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Wednesday 4 March 2020

चाहत (लघुकथा) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

चाहत
(लघुकथा)
दो अलग-अलग परिवार एक ही मकान में रहता है। हप्ते पन्द्रह दिनों के अंदर दोनों परिवार में एक-एक नई बहूएं आई । पहले आने वाली बहू सुंदर सुशील एवं पढ़ी लिखी थी, जबकि बाद में आने वाली बहू पहले वाली से काफी कमतर थी। पहले वाली बहू एक घंटे के अंदर घर का सारा काम निपटा कर दिन भर आराम करती थी जबकि दूसरी बहू धीरे-धीरे दिन भर काम करती रहती थी ।
पहले वाली के घर के लोग कहते थे-"तुम सारा दिन बैठे रहती हो कोई काम धंधा नहीं करती हो । नेहा को देखो दिन भर काम करती रहती है। कभी काम से जी नहीं चुराती। खाना बनाने के सिवाय भी बहुत सारा काम होता है ------------।"
उधर दूसरी बहू के घर के लोग कहते थे कितनी सुस्त है ये लड़की एक ही काम में सारा दिन लगी रहती है। तनु को देखो एक-दो घंटे के अंदर घर का सारा काम निपटा कर दिन भर मौज करती है।ये तो एकदम भोंदू है भोंदू ----------------।-" 
एक दिन दोनों बहुएँ आपस में बातें कर रही थी । अजब किस्मत है हमारी । तुम्हें धीरे-धीरे काम करने के लिए डांट पड़ती है और मुझे जल्दी-जल्दी । आखिर इनकी चाहत क्या है ? क्या चाहते हैं ये लोग? हमें इनकी चाहत पूरी करनी होगी।"
और दोनों चाहत पूरी करने के लिए तरकीब सोचने लगी।
-०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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प्यार कहीं खो सा गया है... (आलेख) - हिमानी भट्ट


प्यार कहीं खो सा गया है...
(आलेख)
पहले शादी का सफर कुछ इस तरह रहता था, ना कोई फोन का जरिया ना मिलना बस एक इंतजार और तड़प थी, और तड़प थी। खत का जरिया था संपर्क करने का उस लिखने के लिए को ना देखा जाता था अपने छोटे भाई बहनों से खींचने और लाने का काम किया जाता था उसके लिए उन्हें लालच दिया जाता था इंतजार में जो मजा था ।उसे बयां नहीं किया जा सकता। जवाब आने पर डर रहता था कोई देख ना ले क्या बोलेगा इस लेटर को पढ़ने के लिए घर का कोना ढूंढा जाता था रिलेशनशिप प्यार की गहराई होती थी बड़ों के लिए माल होता था 
फिर आई ट्रंक कॉल की बारी थोड़ी छूट तो मिली बात करने में बहुत परेशानी होती थी आने के लिए आपस में टाइमिंग को सेट करना पड़ता था उससे बात करने का सिलसिला चालू हुआ वह भी क्या टाइम हुआ करता था बात करने के लिए पड़ोसी क्या कॉल किया जाता था और कट कर दिया जाता था कॉल अटेंड करने के लिए समय बाद फिर कॉल आता इंतजार का मजा ही कुछ अलग है प्यार दीवाना होता था फिर घर घर में लैंडलाइन टेलीफोन आ गए लोगों को भी सुविधा मिली।
फिर आया एस एम एस मोबाइल फोन वीडियो कॉल इसमें लोगों के रिलेशनशिप हो गई गहरी लोग एक 1 मिनट का हिसाब रखने लगे । ज्यादा से ज्यादा वक्तफोन पर ही बिताना। किसी कारणवश किसी नेफोन नहीं उठाया इस का नतीजा लड़ाई झगड़ा रूठना। इसको कोई प्यार नहीं कहा जाएगा यह एक अट्रैक्शन है। इतनी बात करने के बाद भी आप लोगों ने एक दूसरे को क्या समझा।
लास्ट बट नॉट द लिस्ट‌  बड़ी-बड़ी सिटीज में देखने में आया है। शादी फिक्स होते हि साथ में घूमना ज्यादा से ज्यादा टाइम बिताना हर पल साथ रहने की कोशिश करना यह भारतीय परंपरा नहीं है विदेशी परंपराओं की नकल की जा रही है शादी से पहले लिव इन रिलेशनशिप मैं रहते हैं देखने के लिए साथ में ले सकते हैं या नहींइस पता नहीं बड़ों की मान मर्यादा को तोड़ दिया है अब नहीं रही कोई आंखों में शर्म इस तरह का रिश्ता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकता शादी होने के पहले ही रिश्ता खत्म।
-०-
पता 
हिमानी भट्ट
इंदौर (मध्यप्रदेश)
-०-

