बड़ा कवि
(व्यंग्य)
साहित्यकारों की फौज के बड़े कवि के काव्यपाठ को सुनकर कुछ मंझले,कुछ छोटे नोसिखिये तथाकथित कवियों ने वाह वाह तालियों से काव्यपाठ की समझ से ज्यादा कवि से नजदीकियां बढाने में अति उत्साह को दर्शाया , ऐसा लग रहा था ।
जाजम पर बैठे कुछेक के लोग घुसफुस करते,कानों ही कानों में क्या पढ़ा बड़े कवि ने - अपन की समझ से तो ऊपर से निकल गया है ।
काव्यपाठ खत्म हुआ, अल्पहार का दौर - अब स्टेज तक एक के बाद एक बधाई देते बड़े कवि का आशीर्वाद पाने में ही व्यस्त नजर आ रहे थे ...!!
अल्पहार का आनन्द लेते हुए एक मसखरे ने बड़े कवि से हंसते हुए कह ही दिया,आदरणीय क्षमा करना आपने क्या पढ़ा अपन के तो पल्ले ही नहीं पड़ा !
बड़े कवि ने भौंए खींचते,चश्मे के ऊपर से झांकते हुए कहा - आपको जल्दी से समझ आ जावेगा तो फिर हमें बड़ा कवि कौन मानेगा ?
सब स्तब्ध: .......!
बड़े कवि ने झुंझलाते -हमारे शब्दों की बुनघट कुछ ऐसी होती है कि हम इशारों में अपनी बात कह जाते हैं हर किसी को पल्ले पड़ जाए तो .....।
बड़े कवि के ज़मीर यानि अंतरात्मा की आवाज़ से कुछ वहाँ के चहेते साहित्यकारों की तरफ इशारा करते (ईनाम-इकराम की कतार में खड़े चेले चांटियों की तरफ ) ये वाह वाह , तालियाँ बजाने वाले मेरे काव्य को समझते हैं तभी तो मैं बड़ा कवि हूँ ।
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