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Sunday, 25 October 2020

रावण के दश मुख नहीं थे (आलेख) - डाॅ. महेंद्रकुमार जैन ‘मनुज’

 

 

महात्मा के महात्मा
(आलेख)
रामायण का कथानक बहुत प्रसिद्ध है लेकिन यह कथानक और इसके पात्रों के नाम अलग अलग धर्मों ही नहीं लेखकों के अनुसार भी कुछ परिवर्तित हैं। जैन परम्परा में भी रामायण कई आचार्यों द्वारा लिखी गई है। राम यशोरसायन, जैन रामायण, पहुम चरिउ और पद्मपुराण आदि। इनमें पद्मपुराण अधिक प्रसिद्ध है। पद्म नाम रामचन्द्र जी का है इसलिए उनके पौराणिक कथानक को पद्मपुराण नाम दिया गया है। जैन साहित्य में त्रेषठ शलाका महापुरुषों के जीवन चरित्रों का वर्णन होता है। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण एवं 9 प्रतिनारायण ये सब मिलकर 63 हुए। जो त्रिषष्ठि शलाकापुरुष कहलाते हैं। पद्मपुराण के अनुसार राम आठवें बलभद्र थें, लक्ष्मण आठवें नारायण और रावण आठवें प्रतिनारायण थे। प्रतिनारायण अत्यन्त बलशाली व बुद्धिमान विवेकी सम्राट होता है, वह अपने बल से तीन पृथ्वी को जीतकर अर्द्धचक्रवर्ती सम्राट बनता है और बहुत लम्बे समय तक सुखों का भोग करता हुआ निराबाध राज्य करता है। उसके 18 हजार रानियां होती हैं और 16 हजार मुकुटबद्ध राजा उसकी सेवा में तत्पर रहते हैं।
ऐसे प्रतिनारायण को अपने बड़े भाई बलभद्र के सहयोग से जीतकर नरायण अर्द्धचक्रवर्ती सम्राट बनता है। नारायण की भी प्रतिनारायण से अधिक विभूति होती है। यह सब डाॅ. शुद्धात्मप्रभा ने अपनी पुस्तक राम कहानी में विसतार से लिखा है।
जैन मान्यतानुसार रावण राक्षस वंशी था, उसके दश सिर नहीं थे, एक ही था। किन्तु उसका नाम दशानन था। इसका भी अलग प्रसंग है। रत्नश्रवा के यहां बालक के जन्म के समय कई विचित्र घटनायें हुईं। बहुत पहले मेघवाहन के लिए राक्षसों के इन्द्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जो बहुत कांतिमान था और राक्षसों के भय से इसे किसी ने नहीं पहना था। ऐसे हार को उस बालक ने अनायास ही हाथ से खींच लिया। बालक को मुट्ठी में हार लिये देख माता घबड़ा गई, उसने बालक के पिता को बुलाया, पिता ने यह दृश्य देखकर कहा यह अवश्य ही कोई महापुरुष होगा। माता ने निर्भय होकर वह हार उस बालक को पहना दिया। उस हार में जो बड़े बड़े स्वच्छ रत्न लगे हुए थे उनमें असली मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिम्बित हो रहे थे इसलिए उस बालक का नाम दशानन रखा गया।
जैन मान्यता के पद्मपुराण के अनुसार दशानन का रावण नाम कैलाश पर्वत उठाते समय की घटना के कारण पड़ा था। मान्यतानुसार दिग्विजय के समय रावण बालि से युद्ध के लिए तत्पर हो गया था, इस घटना से बाली ने दिगम्बरी दीक्षा ले ली। एक बार रावण नित्यलोक की रत्नावली कन्या से विवाह करके सपरिवार आकाशमार्ग से लोट रहा था। मार्ग में कैलाश पर्वत के ऊपर उसका विमान रुक गया। अपने मंत्री से कैलाश पर्वत पर बाली मुनि तपस्या कर रहे हैं यह सूचना पाकर क्रोधित हो दशानन ने अपने विद्याबल से बाली सहित कैलाश पर्वत उखाड़कर समुद्र में फेकना चाहा। पर्वत उठाया ही था कि बाली मुनि ने सोचा ऐसे तो इस पर बने अनेक जिनालय नष्ट हो जायेंगे और वन्दना करने वाले मनुष्य व अनेक प्राणी मर जायेंगे। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत के मस्तक को दवा दिया, इससे दशानन अत्यंत व्याकुल होकर चिल्लाने लगा। क्योंकि उसका शरीर कैलाश पर्वत से दबने लगा था। करुण चीत्कार की रव के कारण तब से वह दशानन रावण के नाम से जाना जाने लगा। रावण की पत्नी मन्दोदरी की अनुनय पर बाली मुनि ने अपना अंगूठा शिथिल किया। बाल्मीकि रामायण के अनुसार शिवजी ने अपना अंगूठा दवाया था। शेष घटना लगभग समान है।
रावण में अनेक गुण होते हुए भी वह सीता पर मोहित हो गया और सीता का हरण कर लिया। किन्तु  उसका यह नियम था कि जब तक कोई स्त्री स्वयं नहीं चाहेगी तब तक वह उसे छुएगा भी नहीं। इसलिए उसने सीता को अनेक प्रलोभन दिये, बहुत समझाया पर सीता ने तो अन्न-जल भी त्याग दिया था। उल्लेख आता है कि बाद में रावण के परिणाम बदल गये थे, उसने सीता को वापिस करना चाहा किन्तु उसका बलशाली होने का अभिमान आड़े आ गया था और उसने कहा में राम को जीतने के बाद ही उन्हें सीता वापिस करूॅंगा। और वह युद्ध में राम के हाथों मारा गया। जैन ग्रंथानुसार नारायण के द्वारा ही प्रतिनाराण मारा जाता है, इस नियमानुसार राम के सहयोग से लक्ष्मण के द्वारा रावण मारा गया।  
-०-
पता:
डाॅ. महेंद्रकुमार जैन ‘मनुज’
इंदौर (मध्यप्रदेश)