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जीवन साथी (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



जीवन साथी
                (कविता)
जीवन साथी तेरे बिन
ये दुनिया दुनिया नही लगती
जब तक हो ना दो चार बातें
ये ज़िन्दगी बढिया नही लगती

चाहे हो तोहफ़े का मामला
या घूमने फिरने का माजरा
मै उत्तर तो तू है दक्षिण
मै दस तो तू नंबर ग्यारह

गर मुझको जाना हो पीहर
रूक जाऊँ तंरी हँसी देखकर
क्यों इतना ख़ुश हो जाते हो
मुझे अपनी ससुराल भेजकर

जब होती ख़र्चे की बात
बंद हो जाती तेरी ज़ुबान
दुनिया भर का ख़र्च तो करते
मेरे वक़्त कमान कस जाती

कम करो तुम अपना ख़र्चा
कह के मेरा जीना दूभर किया
और मैंने तेरा कहा मान
एैसा ही जीवन जी लिया

बात आये जब बच्चों की
उनकी परवरिश मुझे है करना
मै तो पैसा दे देता हुँ
अब आगे सब तुम्ही को करना

जब बच्चा कुछ अच्छा करता
बच्चे का पापा नाम कमाता
और जब हो कुछ उलटा सीधा
सारा इल्ज़ाम बस माँ पर आये

वाह मेरे प्यारे जीवन साथी
हम तुम दोनो एैसे दीपक बाती
साथ तो चलते रहते हरदम
पर राह कभी भी मिल नही पाती
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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राहों के दीये आँखों में लिये ..... (संस्मरण) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'


राहों के दीये आँखों में लिये .....
(संस्मरण)

