इंसानियत
(लघु एकांकी)
हा,जी हाँ
वो मैं ही हूँ ।
जिसका इस्तेमाल बहुत ही दुर्लभ हो चुका था ।
बहुत कम मौकों पर ही,
मेरा जिक्र हो रहा था ।
कम, कम,अब अधिक मात्रा में ,
मैं धुंधला हो चुका था ।
अस्तित्व कुछ रहे बाकी,
बस इसी उम्मीद में ,
मैं दिन काट रहा था ।
अरे, ये क्या ?
इस तुफान ने तो संजीवनी बन, मुझे फिर से ,
आपके बीच खडा कर दिया है ।
मेरे सूखे पत्ते,
कहीं गुम हो चुके थे ,
जिन्होंने मुझसे वादा लिया था कभी ना हारने का।
वे सूखे अब,
नवांकुर बन
नव- चेतना ,नयी उमंग
के साथ मुझमें नव-परिवर्तन की आशा जगा चुके हैं ।
वह बेवजह-सा तुफान ही आज, मुझे पुनः जीवित करने में , सफल हो चुका है ।
हा ,जी हाँ
यह मैं ही हूँ ।
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-
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