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Wednesday, 30 October 2019

वजूद (कविता) - डॉ दलजीत कौर

वजूद 
(कविता) 
तुम पुरुष / तुम सभी कुछ
मैं औरत / मैं कुछ भी नहीं
तुम जन्मे /तुम्हारे अपने सब
मैं पराई / माँ -बाप के लिए
मैं गैर / सास -ससुर के लिए
मेरा घर / कहीं नहीं
मेरा अपना / कोई नहीं
तुम पुरुष / सार्री दुनिया तुम्हारी
मैं क्या ?
मेरा कुछ वजूद नहीं ?
पुरुष हो तुम / तो क्या ?
मैं कठपुतली तो नहीं |
बनाऊँगी मैं वजूद अपना
सच करुँगी हर सपना
तोडूंगी बाधाएँ
मैं कुछ कर दिखाउंगी
दुनिया में आगे निकलकर
नाम से / महान कहलाऊँगी
हर औरत की मैं
पहचान बन जाऊँगी
हाँ ! मैं औरत
मेरा भी वजूद है
मेरा वजूद है |
-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर 
2571 सेक्टर -40 सी, चंडीगढ़

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रोशनी (लघुकथा) - सीमा जैन ‘भारत’

रोशनी
(लघुकथा)
दिये और तेल खरीद कर घर जा रही हूँ। धनतेरस का दिन है। जाकर पहले खाना बनाना है, फिर दिये जला लूँगी। बेटे को बुखार है। माँ इतनी कमज़ोर है कि उससे कुछ काम नहीं हो पाता।
घर पहुँची तो पड़ोसन रज़िया मुन्नी को गोद में लिए बैठी थी। मुझे देखकर बोली, “आज भी देर कर दी, तेरी मालकिन को दया नहीं आती क्या तुझ पर?”
थकी आवाज़ में मैंने कहा, “त्यौहार के दिन काम ज़्यादा रहता ही है। फिर मेहनताना भी ठीक-ठाक मिल जाता है, वह भी समय पर। ये भी क्या कम है, आज के ज़माने में!”
“अच्‍छा ठीक है। मैंने आटा लगा दिया है और भाजी काट दी है। ला, दिये मैं पानी में डाल देती हूँ। तू इस मुन्‍नी को संभाल, कब से रो-रोकर हलकान हुए जा रही है।”
रज़िया बोली।, "मैं सोच रही थी, रज़िया नहीं होती तो मैं कैसे काम पर जा पाती? इसके भरोसे ही तो छोड़ जाती हूँ, बेटे, मुन्‍नी और माँ को। रज़िया दीये पानी में डालकर बोली, “अब मैं जा रही हूँ, मुझे भी रोटी बनानी है।”
“रज़िया, देख न बाहर कितनी रोशनी है।” “हाँ, तू भी कर लियो अपने दरवज्‍जे रोशनी, दिये भीग रहे हैं अभी।”
पर मेरे मन में तो कुछ और ही चल रहा था। मैंने जल्दी से डिब्बे में से गुड़ का टुकड़ा निकाला और बोली, “रज़िया जरा रुक!”
अब क्‍या हुआ?” रज़िया जाते-जाते ठिठक गई। जवाब में मैंने रजिया के मुँह में गुड़ का टुकड़ा डाल दिया और बाँहें फैलाकर बोली, “दरवज्‍जे पर रोशनी तो वे चार दिये करेंगे ही, पर असली रोशनी तो तेरे दिल में है!”
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सीमा जैन ‘भारत’
ग्वालियर
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दीपावली की तीन कविताएँ (कविता) - डॉ अवधेश कुमार अवध


दीपावली की तीन कविताएँ (कविता)
1- 
दिवाली 
कोई तो हमको समझाये, होती कैसी दीवाली!
तेल नदारद दीया गायब, फटी जेब हरदम खाली।
हँसी नहीं बच्चों के मुख पर,चले सदा माँ की खाँसी।
बापू की आँखों के सपने, रोज चढ़ें शूली-फाँसी।
अभी दशहरा आकर बीता,सीता फिर भी लंका में।
रावण अब भी मरा नहीं है, क्या है राघव-डंका में!
गिरवी माता का कंगन है, बंधक पत्नी की बाली।
कोई तो हमको .................!
राशन पर सरकारें बनतीं, मत बिकते हैं हाटों में।
संसद की हम बात करें क्या, तन्त्र बँटा है भाटों में।
ईद गई बकरीद गई औ, तीन तलाक बना मुद्दा।
सवा अरब की आबादी, पर लावारिस दादी दद्दा।
मिडिया का कुछ हाल न पूछो,लगे हमें माँ की गाली।
कोई तो हमको..................!
अगर मान लो बात हमारी, दिल को दीप बना डालो।
सत्य धर्म ममता निष्ठा को, मीठा तेल बना डालो।
नाते रिश्तों की बाती में, स्वाभिमान-पावक भर दो।
जग में उजियारा फैलाये, ऐसी दीवाली कर दो।
ऐसे दीप जलायें मिलकर, कहीं न हों रातें काली।
कोई तो हमको..................!