सन 1984 , कटनी से लगा हुआ गांव ' पहाड़ी ' l स्टेशन का नाम ' निवार ' जहाँ मेरी पोस्टिंग थी , शिक्षा विभाग , प्राथमिक कन्या शाला में l शाला बस्ती के बिल्कुल अंतिम छोर पर थी l मेरी उम्र अभी 30 के भीतर ही थी l नई नौकरी , नई उमंग , नया उत्साह l एक ही पैसिंजर ट्रेन थी , जो निवार रुकती थी l वह भी प्रातः 4 बजे पकड़ना पड़ती थी , जिसके लिए 3 बजे रात्रि से उठना पड़ता था l तब कहीं , घर की व्यवस्था बनाकर ट्रेन पकड़ पाती थी l ट्रेन आधे घंटे में ही पहुंचा देती थी निवार और विद्यालय लगता था साढ़े दस बजे से l हालाँकि , ट्रेन अक्सर लेट ही रहती थी l विद्यालय पहुँचने के लिए स्टेशन से पगडण्डी के रास्ते करीब दो कि. मी. चलना पड़ता था l स्टेशन पर ही मिल जाते थे , मिडिल स्कूल हेडमास्टर , अमकुही वाले राजाराम तिवारी l हम दोनों जनें बातचीत करते पहुँच जाते थे , अपने - अपने गंतव्य पर l किन्तु , मुझे अपना काफी समय बिताना पड़ता था , तब कहीं साढ़े दस बज पाते थे l कभी बस्ती में किसी शिक्षक के घर या फिर विद्यालय के पास पेड़ के नीचे या फिर स्टेशन में लगे गुलमोहर के नीचे l इस तरह प्रकृति से बतियाते गुजर जाता था वक़्त l कभी - कभी तिवारी गुरु जी न आते तो , अकेले ही पगडण्डी तय करना पड़ती l विद्यालय में बालिकाएँ भी मेरी चहेती बन गई थीं l उनकी मृदु मुस्कान मन को तरोताजा बनाये रखती l
एक दिन ट्रेन से उतरकर अकेली ही चली जा रही थी , पगडण्डी पर l तभी , आवाज आई , ' लुक जा रे , मैडम जी आ रही हैं ' l मैं थोड़ा रुकी l आम के पेड़ों की टहनियां हिलीं l मैंने देखा , टहनियों पर बैठे पत्तों के पीछे छिपे हैं बच्चे l मैं मुस्कुराई l बच्चों ने मुस्कुराते देखा तो , वे धम्म से नीचे कूदे ( यदि , मैं आँख तरेर कर डांटती , तो शायद वे छिपे ही रहते ) l
मैडम जी , नबस्ते l
नबस्ते नहीं , नमस्ते कहो l
वे हँसते हुए दोनों हाथ जोड़कर बोले - नमस्ते l
तुम्हारा नाम क्या है ?
एक ने अपने हाथों से टायर का चक्का और डंडा फेंककर दोनों हाथों से पेंट ऊपर चढ़ाकर कहा - विभु l
और तुम्हारा ?
दूसरे ने नीचे बह आई नाक सुड़कते हुए कहा - रिजु l
वाह ! विभु और रिजु , तुम लोगों का नाम तो बहुत प्यारा है l
दोनों के बाल बिखरे और गाल मैले थे l अभी विद्यालयीन समय के लिए मुझे दो घंटे बिताना थे l सो , मैंने वहीँ पेड़ के नीचे बैठते हुए कहा -
भाई विभु और रिजु , तुम्हें कहीं जाना तो नहीं है ?
नहीं l
अच्छा , तो अभी क्या करोगे ?
चक्का चलाएंगे , आप देखेंगीं ?
हाँ , बिल्कुल देखूंगी , देखो कौन जीतता है l
विभु बोला - दुई मिनट में यहाँ से वहां तक रगेद मारूंगा l ये रिजु तो फिसड्डी है l
अच्छा , तो आज रेस हो जाय l
दोनों ने नीचे खिसक आये मैले - कुचैले पेंट ऊपर खिसकाए , नाक सुड़की और तेजी से चक्का चलाते हुए भागे l जब तक वे लौटे , मैं उनके भागते क़दमों को देखती , पुलकती रही , बचपन को महसूस करते हुए l वे लौटे तो , विभु वाकई प्रथम आया था l वे हाँफते हुए हंस रहे थे l यही कोई पांच - सात बरस के बच्चे थे वे l मैंने उन्हें बिस्कुट खाने को दिए l उनकी आँखों के दीये बहुत रौशन थे l मैं उन की खिलखिलाहट और दीयों की जगमगाती रौशनी में नहाती रही , देर तक l एक - दो कहानियां हुईं , एक - दो कविता l उन दोस्तों से मेरी दोस्ती प्रगाढ़ हो चली थी l मेरे विद्यालय का वक़्त हो गया था l मैंने उनसे नहीं कहा कि विद्यालय चलो l डर था , कहीं वे दूसरे दिन से दिखाई ही न दें l मैंने सोचा , थोड़ा उन्हें रम जाने दें l
विद्यालय में कन्याएं मेरी प्रतीक्षा में रहतीं l प्रार्थना ' जन गण मन ...... ' कराने के उपरांत मैंने ' ईश विनय ....... ' सिखाने का प्रयास किया था l वह बालिकाओं को बहुत अच्छी लगी -
' वह शक्ति हमें दो दयानिधि , कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं ,
कर सेवा पर उपकार में हम , निज जीवन सफल बना जावें '
