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Monday 28 October 2019

दीप मिलन (कविता) - जगदीश गुप्त


दीप मिलन 
(कविता)

दीवाली का पर्व , दीप पर्व
दीप से दीप जले , अन्धकार भगे
मन का अँधेरा भगाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये

गर मन में अहंकार है
एक दूजे की टांग उखाड़ने का दांव है
आज दीप मिलन है
दांव को सीख सिखाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये

मन की गागर की टोह न ली तुमने
भय द्वेष ईर्षा अहं से इसे भरना चाहा
सोचा समय आने पर ये अस्त्र बन जायेंगे
स्वार्थ की दुनिया में हमें सुख पहुंचायेंगे

मत भूलो ये एक दिन शूल बन
आत्मा को चुभायेंगे
नफरत बेईमानी से -
प्यार - नेह भला खरीद पाओगे ?

मन - गागर की गहराई कभी नापी है
गागर के सागर की उत्ताल तरंगों पर
मन की नैया कभी चलाई है ?
ये तो वो अतल समंदर है
जहाँ लक्ष्मी वास करती है
मोती समेटे सीपियाँ आपका
इंतजार करती हैं
पावन गंगा जहाँ समाई है
हर मनोमालिन्य और अवगुण की
जिसने कालिख धुलाई है

मन गागर के सागर में
अपना ठौर आज हमें पाना है
इसके घर में स्वागतम का
वंदनवार हमें सजाना है
दीपपर्व है , मन का दीप जलाना है
मन को मन से मिलाना है
आज की पुकार को सुनते चलिये
दीप मिलन है 
मन का अँधेरा भगाते चलिये
मन को मन से मिलाते चलिये.  
-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


***
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