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Wednesday, 16 December 2020

वादा-ए-वफ़ा (ग़ज़ल) - अलका मित्तल

  

वादा-ए-वफ़ा
(ग़ज़ल)
वादा-ए-वफ़ा निभाने का जमाना नहीं रहा,
चाँद तारे तोड़कर लाने का जमाना नहीं रहा।

सिमटकर वक्त की चादर भी छोटी हो गई,
अब मिलने और मिलाने का जमाना नहीं रहा।

दोस्ती के मायने भी अब पहले से कहाँ रहे?
इक दूजे पे जाँ लुटाने का जमाना नहीं रहा।

कुछ मसअले हल हो जाते थे आपस में भी,
दूसरों के काम आने का अब जमाना नहीं रहा।

दूर कहाँ होते थे कभी जो दिल के क़रीब थे,
अब रूठे हुओ को मनाने का जमाना नहीं रहा।

हर कोई अब अपने में ही मशगूल हो गया,
अपनो का साथ पाने का जमाना नहीं रहा।

रूह तक जुड़े होते थे कभी दिलों के अहसास,
अब दिलों में बस जाने का जमाना नहीं रहा।
-०-

पता:
अलका मित्तल
मेरठ (उत्तरप्रदेश)

-०-

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मेरी भी चाहत (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’

  

मेरी  भी चाहत
(ग़ज़ल)
मेरी  भी चाहत थी देखूँ  कभी नज़ारा  ज़न्नत का,
बिखरीं यादें टूटे सपने हाल हुआ यह चाहत का।

जिस इज़्ज़त में बदनामी हो क्या करना उस इज़्ज़त का,
मजबूरी  में काम न दे  तो क्या मतलब उस बरक़त का।

जो माँगो वह मिले नहीं तो लाभ भला क्या मन्नत का,
गलती  करने पर  भी माफ़ी  ये है असर मुरव्वत का।

रोने    वाले   रोया  करते   हँसने   वाले   हँसते   हैं,
इस दुनिया में देखो कैसा खेल अजब है क़ुदरत का।

आँसू-  पीड़ा- ग़म- तन्हाई - उलझन- टूटन- बेताबी,
जिस रिश्ते में पेंच बहुत हो रिश्ता वही मुहब्बत का।

करने  पर  भी  मिले नहीं तो  समझो  किस्मत  खोटी है,
बिना किये ही दे दे सब यह काम है केवल किस्मत का।

प्यास  अनबुझी  भूख अधूरी  पेट-पीठ का पता नहीं,
कपड़े-लत्ते  फ़टे-पुराने  यही  नतीज़ा   ग़ुरबत  का।
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
-०-



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वो मैं ही हूँ (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

  

इंसानियत
(लघु एकांकी)
हा,जी हाँ 
वो मैं ही हूँ ।
जिसका इस्तेमाल बहुत ही दुर्लभ हो चुका  था ।
बहुत कम मौकों पर ही,
मेरा जिक्र हो रहा  था । 
कम, कम,अब अधिक मात्रा में ,
मैं धुंधला हो चुका था ।
अस्तित्व कुछ रहे बाकी, 
बस इसी उम्मीद में ,
मैं दिन काट रहा था ।
अरे, ये क्या ?
इस तुफान ने तो संजीवनी बन, मुझे फिर से ,
आपके बीच खडा कर दिया है ।
मेरे सूखे पत्ते,
कहीं गुम हो चुके थे ,
जिन्होंने मुझसे वादा लिया था कभी ना हारने का।
वे सूखे अब,
नवांकुर बन
नव- चेतना ,नयी उमंग 
के साथ मुझमें नव-परिवर्तन की आशा जगा चुके हैं ।
वह बेवजह-सा तुफान ही आज,  मुझे पुनः जीवित करने में ,  सफल हो चुका है ।
हा ,जी हाँ 
यह मैं  ही हूँ ।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

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जिंदगी की जंग (ग़ज़ल) - मृदुल कुमार सिंह

 

जिंदगी  की  जंग
(सजल)
जिंदगी  की  जंग है अब क्या कहूँ, 
कोन कितना संग है अब क्या कहूँ|