बच्चों ने शीघ्र ही ' ईश विनय ' याद कर ली थी l भक्तिभाव से हाथ जोड़कर , नेत्र बंद कर बालिकाएं विनय करतीं l कुछ नटखट बच्चे एक आँख खोल कर देख भी लेते थे l शाला की प्रधानाध्यापक अंगूरी जैन भी बहुत खुश हुई थीं l विद्यालय से घर आने के लिए एक ही आखिरी बस मिलती थी साढ़े चार बजे l उसके बाद कोई साधन न था , वापस आने के लिए l मैं उसी आखिरी बस से घर आ जाती थी l घर में भी नन्हीं - मुन्नी बालिकाएं और ' विभु - रिजु ' याद आते रहते l
दूसरे दिन तिवारी जी मेरे साथ थे , स्टेशन पर l ठण्ड कड़ाके की थी l वे नंग - धडंग से बिखरे बाल वाले विभु , रिजु पेड़ पर लटके थे , जैसे ऊपर चढ़कर सूरज को आवाज दे रहे हों और सूरज ने उनकी सुन भी ली l सुनहरी किरणें पत्तों से झाँकने लगीं , उनके चेहरों पर सुनहरी रंगत बिखेरते हुए l मैंने उन्हें आवाज दी l पर , वे नहीं उतरे , बल्कि गुरु जी को देखकर और छिप गए l इस तरह मिलते रहे विभु , रिजु l एक दिन मैं फिर अकेली थी , पगडण्डी पर चलते हुए l किलकारी भरते विभु , रिजु चक्का हांकते आ गए थे -
मैडम जी , बैठो न अमरैया में l
ठीक है , पहिले तो तुम दोनों जाओ और अच्छे से मुंह - हाथ धोकर , नाक साफ़ करके आओ l
पास ही तालाब था l वे गए और आ गए धुले - धुले , पानी चुचवाते l मैंने पर्स में रखा नेपकिन निकालकर दिया - लो अच्छे से पोंछकर इसे रख लो l उन की खिलखिलाती आँखों के दीपक झिलमिलाने लगे l
कौन - कौन है तुम्हारे घर में ?
विभु ने बताया - ये रिजु है , म्रेरा छोटा भाई , बाबा हैं घर पर लेकिन , तबियत खराब रहती है l माँ तो चली गई भगवान के घर l
वे रुआंसे हो गए l
बाबा क्या करते हैं ?
कुम्हार हैं , दीवाली आ रही है , दीया बनाएंगे l पर अब कोई खरीदते ही नहीं , बहुत कम बिकते हैं l मटका भी कम ही बिकते हैं l
उनकी आँखों के दीये बुझे - बुझे लगने लगे l मुझे अपने पर कोफ़्त हुआ कि मैंने यह सब क्यों पूछ लिया l खैर , जानना भी जरुरी था l
स्कूल जाओगे ?
कभी नहीं l
क्यों ?
बड़े गुरु जी का डंडा देखा है आपने ? एक दिन राजेश को मारा था और झापड़ भी मारा था , उसकी चमड़ी उधड़ गई थी , तो उसकी माँ ने मूड़ में हाथ फेरकर प्यार किया था l
वह चुप हो गया था l
हमारे तो माँ भी नहीं है , कौन चुपायेगा ?
मैं पढ़ रही थी , उनके चेहरे पर आते - जाते भाव को l
मैंने ठंडी साँस भरी -
अच्छा , अब स्कूल में कोई नहीं मारेगा तुम्हें l सरकार ने मार - पिटाई बंद करवा दी है l
फिर भी हम न जायेंगे l चक्का चलाएंगे और चलाते - चलाते बड़े हो जायेंगे l अच्छा कोई बात नहीं , चलो कुछ खेलते हैं l
आज ट्रेन आठ बजे ही आ गई थी l अभी ढाई घंटे गुजारने थे मुझे l
मैंने कहा - कुछ कंकड़ बटोर कर लाओ l
वे ढेर सारे कंकड़ लेकर आ गए l
चलो गिनते हैं l
मैंने तीन ढेरी बनाईं l
किसके पास कितने कंकड़ हैं ? सरकाते चलो l
वे गिन रहे थे l जहाँ भूल रहे थे , मैं सुधार कर रही थी l इस तरह कुछ ही दिनों में वे सौ तक गिनती सीख गए l ढेरी बनाकर दो से दस तक के पहाड़े उन्हें याद हो गए l अब विभु और रिजु अपने बाबा से कहकर आते , हम स्कूल जा रहे हैं l और उन दो बच्चों का विद्यालय अमरैया के नीचे लगता , जिसका समय हमारी ट्रेन के पहुँचने के अनुसार संचालित था l कभी गिनती के गीत , जोड़ - घटाने के गीत और कभी पहेलियाँ भी l मुझे स्वयं आश्चर्य था कि ये चक्का चलाने वाले नाक सुड़कू बच्चे इतनी जल्दी कैसे सीख गए ! किन्तु , लिखना तो उन्हें कुछ भी न आता था l वे उत्सुक थे , लिखने के लिए l बस फिर क्या था , पेड़ के नीचे की मिट्टी साफ - सुथरी कर हाथ से बच्चों ने समतल कर ली l मैंने पतली सींक से ककहरा लिखना शुरू किया l
पर , विभु , रिजु बोले - नहीं , मैं सबसे पहिले माँ लिखूंगा l
माँ क्यों , बाबा क्यों नहीं ?
वे तो हैं न पास में , माँ नहीं है , इसलिए पहिले माँ लिखूंगा , फिर माँ को पुकारूंगा l बाबा कहते हैं , ' सच्चे मन से पुकारोगे तो , माँ किसी न किसी रूप में आएगी ' l इसलिए हम लोग माँ को बुलाते भी हैं l

