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Wednesday, 16 December 2020

वो मैं ही हूँ (कविता) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

  

इंसानियत
(लघु एकांकी)
हा,जी हाँ 
वो मैं ही हूँ ।
जिसका इस्तेमाल बहुत ही दुर्लभ हो चुका  था ।
बहुत कम मौकों पर ही,
मेरा जिक्र हो रहा  था । 
कम, कम,अब अधिक मात्रा में ,
मैं धुंधला हो चुका था ।
अस्तित्व कुछ रहे बाकी, 
बस इसी उम्मीद में ,
मैं दिन काट रहा था ।
अरे, ये क्या ?
इस तुफान ने तो संजीवनी बन, मुझे फिर से ,
आपके बीच खडा कर दिया है ।
मेरे सूखे पत्ते,
कहीं गुम हो चुके थे ,
जिन्होंने मुझसे वादा लिया था कभी ना हारने का।
वे सूखे अब,
नवांकुर बन
नव- चेतना ,नयी उमंग 
के साथ मुझमें नव-परिवर्तन की आशा जगा चुके हैं ।
वह बेवजह-सा तुफान ही आज,  मुझे पुनः जीवित करने में ,  सफल हो चुका है ।
हा ,जी हाँ 
यह मैं  ही हूँ ।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

***
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