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Wednesday, 16 December 2020

राजाबरारी (कहानी) - सुरजीत मान जलईया सिंह

राजाबरारी
(कहानी)
शहर की आबो हवा से दूर आज मैं जा रहा हूँ  गाँव की सरल मनमोहक मिट्टी पर जिसकी छुअन का अहसास ह्र्दय से हजारों सवाल कर रहा था । मेरी मौनता बढती जा रही थी तभी मेरे साथ आये मेरे साथियों ने गाढी में तेज आवाज के साथ संगीत बजा दिया जिसने छीन ली उस पल मेरे स्वप्न की दुनियां । मैंने देखा आगे बैठी सीट पर मेघा , महताब , किरन थिरक रही थीं संगीत की ध्वनि के साथ साथ मेरी पास वाली सीट पर बैठा मेरा दोस्त प्रवीन जिसे मैं प्यार से अक्सर बिहारी कह कर पुकारता हूं वो कुछ खाने मैं मस्त था । अमन ने आगे की सीट से मुझे पुकारा और फेंक दी दो तीन टाफिया जिन्हें पकडने में मैं असमर्थ रहा तभी किरन ने अपनी हथेली पर रखी एक टाफी बढा दी मेरी तरफ । मस्ती में सराबोर हम बढ़ते जा रहे थे आगे गाडी पथरीले रास्तों पर हवा से बात कर रही थी यकायक मेघा को उन घुमावदार रास्तों पर कुछ बेचैनी  हुई इधर मेरे सामने बैठी किरन ने भी अपना सर पकड लिया यह सब कुछ देखकर मुझे भी लगा कि शायद अब मेरा नम्बर है किन्तु मेरी हजारों यात्राओं के अनुभव ने मुझे बचा लिया और मैंने अपनी आखें बंद कर लीं । अधखुली आखें देख रही थी महताब को लगातार कुछ ना कुछ खाते हुये सफर सुहाना हो चला था । मैंने आवाज देकर गाडी रोकने को कहा मेघा ने मेरी बात का समर्थन किया और अमन ने ड्राइवर भैइया से जल्द ही गाडी किनारे लगाने की कह दी उसे लगा कि मेरी तबीयत कुछ खराब हुई है । मैंने गाडी का गेट खोला और सुनसान होते रास्ते को दूर तक देखा और पतझड होते मौसम की गंध में मैं लेट गया स्याह होती डाबर पर जब कोई और नहीं उतरा तो मैंने आवाज दी कोई मेरी एक फोटो खींचेगा पल भर में सारे दोस्त बहार गये और सुहाने मौसम में शुरु हुआ तश्वीर संजोने का सिलसिला उदास और परेशान चहरे खिल - खिला उठे । अब के गाडी चली तो हम यात्रा के मुख्य स्थल राजाबरारी पहुंच गये हम सबने गाडी से उतर कर तरो ताजा पाया राजाबरारी मेरे लिये नया नहीं था । हम सत्संग भवन के सामने खडे थे इसके पास ही रसोई था जहां पर यहां आने वालों के खाने की व्यवस्था होती है मैं रसोई में गया और पूछा भैइया क्या बना रहे हो तो उधर से आवाज आई पूडी सब्जी पास से ही एक गीत गुनगुनाती जानी पहचानी आवाज सुनी मुड्कर देखा तो वह कोई और नहीं हमारे ड्राइवर भैइया थे मैं मुस्करा उठा और बोल बैठा भैइया गाडी में तो आप बहुत चुप थे यहां अकेले में ऐसा मस्ती भरा गाना ड्राइवर भैइया शरमा गये और मैं अपनी मुस्कराहट के साथ निकल आया रसोई से बहार । किरन , महताब , मेघा सबने तब तक मुंह हाथ साफ कर लिये और पतझड होते पेडों के साथ होने लगा उनका फोटो शूट अब वो कुछ अच्छा महसूस कर रही थीं । पास आये सैनी सर ने हमें आवाज दी और बोले जब तक खाना तैयार हो रहा है हम नदी तक चल रहे हैं पूछ्ने पर उन्होंने प्राचीन किवदंतियों की एक कहानी कह सुनाई कि जहां हम जा रहे हैं वहां द्वापुर युग के समय के अर्जुन के तीरों के