृथक अस्तित्व की चमक ,मान , अभिमान और सम्मान देने की एक शपथ भी ।
अपने परिवार की तरह ,हर परिवार को अपना मान दूसरे की कन्या को अपने घर की स्वामिनी बनाने की एक रीत ,एक परम्परा ।उसकी सन्तान को आनेवाली पीढ़ी की इकाई का अधिकार देने का एक वादा । सम्पूर्ण धरा पर रहनेवाले किसी भी नर नारी को मन पसन्द जोड़ा बनाने के अधिकार की एक भावना । यही तो है वसुधैबकुटुम्भकम की विशद दृष्टिकोण रखने वाली भारतीय संस्कृति ।
इस सोच को विशुध्द रखने का एक प्रयास भी । वर्णसंकर नस्ल तो जनवरों में भी स्वीकार नही इसीलिए अपनी जाति, रीति रिवाज और संस्कारों को बचाने की एक भावना का भी समावेश है ।कुटुम्भ जाति ,प्रजाति के भरण पोषण एक संकल्प जिसमें चीटीं से ले कर बड़े से बड़े जानवर को भी अपने परिवार का सदस्य मान लेने की अनुभूति है । उनसे आधिदैविक या अधिभौतिक लाभ कमाने की एक ललक भी । उदार चित्त और परोपकार की पराकाष्ठा भी । विधाता की श्रेणी में मानव को ला कर बैठाने एक मार्ग भी । अंततः पृथ्वी पर निवासित हर प्राणी कुटुंब का ही तो सदस्य है । वही परिवार वही कुटुम्भ जिसमें कभी हिंसा का तांडव होता है तो कभी प्रेम की गंगा बहती है । कभी लेंन देन का व्यापार होता है तो कभी दयाभाव की लहर में सम्पूर्ण समर्पण भी , दान महादान भी और त्याग की साधना भी । सिद्धार्थ सबकुछ त्याग कर बुद्ध हो गए ,वर्धमान राज वैभव को त्याग कर महावीर बन गए और गजराज ने शीश दान में दे कर गणेश की उपाधि पा ली । जब जब त्याग ने कुटुंब में स्थान बनाया त्यागी परमानन्दी हो कर देव श्रेणी में आ खड़े हुए ।यही तो है कुटुंब को बनाये रखने का उद्देश्य जो जगत कल्याण के साथ आत्मकल्याण की राह दिखता है ,एकरूपता के विस्तार के लिए विवधता के दमन का प्रयास नही करता ,तेरे मेरे अधिपत्य को स्वीकार नही करता ,भेदभाव को बढ़ावा नही देता ,अपने पराये के अंतर पर दृष्टि नही गड़ाए रहता ,छोटे बड़े ,ऊँच नीच , जाति धर्म की खाई में नही झाँकता । यही तो है भारतीय संस्कृति की धुरी ,बुद्ध की ज्ञान दृष्टि , और महावीर की सम्वेदना । जो कुछ भी इस धरती पर है उस पर सबका समान अधिकार है इसिलए संचय की आवश्यकता कहाँ ? स्थिति विपरीत हो या पक्ष में वसुधा जीवन दान के के सदैव कटिबद्ध है । पेड़ फल स्वयं झाड़ देते हैं ,सरिता जल बेमोल मिलता है , प्राण वायु सृष्टि बाँटती नही वरन सबके लिए खुला छोड़ देती है ।ईंधन के लिए लकड़ियाँ स्वयं सूख कर झड़ जाती हैं ।स्रष्टा के इस विधान में भला स्वार्थ किस द्वार से प्रवेश करेगा ? उसके इस विधान में केवल ढाई अक्षर का वास है ।यही तो प्रेम है जो आकाश की तरह विशद है विराट ,अद्भुत है ,ललित है और संवेदनशील, ज्ञान और ध्यान है । जहाँ प्रेम नही वहाँ ज्ञान कहाँ और जहाँ ज्ञान नही वहाँ ध्यान कैसा? प्रेम के सरोवर में डूब कर ही तो पूरी वसुधा कुटुंब बनती है । संस्कृति की इस धुरी में परमहंस का मार्ग निहित है जिसके नियम बड़े कड़े हैं जिसका आदेश पत्थर की लकीर है ,जिसमें वृत्ति कुवृत्ति में कोई संयोग नही । जिसका अपना एक जुनून है ,एक धुन है , एक हठ है , एक निश्चितता है ,दृढता है और अपने अपने फैसले लेने की एक क्षमता है जो विश्व के जनकल्याण की भावना सहनौभुनक्तु, सहवीर्यंकरवावहे से सराबोर है ,जो जड़ जंगम जगत में समदृष्टि आत्मवतसर्वभूतेषु का चश्मा पहने है । यही तो बीजमन्त्र है वसुधैबकुटुम्भकम का ।
-०-
सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर
-०-


