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Friday 27 March 2020

बड़ा कवि (व्यंग्य) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'

बड़ा कवि
(व्यंग्य)
साहित्यकारों की फौज के बड़े कवि के काव्यपाठ को सुनकर कुछ मंझले,कुछ छोटे नोसिखिये तथाकथित कवियों ने वाह वाह तालियों से काव्यपाठ की समझ से ज्यादा कवि से नजदीकियां बढाने में अति उत्साह को दर्शाया , ऐसा लग रहा था ।
जाजम पर बैठे कुछेक के लोग घुसफुस करते,कानों ही कानों में क्या पढ़ा बड़े कवि ने - अपन की समझ से तो ऊपर से निकल गया है ।
काव्यपाठ खत्म हुआ, अल्पहार का दौर - अब स्टेज तक एक के बाद एक बधाई देते बड़े कवि का आशीर्वाद पाने में ही व्यस्त नजर आ रहे थे ...!!
अल्पहार का आनन्द लेते हुए एक मसखरे ने बड़े कवि से हंसते हुए कह ही दिया,आदरणीय क्षमा करना आपने क्या पढ़ा अपन के तो पल्ले ही नहीं पड़ा !
बड़े कवि ने भौंए खींचते,चश्मे के ऊपर से झांकते हुए कहा - आपको जल्दी से समझ आ जावेगा तो फिर हमें बड़ा कवि कौन मानेगा ?
सब स्तब्ध: .......!
बड़े कवि ने झुंझलाते -हमारे शब्दों की बुनघट कुछ ऐसी होती है कि हम इशारों में अपनी बात कह जाते हैं हर किसी को पल्ले पड़ जाए तो .....।
बड़े कवि के ज़मीर यानि अंतरात्मा की आवाज़ से कुछ वहाँ के चहेते साहित्यकारों की तरफ इशारा करते (ईनाम-इकराम की कतार में खड़े चेले चांटियों की तरफ ) ये वाह वाह , तालियाँ बजाने वाले मेरे काव्य को समझते हैं तभी तो मैं बड़ा कवि हूँ ।
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-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

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उसने अपना घर (ग़ज़ल) - विज्ञान व्रत

उसने अपना घर
(गजल)
उसने अपना घर क्या बदला 
बस्ती का ही नक़्शा बदला

रोज़ाना इक चेहरा बदला 
यानी वो फ़ैशन - सा बदला 

उसने अपना लहजा बदला 
मैंने अपना रस्ता बदला 

अरसे बाद मिला हूँ ख़ुद से 
सब लगता है बदला - बदला

भूल चुका हूँ दुश्मन को ही 
फिर क्या बदला कैसा बदला 
-०-
पता:
विज्ञान व्रत
नोएडा (उत्तर प्रदेश)


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मै एक भूखा इंसान हूँ ! (कहानी) - सुरेश शर्मा

मै एक भूखा इंसान हूँ !
(लघुकथा)
उस दिन बड़ा ही सुंदर मगर अजीब सा मंजर देखने को मिला मुझे । हमारे भारतीय सेना का बहुत ही पुराना और बहुत बड़ा सा कैंप था । वहां बहुत ही सुंदर तरीके से एक बड़े से मैदान मे मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और गिरिजाघर बनाया हुआ था । उस सेना के कैंप मे सभी धर्म के सैनिक रहा करते थे ।

सभी अपने -अपने धर्मो के अनुसार नियमित रूप से पूजा-अर्चना कर अपने -अपने कार्यो मे लगे जाते । 
एक दिन एक सैनिक जो कि हिंदू धर्म का था और उसके साथ ही एक और सैनिक था जो कि मुसलमान था । हिन्दू सैनिक मंदिर के अन्दर जाकर भगवान् पर फूलो का माला चढाकर बाहर आ गया थोड़ी देर बाद वह मुसलमान सैनिक भी नमाज अदा कर मस्जिद के बाहर आ गया ।