नफ़रते  यूँ   खेलकर   होली   गयी, 
जिंदगी  बे-रंग  है  अब  क्या  कहूँ|

हें  खड़े  अपने  सभी  मुंह फेर कर
हाल  थोड़ा  तंग है  अब  क्या कहूँ|

मजहबी   सारे   सियासी   हो  गये
पाठ  पूजा  भंग  हे  अब क्या कहूँ|

गुनगुनाया   गीत   जो   श्रंगार  का
हो गया  हुड़दंग है  अब  क्या कहूँ|

आदमी  तो  है  वही  उसका  मगर
आज  बदला ढंग है अब क्या कहूँ| 

संत भी पहुंचा  हुआ था जो 'मृदुल'
हो  गया सारंग  है  अब  क्या कहूँ|
-०-
पता:
मृदुल कुमार सिंह
अलीगढ़ (अलीगढ़) 

-०-


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राजाबरारी (कहानी) - सुरजीत मान जलईया सिंह

राजाबरारी
(कहानी)
शहर की आबो हवा से दूर आज मैं जा रहा हूँ  गाँव की सरल मनमोहक मिट्टी पर जिसकी छुअन का अहसास ह्र्दय से हजारों सवाल कर रहा था । मेरी मौनता बढती जा रही थी तभी मेरे साथ आये मेरे साथियों ने गाढी में तेज आवाज के साथ संगीत बजा दिया जिसने छीन ली उस पल मेरे स्वप्न की दुनियां । मैंने देखा आगे बैठी सीट पर मेघा , महताब , किरन थिरक रही थीं संगीत की ध्वनि के साथ साथ मेरी पास वाली सीट पर बैठा मेरा दोस्त प्रवीन जिसे मैं प्यार से अक्सर बिहारी कह कर पुकारता हूं वो कुछ खाने मैं मस्त था । अमन ने आगे की सीट से मुझे पुकारा और फेंक दी दो तीन टाफिया जिन्हें पकडने में मैं असमर्थ रहा तभी किरन ने अपनी हथेली पर रखी एक टाफी बढा दी मेरी तरफ । मस्ती में सराबोर हम बढ़ते जा रहे थे आगे गाडी पथरीले रास्तों पर हवा से बात कर रही थी यकायक मेघा को उन घुमावदार रास्तों पर कुछ बेचैनी  हुई इधर मेरे सामने बैठी किरन ने भी अपना सर पकड लिया यह सब कुछ देखकर मुझे भी लगा कि शायद अब मेरा नम्बर है किन्तु मेरी हजारों यात्राओं के अनुभव ने मुझे बचा लिया और मैंने अपनी आखें बंद कर लीं । अधखुली आखें देख रही थी महताब को लगातार कुछ ना कुछ खाते हुये सफर सुहाना हो चला था । मैंने आवाज देकर गाडी रोकने को कहा मेघा ने मेरी बात का समर्थन किया और अमन ने ड्राइवर भैइया से जल्द ही गाडी किनारे लगाने की कह दी उसे लगा कि मेरी तबीयत कुछ खराब हुई है । मैंने गाडी का गेट खोला और सुनसान होते रास्ते को दूर तक देखा और पतझड होते मौसम की गंध में मैं लेट गया स्याह होती डाबर पर जब कोई और नहीं उतरा तो मैंने आवाज दी कोई मेरी एक फोटो खींचेगा पल भर में सारे दोस्त बहार गये और सुहाने मौसम में शुरु हुआ तश्वीर संजोने का सिलसिला उदास और परेशान चहरे खिल - खिला उठे । अब के गाडी चली तो हम यात्रा के मुख्य स्थल राजाबरारी पहुंच गये हम सबने गाडी से उतर कर तरो ताजा पाया राजाबरारी मेरे लिये नया नहीं था । हम सत्संग भवन के सामने खडे थे इसके पास ही रसोई था जहां पर यहां आने वालों के खाने की व्यवस्था होती है मैं रसोई में गया और पूछा भैइया क्या बना रहे हो तो उधर से आवाज आई पूडी सब्जी पास से ही एक गीत गुनगुनाती जानी पहचानी आवाज सुनी मुड्कर देखा तो वह कोई और नहीं हमारे ड्राइवर भैइया थे मैं मुस्करा उठा और बोल बैठा भैइया गाडी में तो आप बहुत चुप थे यहां अकेले में ऐसा मस्ती भरा गाना ड्राइवर भैइया शरमा गये और मैं अपनी मुस्कराहट के साथ निकल आया रसोई से बहार । किरन , महताब , मेघा सबने तब तक मुंह हाथ साफ कर लिये और पतझड होते पेडों के साथ होने लगा उनका फोटो शूट अब वो कुछ अच्छा