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Sunday, 18 October 2020

अस्तित्व और व्यक्तित्व (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा


अस्तित्व और व्यक्तित्व
(कविता)
शरीर के भरणपोषण की प्रक्रिया तो,
जानवर भी बच्चों को सिखाते हैं।
पर संस्कारों का भोजन,
कहाँ दे पाते हैं ?
तभी तो जानवर  जानवर हैं,
इंसान कहाँ बन पाते हैं।

ईश्वर ने इंसान को ,
दो दो इंद्रियाँ दी है।
शरीर भी दो हिस्सों में बाँटा है।
इन दो शरीरों के मिलन से ही,
इंसान का व्यक्तित्व तैयार हो पाता  है।
माँ जब बच्चे में,
समझ को उतारती है,
अपने भीतर...
आधे पुरुष को पाती है।
उसके लालन पालन की प्रक्रिया में..
पुरुष भी हाथ बँटाता है।
अपने अंदर छिपी एक माँ का..
अहसास उसे हो जाता है।
वह अंदर के व्यक्तित्व की ,
पहचान कर पाता है।
जो  इंसान अपने भीतर के अस्तित्व को,
नहीं पहचानता।
स्त्री में पुरुष है,  पुरुष में स्त्री,
वह नहीं जानता।
जो अस्तित्व ओर व्यक्तित्व में ,
फ़र्क़ ना कर पाए,
कुटिल उसके कर्म हो जाए,
फिर इंसान ओर जानवर ,
में फ़र्क़ क्या रह जाए ?
इंसान ही इंसान को ,
संस्कार सिखाता है।
अस्तित्व ओर व्यक्तित्व ,
में फ़र्क़ समझ जिसे आता है।
वही इंसान इंसान कहलाता है।
वरना जानवर ओर आदमी में ,
फ़र्क़ क्या रह जाता है।।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-०-



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रंगोली सजाओ (आलेख) - डा. नीना छिब्बर

 

रंगोली सजाओ
(लघुकथा)
  "हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन
  के जिस पे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
   दिशाएं देखो रंगभरी ,चमक रही उमंग भरी
  ये किसने फूल फूल पे किया सिंगार है
  ये कौन चित्रकार है ,ये कौन चित्रकार है "।