दोनो ने आपस मे हाथ मिलाया कि तभी देखा एक अधेर उम्र का व्यक्ति बड़े -बड़े दाढी थे उसके चेहरे पे । वह व्यक्ति बड़ा ही अजीब सा हरकत कर रहा था । वह व्यक्ति पहले गुरुद्वारा मे गया फिर गुरुद्वारे से निकलकर गिरिजाघर मे गया । वो दोनो सैनिक बड़े ही दिलचस्पी से उस अजीब से व्यक्ति को देख रहा था । वह बड़ी -बड़ी दाढीवाला व्यक्ति गिरिजाघर से निकलकर मंदिर के अंदर गया और फिर थोड़ी देर के बाद मंदिर से भी बाहर आ गया । वो दोनो सैनिक अब भी वही खड़े उसी व्यक्ति को ही देख रहे थे । उनके समझ मे नही आ रहा था कि वह व्यक्ति आखिर क्या कर रहा है ।

वह दाढ़ी वाला व्यक्ति इस बार मस्जिद के अन्दर जाकर फिर मस्जिद से भी बाहर आ गया । अब उनके दोनो सैनिको को उस व्यक्ति की हरकते देखकर रहा नही गया । वो दोनो उस व्यक्ति के पास गए और पूछा । भाई तुम यह क्या कर रहे हो ? क्या बात है ? तुम हिन्दू हो या मुसलमान हो ? या फिर क्या होगा ?

वह व्यक्ति बहुत ही भूखा दिखाई दे रहा था । भूखे होने की वजह से ठीक से आवाज भी नही निकल रही थी उसके मुँह से । बड़े गौर से देखा उस व्यक्ति ने उन सैनिको को। बोला "-साहब ! आपलोग मुझे जो भी समझो ! हिन्दु समझो या मुसलमान समझो । जिस धर्म के भी समझो। उससे पहले मुझे कुछ खाने को दो ।
क्योंकि --" अभी तो मैं एक भूखा इंसान हू "!
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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मेरा देश जल रहा है (कविता) - देवकरण गंडास 'अरविन्द'

मेरा देश जल रहा है
(कविता)
भारत का हृदय जो कहलाता
वो दिल्ली आज दहक रहा है
ईर्ष्या, जलन और राजनीति से
मेरा देश आज जल रहा है।

किससे किसने क्या है छीन लिया
क्यों देश का युवा बहक रहा है
आग लगी है सारे देश में
मेरा देश आज जल रहा है।

कुछ दूषित नापाक ताकतें
घोल रही हैं जहर फिज़ा में
अब धुआँ शहर में चल रहा है
मेरा देश आज जल रहा है।


मत जलने दो, इसे रोक लो
ये मानवता खा जाएगा
फैल जाएगा गरल देश में
अरविन्द अमन नहीं हो पाएगा
इस दंगे से निकली आग में
हर नेता हाथ मल रहा है
कुछ शातिर लोगों के हाथों
मेरा देश आज जल रहा है।
-०-
पता:
देवकरण गंडास 'अरविन्द'
चुरू (राजस्थान)

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जीने के कुछ ढंग (ग़ज़ल) -डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


जीने के कुछ ढंग
(ग़ज़ल)
सही तरह से जीने के कुछ ढंग सिखाती है
कुदरत भी ना जाने क्या क्या रंग दिखाती है

बाल हुए सफ़ेद आँखों से धुँद्ला दिखता है
दाँत लगे गिरने चलने में जिस्म भी हिलता है
समझो ईश्वर की तुमको ये पहली पाती है

मात पिता का आदर करना बच्चो से स्नेह
जब जब गले मिले हम उनसे नेनन बरसे मेह
ये ही जीवन दर्शन ही तो अपनी थाती है

क्या पाया क्या खोया हमने सोच के देखो तुम
कहाँ पे क्या क्या छूट गया है लौट के देखो तुम
ऐसी ही कुछ भूली यादें हमको याद दिलाती है
कुदरत भी ना जाने क्या क्या रंग दिखाती है
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
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