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Sunday, 25 October 2020

पीड़ा (कविता) - डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'

 

पीड़ा
(कविता)
जीवन इतना जटिल बना है
पड़ता हरदम पीना हाला।
कंटक चुनचुन पंथ बनाते
फिर भी ना मिलता मधुशाला।
      
कितनी कटुताओं को पीकर
मंजिल अपना ढूंढ़े राही।
कुछ के मुख चांदी का चम्मच
मंजिल भी पाते मनचाही।
जितना जिसको होता अर्जित
उतना ही होता मतवाला।

पीड़ा को पीड़ित ही समझे
गैर भला जाने कब कोई।
कैसे अपनी पीर सुनाऊं
मेरे अन्तर जो चुप सोई।
खड़े मोड़ पर लेकर कितने
स्वर्णजड़ित प्याला विषवाला।

दुर्गम पथ पर थकता राही
साहस उसे सुनाता लोरी।
संकल्पों की बांहें पकड़े
आशाओं की बांधे डोरी।
करते हैं विद्रोह वही क्यों?
उम्मीदों ने जिनको पाला।   
-०-
डॉ.सरला सिंह 'स्निग्धा'
दिल्ली


***
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