   रंग जीवन में नवचेतना संचारित करते हैं।
ईश्वर की  हर एक कृति  दूसरी कृति से अलग है , भिन्न है । रूप रंग ,आकार प्रकार, सुगंध सौंदर्य का अनंत विस्तृत  फलक चारों और फैला है ।हर रंग का अपना सौंदर्य है।रंगो को देखकर मन में अनेक भाव आते हैं। चटकीले खुशनुमा रंग देखकर उदास और निराश मन भी प्रफुल्लित हो जाता है।
     भारतीय संस्कृति में तो सुख दुख ,हर्ष विषाद ,विवाह ,जन्म मरण के भी रंग निर्धारित हैं ।रंगो को हमने दैनिक जीवन में रचाया बसाया है। घरों के बाहर अल्पना ,रंगोली, मांडना  ,कोलम  खूबसूरत रंगो में सजा कर  घर की सुंदरता के साथ भीतर की कलात्मकता को भी नये आयाम देते हैंं हम भारतीय।
    रंगोली एक संस्कृत शब्द है। जिसका अर्थ है रंगो के जरिए भावनाओं को अभिव्यक्त करना। भारत के कुछ क्षेत्रों में इसे अल्पना भी कहते हैं। यह  संस्कृत शब्द " अलेपना " से बना है। जिसका अर्थ है लीपना या लेपन करना  क्योंकि रंगोली बनाते समय दीवारों पर या जमीन पर लेपन ही किया जाता है। अल्पना वात्सायन के काम-सूत्र में वर्णित चौंसठ कलाओं में से एक है। 
रंगोली का वर्णन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता में भी मिला है। इस कला का सीधा संबंध 5000 वर्ष पूर्व की सभ्यता में भी मिलता है।
रंगोली में मुख्यतः  सूखे और गीले रंग, पिसे हुए चावल, सूखे पत्तो का पाउडर, चारकोल, लकड़ी का बुरादा ,फूल उपयोग में लाए जाते हैं ।यह अधिकतर आँगन के मध्य, बेल के रूप में चारों ओर,कोनों पर,मुख्य द्वार पर, भगवान की चौकी के पास, दीप के सामने  और दीवारों पर भी बनाई जाती है ।इसमें अधिकतर ज्यामितीय आकृतियाँ और पुष्प अंकित किये जाते हैं ।ये आकृतियाँ त्रिभुज, वृत षटकोण, सीधी रेखाएं, तरंगित रेखाएं  होती हैं जिन के द्वारा रंगोली या अल्पना बनाई जाती है ।  बिंदुओं को मिला कर भी रंगोली बनाई जाती है। यह  रंगोली  सीखने का सब से पुराना तरीका है। पुष्प की आकृतियाँ सामाजिक और धार्मिक पर्वों  एवं जादू टोनें से जुड़ी हैं । ज्यामितीय आकृतियाँ तंत्र -मंत्र एवं तांत्रिक रहस्यों से जुड़ी मानी जाती है । स्वास्तिक हमेशा बनाया जाता है ।
    भारतीय परंपराओं में हर कार्य या अनुष्ठान के साथ कुछ मान्यताएं जुड़ी रहती हैंं ।रंगोली के साथ भी क्षेत्र ,राज्य और धर्म के अनुसार कुछ प्रचलित मान्यताएं हैंं ।  हिंंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार रंगोली की आकृतियाँ घर से बुरी आत्माओं वं दोषों को  दूर करती है। इसी के साथ सुंदर रंगोंली  घर में खुशहाली, सुख और स्मृद्धि लाती है। कुछ क्षेत्रों में तो रंगोली बनाते हुए कन्यायें लोकगीत भी गाती  हैं। रंगोली नकारात्मक ऊर्जा को मार्ग में ही रोक देती हैं  और घर की सकारात्मक उर्जा को बाहर नहीं निकलने देती है ।
 रंगोली के साथ कुछ और लोक कथाएं भी जुड़ी हैंं। भारत के दक्षिण राज्य तमिलनाडु मे यह माना जाता है कि पूज्यनीय देवी (  माँ थिरूमल) का विवाह मर्गा जी महीनें में हुआ था इसीलिए इस पूरे माह कन्यायें घर में सुबह उठकर ,स्नान कर रंगोली बनाती हैं ।द.भारत में रंगोली को " कोलम " भी कहते हैं। इसके लिए चावल के आटे का घोल इस्तेमाल किया जाता है। इसके पीछे यह  मान्यता है कि चींटी को भी खाना खिलाना चाहिए। माना जाता है कि कोलम के बहाने प्रत्येक जीव -जन्तु को भोजन मिलता है। जिससे प्राकृतिक चक्र की वृद्धि और रक्षा होती है। 
पुरानी कथा यह भी है कि एक बार राजा चित्रलक्षण के दरबार में उनके जाने माने पुरोहित के पुत्र का अचानक देहांत हो गया।
पुरोहित अत्यंत दुखी हुए । उनके दुख को कम करने के लिए राजा ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की। ब्रह्मा जी आये और जिस पुत्र की मृत्यु हुई है , दीवार पर उस पुत्र का चित्र बनाने के लिए कहा । ब्रह्मा जी के कथनानुसार दीवार पर पुरोहित के पुत्र का चित्र बनाया गया और देखते ही देखते  वह पुत्र जीवित हो गया। 
  अन्य एक कथा है कि ब्रह्मा जी ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ से रस निकाल कर उसी से जमीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई जो अप्सराओं से भी सुंदर थी। बाद में वही उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा जी द्वारा खीची गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप  मानी जाती है । इसी प्रकार लंकेश का वध करके चौदह सालों बाद जब श्री राम,लक्ष्मण और सीता जी वापस लौटे तो अयोध्या के नगरवासियों ने अपने घर आँगन रंगोली से सजाए। सीता के विवाह के अवसर पर भी सम्पूर्ण नगर रंगोली से सजाया गया था। यहाँ भी रंगोली को सीता विवाह से जोड़ा गया है ।
  दिवाली और रंगोली का तो अटूट नाता है। रंगोली के साथ लक्ष्मी जी के चित्र और पग -चिन्ह भी बनाए जाते हैं ।
  रंगोली का एक और नाम है "अरिपन रंगोली " । यह बिहार की लोक चित्रकला है। अरिपन मिथिला कला का एक रूप है। यह बिहार के मिथिला क्षेत्र विशेषकर मधुबनी गाँव की विशेषता है। हर उत्सव त्योहार में आँँगन और दीवारों पर मधुबनी चित्रकारी बनाने की पुरानी प्रथा है। इसमें मुख्यतः  रामायण और महाभारत की छवियाँ होती हैं ।
 उतराखंड़ में रंगोली को ऐपण रंगोली का नाम दिया गया है। "  ऐपण" कुमाऊं की पारंपरिक प्रथा है।यह उतराखंड़ में भी प्रचलित है । यह पूजा के स्थान, घरोंके प्रवेशद्वार , दीवारों को सजाने के लिए भी बनाई जाती है । यह बड़े पैंंमाने पर इस्तेमाल किए जाने वाली सजावटी प्रपत्र है। ऐपण के डिजाइन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित किए जाते हैं । इसका सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है।
 इसी तरह राजस्थान ,मालवा और निमाड़ क्षेत्र में रंगोली का एक रूप "मांड़ना" भी है। मांडना "मंडन " शब्द से लिया गया है ।.जिसका अर्थ है सजाना। मांडने को विभिन्न उत्सव और ऋतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।
 चतुर्भुज आकृति का चौक मांडना समृद्धि के लिए किया जाता है।जबकि त्रिभुज, वृत, शतरंज का पट और स्वास्तिक लगभग हर उत्सव और पर्व पर बनाया जाता है। 
   रंगोली की लोक परंपराएं, कथाएं ,मान्याताएं चाहे थोड़ी बहुत भिन्न हों पर अंतर्निहित तरंग एक ही है उत्साह, आनंद,पवित्रता और सकारात्मक ऊर्जा का सम्पूर्ण पृथ्वी पर साम्राज्य बना रहे।
  पौराणिक कथाएं,मान्याताएं धार्मिक ,सामाजिक  महत्व और  घर परिवार को सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर करने के लिए रंगोली आज भी अपना वर्चस्व बनाए हुए है ।
आधुनिक युग में रूप बदल गया है । कुछ नवीनीकरण हो गया है। ट्यूब क्लर, प्लास्टिक के स्टीकर, साँचे, छलनी में डिजाइन, रंगोली के लिए  कट -आऊट ,  लकड़ी के बेलनाकार साँचे ,रंगीन पेन आदि। यानि कि मशीनीं युग में सबकुछ तेज। पर संतोष इसी बात से है कि नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी का अनुसरण कर रही है बस तरीका नया है। नयी रंगोली पद्धति चाहे जो हो आकार प्रकार, फूल पतियाँ वही हैं। उत्साह भी चौगुना है।  हमारी सांस्कृतिक जड़ें गहरी हैं और  विश्वास है कि सदा पल्लवित पुष्पित रहेंगीं।
 हम फिर गुनगुना सकते हैं।
" रंगोली सजाओ रे...."