2-
दीपोत्सव

सी जगह पर दीप जले अरु कहीं अँधेरी रातें हों ।
नहीं दिवाली पूर्ण बनेगी, अगर भेद की बातें हों ।।
ऐसे व्यंजन नहीं चाहिए, हक हो जिसमें औरों का ।
ऐसी नीति महानाशक है, नाश करे जो गैरों का ।।
हम तो पंचशील अनुयायी, सबके सुख में जीते हैं ।
अगर प्रेम से मिले जहर भी, हँस करके ही पीेते हैं ।।
चूल्हा जले पड़ोसी के घर, तब हम मोद मनाते हैं ।
श्मशान तक कंधा देकर, अन्तिम साथ निभाते हैं ।।
किन्तु चोट हो स्वाभिमान पर,जिन्दा कभी ना छोड़ेंगे ।
दीप जलाकर किया उजाला, राख बनाकर छोड़ेंगे ।।
दीपोत्सव का मतलब तो यह,सबके घर खुशहाली हो ।
दीन दुखी निर्बल के घर भी, भूख मिटाती थाली हो ।।
प्रथम दीप के प्रथम रश्मि की,कसम सभी जन खाएँगे।
दीप जलाकर सबके घर में, अपना दीप जलायेंगे ।।
घर घर में जयकारा गूँजे, कण कण में खुशहाली हो ।
सच्चे अर्थों में उस दिन ही, दीपक पर्व दिवाली हो ।।

3-
दीपों का बलिदान याद हो

जब मन में अज्ञान भरा हो,
अंधकार अभिमान भरा हो,
मानव से मानव डरता हो,
दिवा स्वप्न देखा करता हो,
गलत राह मन को भाती हो,
मानवता खुद शर्माती हो,
धर्म कर्म अभियान याद हो ।
दीपों का बलिदान याद हो ।।
सबके घर में उजियारा हो,
सर्वे सुखिन: का नारा हो,
जीने का अधिकार मिला हो,
सदाबहारी फूल खिला हो,
हर मुख के पास निवाला हो,
पढ़ने को बेहतर शाला हो,
भारत का गुणगान याद हो ।
दीपों का बलिदान याद हो ।।
पूर्वज की दिल में गाथा हो,
शर्म - शील उन्नत माथा हो,
उड़ने की चाहत मन में हो,
सारा भूमंडल परिजन हो,
नशा मुक्त मानव समाज हो,
नवल नवोदित सा सुराज हो,
न्यायोचित बुनियाद याद हो ।
दीपों का बलिदान याद हो ।।
-०-
डॉ अवधेश कुमार अवध
मैक्स सीमेंट (प्लांट), चौथी मंजिल, एल बी प्लाजा जी एस रोड, भंगागढ़
गुवाहाटी-781005 (असम)
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खुशीयाँ रहे भरपूर (कविता) - निक्की शर्मा 'रश्मि'


1
खुशीयाँ रहे भरपूर
(कविता)
देखो कई रंगों में सजी रंगोली
दीपक संग इठलाई रंगोली
आपस में देखो बातें करते
दिल से दिल इनके भी मिलते
पूजा वंदन से हो हो जाएगें
सब के घरों के क्लेश दूर
दीपक रोशनी से जगमगाए
हर दिन खुशियां रहे भरपूर
-०-
2
मन का अंधेरा करो तुम दूर
(कविता)
दीप जलाकर सबसे पहले
मन का अंधेरा करो तुम दूर
भूल गए हो इंसानों की प्रवृत्ति
रहते हो खुद से तुम दूर
दया,ममता, प्रेम, करुणा सब
भूलकर तुम बैठे हो
इंसानों की शक्ल में क्यों
हैवानों सा तुम करते हो
मन का मैल धुल जाने दो
नफरत को भी बह जाने दो
फिर से रोशन हो जाने दो
प्रेम के दीपक जल जाने दो
-०-
निक्की शर्मा 'रश्मि' 
मुम्बई

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धन लक्ष्मी (कविता) - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’


धन लक्ष्मी
(कविता)
जब दीपावली इस साल आयी,
सबको लक्ष्मीजी की फिर याद आयी।
तिजौरी से निकालकर फिर उन्हें पूजा,
ले न जाये कहीं कोई और दूजा।।

घी तेल के खूब दीपक जलाये,
साथ में मिठाई के भी थाल सजाये।
पूजा की और जोडे़ फिर हाथ,
छोड़ न देना कभी मेरा साथ।
हम करते है आपसे यही आस,
इसी तरह आते रहना हमारे पास।

किसी के पास आती हो अधिक,
तो किसी के पास कम।
इसी बात का बेचारे ग़रीबों को,
सदा रहता है ग़म।
वे कहते है कि-
अब तो हम पर तरस खाओ।
जल्दी से अब हमारे पास आ जाओ।।
-०-
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
नई चर्च के पीछे,शिवनगर कालौनी,कुंवरपुरा रोड,
टीकमगढ़ (म.प्र.)पिन-472001

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