अच्छा , कैसे बुलाते हैं ?
वे दौड़कर अलग - अलग पेड़ के पीछे छिप गए और माँ ssss ... कहकर पुकारने लगे l ह्रदय को चीर देने वाला आर्तस्वर दिशा - दिशा में गूंज गया l देर तक गूंजता रहा , वह आर्तनाद l ' वे माँ को पुकारकर लौटे तो , उनके चेहरे पर ऐसी आभा खिली थी , जैसे पूजा करके लौटे हों ' l मैंने प्यार से उनके सिर पर हाथ फेरकर सीने से चिपका लिया l ऐसा आर्तनाद सुनकर तो पत्थर भी पिघल जाए , फिर मैं तो माँ थी ना ! अभी आधा घंटा शेष था मुझे विद्यालय जाने में l मिट्टी की पीठ पर उकेरे जाने लगे अक्षर l मिट्टी को भला क्या एतराज हो सकता था , वह खुश थी , बच्चे मिट्टी से जुड़े सीख रहे थे माँ , बाबा , ककहरा .... और पेड़ - पौधों के सानिद्ध्य में ,पर्यावरण विज्ञान सब कुछ मजे - मजे में l मैंने मन में सोचा , एक दिन वे सीख ही जायेंगे जीवन का ककहरा भी l
दो वर्ष तक मुझे गांव में ही रहना था , उसके बाद ही सरकारी नियम के अनुसार स्थानांतरण हो सकता था l राष्ट्रीय , धार्मिक , सामाजिक त्यौहार आते - जाते रहे l विभु , रिजु सीखते रहे , जानते रहे , समझते रहे , उन सब के बारे में l सीखते रहे , राम , कृष्ण , गाँधी के जीवन की बातें और इतना ही सब सीखती रहीं स्कूल की लड़कियां भी l एक वर्ष गुजरने वाला था , एक दिन स्टेशन पर मन हुआ , गुलमोहर के नीचे ही बैठूं , उसी से बतयाऊँ , लेकिन ये खिलंदड़े विभु , रिजु भी अब मुझे गुलमोहर जैसे ही लगने लगे थे l मेरे न पहुँचने पर वे बहुत शिकायत करते l उस रोज जब पहुंची अमराई में , तो चक्के एक तरफ रखे थे और वे दोनों गीत गा रहे थे -
नन्हा - मुन्ना राही हूँ , देश का सिपाही हूँ
बोलो मेरे संग जयहिंद जयहिंद जयहिंद .........
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम ,
दायें बायें दायें बायें हम ....
मैंने जोरदार शाबाशी देते हुए ताली बजाई - वाह ! तुम दोनों तो बहुत बढ़िया गाते हो l
वे झेंपते हुए बोले - आज फिर इतनी देर से क्यों आईं ?
उनकी ठुनक सचमुच नन्हें - मुन्नों की ठुनक थी l मैंने दायें , बायें उन्हें बताया , पूरब , पश्चिम भी बताया l सावधान , विश्राम भी करवाया और कहा , चलो ' राष्ट्रगान करते हैं l अब उनके चेहरों से उल्लास टपक रहा था -
' जन गण मन अधिनायक जय हे ... ' वे शीघ्र ही सीख गए , प्रतिदिन के अभ्यास से l अब विभु , रिजु धरती की पीठ पर लिखने लगे थे , अपना नाम l कभी - कभी पेड़ों पर भी वे अपने नाम के साथ माँ लिखते l एक दिन तो लड़ियाते हुए कहने लगे - माँ आपके जैसी ही होती होगी ना ? पढ़ते - लिखते वे मुझे मैडम की जगह माँ ही कह जाते l उस वक़्त मेरा मन माँ गंगा में उठती पावन लहरों से जैसे भीग जाता और भीगा रहता देर तक l विभु , रिजु अब नाक नहीं बहाते थे l साफ़ - सुथरे , नहा - धोकर आते थे l चक्का , डंडा , पेड़ , तालाब उनके खेल संगाती थे l