निशान हैं मैं तेजी से हंस दिया । हम सब गाडी में बैठे और चल दिये दस मिनट बाद हम एक गांव में जाकर रुके तो मेघा पूछ बैठी सर वो तीर कहां है तेज होती धूप के बीच अब जो सुना उससे पसीने छूट गये । सैनी सर बोले यहां से एक कोश पैदल जाना होगा मेघा ने शीघ्र ही गाडी का दरवाजा बंद किया लेकन अब वो हुआ जिसके होने की उम्मीद नहीं थी हमारे समूह के सबसे आलसी अमन ने हम सब कि हिम्मत बढाई और उसका यह प्रयास हमको गाडी से उतारने में सफल हुआ । एक आधुनिक सुविधाओं से कटा गांव पार करते ही खेतों के बीच पगडंडियों से गुजरते हुये हम पहुंच गये एक ढलान पर जहां पर बिहारी तेजी के साथ नीचे उतरता गया और वह जल्द ही नीचे नदी के तल पर था । किरन , महताब , मेघा तीनों जोर जोर से चिल्लाने लगीं हमसे नहीं होगा । सैनी सर ने समझाने का प्रयास किया किन्तु सैनी सर का उनको समझाने का प्रयास असफल रहा तभी सैनी सर ने मेघा का हाथ पकडा और तेजी से नीचे उतरने लगे । यह देख किरन और महताब ने भी हिम्मत की किन्तु वह हतास हुई और महताब ने अमन का सहारा लेकर नीचे उतरना जारी रखा किरन अब फिसलन  भरे रास्ते पर डरी सहमी आगे बढ रही थी यह देख मैं वापस हुआ और उसका हाथ पकड लिया । उसके हाथ को छूने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मैंने छू लिया हो कोई धधकता हुआ ज्वाला मुखी पसीना माथे से टपकने लगा शरीर शून्य हो चला यह मुझे क्या हुआ समझ नहीं आ रहा था धडकने उतर गयीं हो ढलान से बिना किसी अवरोध के स्वांस का स्पन्दन धीमा हो चला था । हम नदी के तल पर पहुंचे और मैं तपती हुई देह के साथ उतर गया नदी के जल में मैं खडा - खडा देख रहा था । फोटो शूट की आपसी होड में मैंने भी बिहारी को बुलाया और अपनी तश्वीर निकालने के लिये बोला नदी के शीतल जल में हो रहा था मैं सामान्य घण्टों की मस्ती के बाद हम बढ रहे थे गाडी की ओर थकन और प्यास ने होठों की नर्मी को छीन लिया था सख्त हो चले थे नर्म और नाजुक होंठ । शरीर मना कर रहा था चलने से हमारे साथ । किन्तु फिर भी हम बढ रहे थे एक दूसरे का चहेरा देखकर बस उत्साह का यही एक साधन था हमारे लिये एक दूसरे का थका चेहरा देख कर मुस्करा लेना ।मेघा सैनी सर के साथ पहले ही गाडी तक जा चुकी थी । किरन , महताब , अमन , और मैं बैठ गये खेत की नमी में कुछ आराम के बाद बिहारी उठा और बोला चलें मैंने भी हां में सर हिलाया महताब भी खडी हो गयी अमन और किरन असहाय से बैठे रहे अमन को बिहारी ने हाथ बढाकर खडा किया और किरन को मैंने अब अनछुआ अससास छू रहा था धडकनों के वेग को मन की उदासी ने कह ही दिया कि अब नहीं होगा कभी मिलन इन हाथों की रेखाओं का॥ जिस तरह हाथ की रेखायें कभी साथ नहीं चलती हैं उसी तरह हम भी हो रहे थे सफर के अन्तिम पडाब पर जुदा अहसासों की श्याई ह्र्दय से द्रवित होकर आखों में आ गयी बहता हुआ काजल उतर आया होठों तक । बस इतनी सी थी यह कहानी ।
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सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान (असम)
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