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पापा किस के चहेते? (बाल कहानी) - उद्धव भयवाल

पापा किस के चहेते?
(बाल कहानी)
गोपाल जी के दो लड़के तथा एक लड़की थी। बडे लड़के का नाम था मयूर तथा बिचले का नाम था रोहित।सब से छोटी गुडिया का नाम था आरती।
मयूर हमेशा कहा करता था,"पापा मेरे चहेते।"
रोहित भी कहा करता,"पापा मेरे चहेते।"
छोटी आरती पीछे क्यूं रहेगी? वह भी कहा करती,"पापा मेरे चहेते।"
इस विषय को लेकर यह तीनो बहनभाई आपस मे लड़ा करते थे। बच्चों की लड़ाई देखकर गोपाल जी हँस देते और कहते,"लड़ाई मत करो। एक दिन मैं तुम सब का इम्तिहान लूँगा। फिर पता चलेगा,मैं सब से ज़्यादा किस का चहेता हूँ।
एक दिन गोपाल जी का सर बहुत दर्द देने लगा। सर पकड़कर गोपाल जी बिछाने पर लेटे रहें। ऑफिस मे नही गये।
मयूर पाठशाला से आया और कहने लगा,"पापा, आप का सर बहुत दर्द दे रहा है ना? आप बहुत काम करते हैं। इसी वजह से आप के सर मे दर्द हो रहा है। मैं बड़ा बनूंगा और आप की ख़ूब सेवा करूंगा। अच्छा, मैं चलता हूँ। मुझे दोस्त के पास जाना है। रोहित दवाई ला कर देगा आप को।" इतना कह कर
मयूर तुरंत दोस्त के पास चला गया।
रोहित स्कूल से लौटा। पापा को बिछाने पर लेटा देख, कहने लगा,"पापा आपकी तबियत ठीक नही।अब मुझे गेंद कौन ले कर देगा? मुझे पैसे दे दो। मैं ही बाजार जा कर गेंद लाता हूँ।"
पापा से पैसे ले कर रोहित दौडता हुआ गेंद लेने चला गया।
कुछ देर बाद आरती स्कूल से घर लौटी। पापा को लेटा देखकर पापा के पास आ बैठी और कहने लगी,"पापा, क्या आप के सर मे दर्द है? ठहरो, मैं आपके सर पर बाम लगा देती हूँ। मम्मी से अद्रक की चाय बनाकर ले आती हूँ।" ऐसा कहकर आरती कीचन की ओर चल पड़ी। थोड़ी देर बाद उसने पापा को चाय ला कर दी। पापा के सर पर बाम मलते हुये पापा से मीठी मीठी बातें करने लगी।
पापा मन हि मन खुश होकर मुस्कुराने लगे।

छोटे दोस्तों, अब आप ही बताईये, पापा सचमुच किस के चहेते थे?
उद्धव भयवाल
१९, शांतीनाथ हाऊसिंग सोसायटी
गादिया विहार रोड, शहानूरवाडी, औरंगाबाद – ४३१००९ {महाराष्ट्र}
-०-

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दीपावली का अर्थ जान लो (कविता) - रश्मि शर्मा

दीपावली का अर्थ जान लो
(कविता)
दीपावली पर तुम दीपावली का अर्थ जान लो।
दीप-दिया,आवली-पंक्ति ,दियो की पंक्ति तुम जला लो।।

दियो व रोशनी का त्यौहार जान लो।
बाहार से नही अन्तरमन से ठान लो।।

दीपावली पर अमीरो तुम गरीबो ,का मजाक न उड़ा लो।
गरीबो के दिये खरीद कर तुम उनका मान बड़ा लो।।

दीये की पंक्ति इस कदर जला लो।
तुम्हारी खरीद से गरीबो अपने घर रोशनी कर ले।।

सब मिलकर दीपावली बना लो।
उंमग व खुशी के साथ हर भेद मिटा लो।।

इन दियो पर हक है हमारा तुम्हारा दियो की रोशनी तुम इस कदर जला लो।
बुराई रूपी तेल जले अच्छाई रूपी बत्ती बचा लो।।
-०-
रश्मि शर्मा
आगरा(उत्तरप्रदेश)
-०-

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