-०-
डा. नीना छिब्बर
जोधपुर(राजस्थान)

-०-

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दोहादसावली दीपावली (दोहा) - कन्हैया साहू 'अमित'

कन्हैया साहू 'अमित'
                           (दोहा)
शुभकर यह शुभकामना, देता अमित सहर्ष।
स्वच्छ स्वस्थ जगमग रहे, अपना भारतवर्ष।-1

वर्ष 'शरद' को दे गया, खुशियों की सौगात।
दीपों की दीपावली, देती तम को मात।-2

मात तिमिर को दे सदा, हर्षित होता दीप।
यूँ मोती बनता अमित, मिटकर नन्हा सीप।-3

सीप कहे सुनिए सभी, परहित करिये काज।
तेल सहित बाती जले, दीपक पर सब नाज।-4

नाज करें जनगण अमित, गर सबको लें जोड़।
राजमहल की लालसा, मत कुटीर को छोड़।-5

छोड़ व्यर्थ बातें अभी, करो नहीं संदेह।
खुशियों का अवसर यही, अमित लुटाओ स्नेह।-6

स्नेह संपदा साथ जब, बनती बिगड़ी बात।
अभिनंदन 'श्री' आपका, स्याह अमावस रात।-7

रात रमा आराधना, इस दीवाली पर्व।
अंतर का जब तम मिटे, तभी स्वयं पर गर्व।-8

गर्व अमित होगा अगर, रखें स्वच्छता साथ।
खूब पटाखा फोड़िए, झाडू भी रख हाथ।-9

हाथ भलाई में उठे, फिर क्यों हो संघर्ष।
हृदय द्वार को खोलिए, स्वागत करें सहर्ष।-10
-०-पता:
कन्हैया साहू 'अमित'
भाटापारा (छत्तीसगढ़)
-०-

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क्या तुम जानती हो , प्रिये (कविता) - सुशांत सुप्रिय

क्या तुम जानती हो , प्रिये
(कविता)
ओ प्रिये
मैं तुम्हारी आँखों में बसे
दूर कहीं के गुमसुम-खोएपन से
प्यार करता हूँ

मैं घाव पर पड़ी पपड़ी जैसी
तुम्हारी उदास मुस्कान से
प्यार करता हूँ

मैं उन अनसिलवटी पलों
से भी प्यार करता हूँ
जब हम दोनों इकट्ठे-अकेले
मेरे कमरे की खुली खिड़की से
अपने हिस्से का आकाश
नापते रहते हैं

मैं परिचय के उस वार
से भी प्यार करता हूँ
जो तुम मुझे देती हो
जब चाशनी-सी रातों में
तुम मुझे तबाह कर रही होती हो

हाँ, प्रिये
मैं उन पलों से भी
प्यार करता हूँ
जब ख़ालीपन से त्रस्त मैं
अपना चेहरा तुम्हारे
उरोजों में छिपा लेता हूँ
और खुद को
किसी खो गई प्राचीन लिपि
के टूटते अक्षर-सा चिटकता
महसूस करता हूँ
जबकि तुम
नहींपन के किनारों में उलझी हुई
यहीं कहीं की होते हुए भी
कहीं नहीं की लगती हो
-०-
पता:
सुशांत सुप्रिय
ग़ाज़ियाबाद (उत्तरप्रदेश)

-०-



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