 

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अपना नंबर (कविता) - राजेश तिवारी 'मक्खन'

 

अपना नंबर
(कविता)
ममतामयी माँ मेरी तुझ पर ,सब कुछ है कुर्बान ।
तुम्ही जगत को रचने वाली , इस सृष्टि की शान ।।

ब्रह्म देव ने आराधन कर ,शक्ति रूप तुम्हें पाया ।
सृजन कार्य को शुरु किया ,तब त्रिलोक बनाया ।
पालन करने को विष्णु के,   तुम श्री अंग समानी ।
बनी शक्ति संहारक शिव की,श्रीगिरिजा महरानी ।
तुम ही वेद मयी गायत्री, सब शास्त्रों  का ज्ञान ।।................॥१॥

तुम ही उमा रमा ब्रह्माणी, तुम शची सावित्री सीता ।
कमला काली व्रजेश्वरी तुम,  हरि मुख निसृत गीता ।
दुर्गा दुर्गति  नाशनि तुम हो  ,तुमकुल कमल विकाशनि ।
तुम ही सकल विश्व में व्यापी, शक्ति सूर्य  शशि भासनि ।
सकल सृष्टि के जीव जहनों की , एक तुम्ही हो जान ।।.............॥.२॥

मेधा प्रज्ञा कल्याणी  तुम, पीताम्बर   राज रानी हो ।
मुनीश्वरों की मनन शक्ति तुम , ज्ञान  शक्ति ज्ञानी हो ।
पीताम्बरा  पार्वती तुम हो धूमा  कात्यायनी धन्या ।
गंगा यमुना सरस्वती तुम ,  जह्यनुऋषि की कन्या ।
स्वाहा स्वधा धरा धारा धन , तुम धरनी धर ध्यान ।।...............॥३॥

तूम काली कलकत्ते वाली ,  हिंगलाज महारानी ।
तुम मैहर की मातु शारदा ,  तेरी अकथ कहानी ।
जन्म दात्री  तुम्हीं धात्री , गायत्री गंगा माँ गीता ।
तेरी कृपा कटाक्ष बिना न , नर कोई जग में न जीता ।
श्री समृद्धि सद बुद्धि तुम , माँ तुम्हीं वेद का ज्ञान ।।................॥४॥-०-
पता:
राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी  (उत्तरप्रदेश)

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विजयादशमी (दोहे) - प्रो.(डॉ.) शरद नारायण खरे

 

विजयादशमी
(दोहे)
विजयादशमी पर्व है,अहंकार की हार।
 नीति,सत्य अरु धर्म से,पलता है उजियार।।