महसूस कर रही थीं । पास आये सैनी सर ने हमें आवाज दी और बोले जब तक खाना तैयार हो रहा है हम नदी तक चल रहे हैं पूछ्ने पर उन्होंने प्राचीन किवदंतियों की एक कहानी कह सुनाई कि जहां हम जा रहे हैं वहां द्वापुर युग के समय के अर्जुन के तीरों के निशान हैं मैं तेजी से हंस दिया । हम सब गाडी में बैठे और चल दिये दस मिनट बाद हम एक गांव में जाकर रुके तो मेघा पूछ बैठी सर वो तीर कहां है तेज होती धूप के बीच अब जो सुना उससे पसीने छूट गये । सैनी सर बोले यहां से एक कोश पैदल जाना होगा मेघा ने शीघ्र ही गाडी का दरवाजा बंद किया लेकन अब वो हुआ जिसके होने की उम्मीद नहीं थी हमारे समूह के सबसे आलसी अमन ने हम सब कि हिम्मत बढाई और उसका यह प्रयास हमको गाडी से उतारने में सफल हुआ । एक आधुनिक सुविधाओं से कटा गांव पार करते ही खेतों के बीच पगडंडियों से गुजरते हुये हम पहुंच गये एक ढलान पर जहां पर बिहारी तेजी के साथ नीचे उतरता गया और वह जल्द ही नीचे नदी के तल पर था । किरन , महताब , मेघा तीनों जोर जोर से चिल्लाने लगीं हमसे नहीं होगा । सैनी सर ने समझाने का प्रयास किया किन्तु सैनी सर का उनको समझाने का प्रयास असफल रहा तभी सैनी सर ने मेघा का हाथ पकडा और तेजी से नीचे उतरने लगे । यह देख किरन और महताब ने भी हिम्मत की किन्तु वह हतास हुई और महताब ने अमन का सहारा लेकर नीचे उतरना जारी रखा किरन अब फिसलन  भरे रास्ते पर डरी सहमी आगे बढ रही थी यह देख मैं वापस हुआ और उसका हाथ पकड लिया । उसके हाथ को छूने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मैंने छू लिया हो कोई धधकता हुआ ज्वाला मुखी पसीना माथे से टपकने लगा शरीर शून्य हो चला यह मुझे क्या हुआ समझ नहीं आ रहा था धडकने उतर गयीं हो ढलान से बिना किसी अवरोध के स्वांस का स्पन्दन धीमा हो चला था । हम नदी के तल पर पहुंचे और मैं तपती हुई देह के साथ उतर गया नदी के जल में मैं खडा - खडा देख रहा था । फोटो शूट की आपसी होड में मैंने भी बिहारी को बुलाया और अपनी तश्वीर निकालने के लिये बोला नदी के शीतल जल में हो रहा था मैं सामान्य घण्टों की मस्ती के बाद हम बढ रहे थे गाडी की ओर थकन और प्यास ने होठों की नर्मी को छीन लिया था सख्त हो चले थे नर्म और नाजुक होंठ । शरीर मना कर रहा था चलने से हमारे साथ । किन्तु फिर भी हम बढ रहे थे एक दूसरे का चहेरा देखकर बस उत्साह का यही एक साधन था हमारे लिये एक दूसरे का थका चेहरा देख कर मुस्करा लेना ।मेघा सैनी सर के साथ पहले ही गाडी तक जा चुकी थी । किरन , महताब , अमन , और मैं बैठ गये खेत की नमी में कुछ आराम के बाद बिहारी उठा और बोला चलें मैंने भी हां में सर हिलाया महताब भी खडी हो गयी अमन और किरन असहाय से बैठे रहे अमन को बिहारी ने हाथ बढाकर खडा किया और किरन को मैंने अब अनछुआ अससास छू रहा था धडकनों के वेग को मन की उदासी ने कह ही दिया कि अब नहीं होगा कभी मिलन इन हाथों की रेखाओं का॥ जिस तरह हाथ की रेखायें कभी साथ नहीं चलती हैं उसी तरह हम भी हो रहे थे सफर के अन्तिम पडाब पर जुदा अहसासों की श्याई ह्र्दय से द्रवित होकर आखों में आ गयी बहता हुआ काजल उतर आया होठों तक । बस इतनी सी थी यह कहानी ।
-०-
सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान (असम)
-०-



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