दो वर्ष बीतते समय न लगा l इस वर्ष विभु , रिजु विद्यालय जाने के लिए तैयार थे l उनके भीतर का डर ख़तम हो चुका था l दीवाली का त्यौहार लगभग पास ही था l गांव से सब शहर जाते थे दीये बेचने l विभु , रिजु के बाबा ने भी दीये बनाये थे l विभु , रिजु ने कहा , आप मेरे घर नहीं चलेंगीं ? मैंने सोचा , ट्रांसफर भी होने वाला है , इतने दिनों में इनके बाबा कभी मिलने भी नहीं आये l अभी समय है , चलो मिल लेते हैं l
आगे - आगे विभु , रिजु उमंग से दाएं - बाएं करते हुए चल रहे थे और मैं उनके पीछे - पीछे चल पड़ी l बाहर से ही आवाज लगाई , उन खिलंदड़ों ने - बाबा sss , देखो कौन आया है l बाबा का स्वर गों गों गों जैसा सुनाई दिया l मैंने अंदर जाकर देखा , तो कुछ देर स्तब्ध खड़ी रह गई l कुम्हार का चाक चल रहा था l दीयों का ढेर लगा हुआ था किन्तु , दोनों पैर से लकवाग्रस्त , अपाहिज , मुंह से बोलने में लाचार बाबा l मेरे भीतर ही भीतर रुदन फूट पड़ा - हे ईश्वर , तूने ये क्या दर्द दिया l ऐसे ही हालातों को देखकर शायद कवि प्रदीप ने ये पंक्तियाँ लिखी होंगीं
- ' हमने जग की अजब तस्वीर देखी
इक हँसता है दस रोते हैं '
विभु , रिजु ने खटिया सरका दी , मेरे बैठने के लिए l बाबा के दोनों मिट्टी सने हाथ नमस्कार में जुड़ गए l आँखों से बहती अविरल धारा के साथ क्या - क्या बह रहा होगा , दुःख , विषाद , मज़बूरी , नेह , मान - सम्मान ! वह धारा दीयों में गिर रही थी टप टप टप ... l मैं जाने लगी , मेरे हाथ भी जुड़ गए , विदा लेते हुए l मेरे मुंह से बोल न फूट रहे थे , क्या बोलती l सहानुभूति की भाषा मौन भी हो सकती है l
एक सप्ताह के बाद मेरे ट्रांसफर का आदेश आ गया l छात्राओं के हाथों में गुलाब के फूल थे और आँखों में उदासी l मेरा मन हर्ष - विषाद के हिचकोले खा रहा था l मैं चल पड़ी , साथ में चल पड़ा , यादों का काफिला l रास्ते में विभु , रिजु दीयों से भरा टोकना लिए खड़े थे l मैंने सोचा , गांव में कौन कितने दीये खरीदेगा ? मैं उस रोज भी पेड़ के नीचे बैठ गई l मैंने विभु , रिजु से कहा - गिनना तो जरा सौ दीये l विभु ने दस - दस की ढेरी बनाते हुए पढ़ दिया पूरा दस का पहाड़ा l दोनों बोले - दस दहाम सौ l
शाबास , ये लो सौ दीये के दाम और ये दीये थैले में भरकर मुझे दे दो l
वे एक फट्टी का थैला ले आये और भर दिए दीक्षा में दीये l मैं थैला हाथ में लिए चल तो रही थी किन्तु , ह्रदय फूट - फूटकर रो रहा था - विभु रिजु , तुम रोज स्कूल जाना , एक दिन पढ़ - लिख कर जब बड़े हो जाओ , तो आना बेटे मिलने l बच्चों ने आंसू पोंछते हुए पल्लू पकड़कर ' माँ ' कहा था l अनायास गुलजार की पंक्तियाँ बींधने लगीं मुझे -
राहों के दीये आँखों में लिए बढ़ता चल ..... .....
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डॉ. सुधा गुप्ता ' अमृता '
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
दुबे कालोनी , कटनी 483501 (म. प्र.)
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