मर्यादा का आचरण,करे विजय-उदघोष।
कितना भी सामर्थ्य पर,खोना ना तुम होश।।

लंकापति मद में भरा,करता था अभिमान।
तभी हुआ सम्पूर्ण कुल,का देखो अवसान।।

विजयादशमी पर्व नित,देता यह संदेश।
विनत भाव से जो रहे,उसका सारा देश।।

निज गरिमा को त्यागकर,रावण बना असंत।
इसीलिए असमय हुआ,उस पापी का अंत।।

पुतला रावण का नहीं,जलता पाप-अधर्म।
समझ-बूझ लें आप सब,यही पर्व का मर्म।।

विजय राम की कह रही,सम्मानित हर नार।
नारी के सम्मान से,ही जग में उजियार।।

उजियारा सबने किया,हुई राम की जीत।
आओ हम गरिमा रखें,बनें सत्य के मीत।।

कहे दशहरा मारना,अंतर का अँधियार।
भीतर जो रावण रहे,उसको देना मार।।

अहंकार ना पोसना,वरना तय अवसान ।
निरभिमान की भावना,लाती है उत्थान।।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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पीड़ा (कविता) - डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'

 

पीड़ा
(कविता)
जीवन इतना जटिल बना है
पड़ता हरदम पीना हाला।
कंटक चुनचुन पंथ बनाते
फिर भी ना मिलता मधुशाला।
      
कितनी कटुताओं को पीकर
मंजिल अपना ढूंढ़े राही।
कुछ के मुख चांदी का चम्मच
मंजिल भी पाते मनचाही।
जितना जिसको होता अर्जित
उतना ही होता मतवाला।

पीड़ा को पीड़ित ही समझे
गैर भला जाने कब कोई।
कैसे अपनी पीर सुनाऊं
मेरे अन्तर जो चुप सोई।
खड़े मोड़ पर लेकर कितने
स्वर्णजड़ित प्याला विषवाला।

दुर्गम पथ पर थकता राही
साहस उसे सुनाता लोरी।
संकल्पों की बांहें पकड़े
आशाओं की बांधे डोरी।
करते हैं विद्रोह वही क्यों?
उम्मीदों ने जिनको पाला।   
-०-
डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'
दिल्ली


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विजयादशमी महापर्व है' (कविता) - रजनीश मिश्र 'दीपक'

 


मैं पानी हूँ ....
(आत्मकथा)


विजयादशमी महापर्व है,सिया राम जी के गान का।
जीते बुराई पर अच्छाई,मिटे रावण के अभिमान का।
बुराई कितनी भी प्रबल हो,जरूर एक दिन अंत होता।
जलती फिर सोने की लंका,रावण राज का हंत होता।
कितने यत्न किये प्रभु राम ने,थे रावण को समझाने के।
पर अधमी इक बार न समझा,संकट अपने घराने के।
गलती पर गलती रावण की,उसके अपनों का काल बनीं।
मेघनाद कुम्भकरण जैसे,बलिदानियों का सवाल बनीं।
एक-एक करके रावण के,सब प्रियजन उससे दूर हुए।
सीता हरण के कारण ही,सब मरने को मजबूर हुये।
पर स्त्री हरण कुकृत्य ने उसका,
रावण साम्राज्य मिटा दिया।
त्रिलोक विजेता अभिमानी को,उसके घमंड ने गिरा दिया।
मृत्यु से बचने को उसने, सब उथल पुथल कर डाला था।
ग्रह नक्षत्रों की स्थितियों को, जबरदस्ती बदल डाला था।
पर प्रकृति विरोधी उसके,दुष्कृत्य ने उसे बचा न पाया।
सर्वेश्वर ने सब विधान कर,अंततः उसे मृत्यु से मिलवाया।
रावण का अंत बताता है,प्रभु से न कोई बच पाता है।
अपने कर्मानुसार फल यहाँ,दीपक जरूर जन पाता है।
रामायण, रामचरित मानस,ग्रंथों का यह सुन्दर सार है।
बाल्मीकि,हनुमत,तुलसी का,यह हमकोअनुपम उपहार है।
रजनीश मिश्र 'दीपक' खुटार शाहजहांपुर उप्र 

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पता
रजनीश मिश्र 'दीपक'
शाहजहांपुर (उत्तरप्रदेश)

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