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Tuesday, 10 December 2019

कहता मन (हाइकु) - पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'



कहता मन
(हाइकु)

अकेला मन,
उधेड-बुन कर
जीवन धारा ।

कहता मन,
समझाता है तन,
चलते हम ।


गहन सोच,
डूब रहा समाज,
कहते सब ।

हैवान युवा,
भटकती जिंदगी, 
प्रश्नचिन्ह है ।
-०-
पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
नागपुर (महाराष्ट्र)
-०-

***
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माता पिता जीवन के आधार (कविता) - डॉ. रेनू सिरोया 'कुमुदिनी'

माता पिता जीवन के आधार 
(कविता)
मात पिता तो जीवन के आधार होते हैं
ये मांझी है कश्ती की पतवार होते हैं

ममता का स्वरुप है ये सुबह की धूप है
डोर ये विश्वास की प्रार्थना का रूप है
जीवन भर इनके सदा उपकार होते हैं

जन्म प्रदाता भाग्य विधाता पावन ये पहचान है
आरती मंदिर की है ये भक्ति का मीठा गान है
नैतिकता की नीवं वही संस्कार होते है

माँ ममता का आँचल है पिता धूप में छाँव है
माँ फूलों की पगडण्डी तो पिता नेह का गाँव है
रिश्तों की बगियाँ की ये बहार होती है

थामकर ऊँगली चलाया बाँहों में हमको झुलाया
फूल राहों में बिछाएं शूलों को पथ से हटाया
बागवान ये सृष्टि का उपहार होते है

पत्थर थे हम अनगढ़े नेह से हमको तराशा है
जीवन की मुश्किल डगर उम्मीदों की आशा है
तपते मरुथल में शीतल फुहार होते है

किस्मत उनकी उजली जिनको मात पिता का प्यार मिले
धन्य है माँ की कुक्षि कुमुदिनी सारा ही संसार पले
दीप ख़ुशी के इनसे ही त्योंहार होते है
-०-
पता: 
डॉ. रेनू सिरोया कुमुदिनी 
उदयपुर (राजस्थान)
-०-

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साहिल (कविता) - गीतांजली वार्ष्णेय

साहिल
(कविता)
खड़े थे साहिल पे,तूफ़ां का गुमां न था
आएगी मुसीबत इस तरह, पता न था।
जिंदगी के सफर में चले थे तलाशने मंजिल
राहें होंगी काँटों भरी, ये शुबा न था ।।

खोए थे ख्यालों मैं,हलचल थी पानी में,
डुबा ही देगी लहर,ये सोचा ही न था।
किनारों पे डूबा करती है कश्तियां,
इस हकीकत का हमको पता न था।।

भूल हुई साहिल को मंजिल समझ बैठे,
साहिल पे डूबी कश्ती हमारी,संघर्षों का समय न था।
जीवन नैया खड़ी किनारे पर,
मगर पतवार का हमको पता न था।।

अक्सर तूफान में किनारे मिल जाते है,
हमसे क्या क्या छूटा,मंजरों को पता न था,
छोड़कर चाहत फूलों की,काँटों से दिल लगा बैठे,
फूलों में छिपे हुए शूल का पता न था।।
-०-
पता:
गीतांजली वार्ष्णेय
बरेली (उत्तर प्रदेश)
-०-
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नौटंकीबाज (कविता) - हेमराज सिंह

नौटंकीबाज
(कविता)
आजकल बदल गई नोटंकी
और बदल गए नोटंकीबाज
किरदार बदल गए,
मंच बदल गए।
देश बदल गए,
परिवेश बदल गए।
अब हँसना हँसाना विषय नही रहें
और न ही रहा इनका
सामाजिक सरोकार
अब देखी नही जाती नोटंकी
किसी चौराहे पर
या गली के किसी नुक्कड़ पर
लोगों का मनोरंजन करते।

बल्कि सजते है
मंच संसदऔर विधानसभाओं में
जहाँ किरदार होते है
सफेदपोश चेहरे
जो अपने से लगते है पर
होते नही
जो खेलते हे फरेब व धोखे का खेल
और ठगते है भोली जनता को
इन्हें देखा जाता है
किसी सभा में छलते जनता को
और अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते
या किसी सैनिक या किसान कि अकाल मौत पर
घडियाली आँसू बहाते
या किसी गरीब की झौपड़ी में विलायती होटल का खाना खाते
उस गरीब की थाली में
उसी का कहकर

कहाँ नही है इनके सगे
देख सकतें हो इन्हें
किसान के खेत कि मेड़ पर
स्वार्थ की मिट्टी ढ़ोते
या अपने ही सगे नोटंकीबाजों
पर दिखावटी हमले करते
बड़े चालाक होते है आज के
नोटंकीबाज
अब नही लगता बच पाएगे
हम इनसें
बचा नही पाएगा ईश्वर भी
लगता है, डरता है वह भी
इनके कारनामों से
-०-
पता:
हेमराज सिंह
कोटा राजस्थान
-०-

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बुकिंग (लघुकथा) - श्रीमती सरिता सुराणा

बुकिंग
(लघुकथा)
बाजार में खरीदारी के दौरान अनीता को उसकी पुरानी पड़ौसन मिल गई। दोनों वहीं साइड में खड़े होकर बातें करने लगी। बातों ही बातों में पड़ौसन ने बताया कि उसकी बुआ गुजर गई है। सुनकर अनीता ने अफसोस जताते हुए कहा- अभी तो उनकी उम्र छोटी ही थी।'
तब पड़ौसन ने कहा- 'मौत उम्र को थोड़े ही देखती है। अभी तो बेटे की शादी तय की थी और दस दिन बाद ही शादी होने वाली थी।'
'तब तो शादी पोस्टपोन कर दी होगी।'
'नहीं, शादी कैसे रुक सकती है? आपको तो पता ही है कि आजकल आने-जाने की टिकटें, कैटरिंग, फंक्शन हाॅल, डेकोरेशन आदि सबकी एडवांस बुकिंग रहती है। उन सबको कैंसिल करने से लाखों का नुक़सान हो जाता।'
यह सुनकर अनीता सोचने लगी कि आज़ के इस भौतिकवादी युग में आदमी करे तो क्या करे? मां की मौत का शोक मनाए या 'बुकिंग' जारी रखे?
-०-
श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
-०-

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