Wednesday, 22 January 2020
आम लड़कियो की कहानी (कविता) - रश्मि शर्मा
आम लड़कियो की कहानी
(कविता)
लड़की पढ़ाओ,देश बढ़ाओ सब ने सुना होगा।
लड़की को मां-बाप ने पढ़ाया भी होगा।।
पढ़ाया पैसा खर्च किया फिर दहेज भी दिया होगा।
ससुराल मे अपने दिल के टुकड़े को भेजा भी होगा।।
लड़की ने अपने पैरो पर खड़े होने की ललक भी रखी होगी।
अपने बल पर कुछ कर गुजरने की ठानी होगी।।
दो परिवारो की मान- प्रतिष्ठा सम्मान बढ़ाने की सोची होगी।
क्या करे जब गाँव के कुछ कायदे कुछ सोच सामने आई होगी।।
अपनी सोच जब ससुराल पक्ष से टकराई हाेगी।
आपने सपनो को त्याग कर बड़ो की बात मानी होगी।।
अपनी पढ़ाई अपने सपने ताक पर रखना पड़ा होगा।
कितने सवालो से जूझते हुये अपने सपने इच्छा त्यागी हाेगी।।
बाप ने जो पढ़ाया लड़की ने जो पढ़ा होगा।
सब बलि ससुराल के पक्ष के व्यक्तियो के लिए चढ़ा दी होगी।।
प्रेषित कर्ता : राजकुमार जैन राजन, मच्छिंद्र भिसे
सृजन महोत्सव
at
Wednesday, January 22, 2020
No comments:
देदीप्यमान लौ हूँ (कविता) - ज्ञानवती सक्सेना
देदीप्यमान लौ हूँ
(कविता)
मैं मैं हूँ,
आंगन की रौनक हूँ
फुलवारी की महक हूँ,किलकारी हूँ,
मैं व्यक्ति हूँ, सृष्टि हूँ
अपनों पर करती नेह वृष्टि हूँ
मैं अन्तर्दृष्टि हूँ,समष्टि हूँ
ममता की मूरत हूँ
समाज की सूरत हूँ
मैं मैं केवल देह नहीं
संस्कृति की रूह हूँ
मैं पावन नेह गगरिया हूँ
मैं सावन मेह बदरिया हूँ
मैं इंसानियत में पगी
अपनेपन में रंगी
सपनों से लदी
अपनों में रमी
मौज हूँ
धड़कता दिल हूँ
आला दिमाग हूँ
राग हूँ, रंग हूँ
फाग हूँ ,जंग हूँ
मंजिल हूँ, मझधार हूँ
मैं जन्नत हूँ,मन्नत हूँ
मैं मैं हूँ
मैं ख्वाब हूँ, नायाब हूँ
लाजवाब हूँ
किसी की कायनात हूँ
मैं संस्कार हॅू
सभ्यता का आयाम हूँ
संस्कृति का स्तंभ हूँ
उत्थान -पतन का पैमाना हूँ
मैं दुर्गा हूँ, सरस्वती हूँ
मैं सीता हूँ, सावित्री हूँ
मैं धरा हूँ, धुरी हूँ
मैं शक्ति हूँ, आसक्ति हूँ
मैं सावन की फुहार हूँ ,
घनघोर घटा हूँ
मैं आस्था हूँ ,विश्वास हूँ
मैं उत्साह हूँ, उल्लास हूं
मैं साधन नहीं साधना हूँ,
आराधना हूँ
ना भोग हूँ, ना भोग्या हूँ
परिपक्व क्षीर निर्झर हूँ
परिवार का गुमान हूँ
ईश्वर का वरदान हूँ
देदीप्यमान लौ हूँ
देदीप्यमान लौ हूँ
मैं मैं हूँ
मैं मैं हूँ
पता :
ज्ञानवती सक्सेना
जयपुर (राजस्थान)
जयपुर (राजस्थान)
-०-
प्रेषित कर्ता : राजकुमार जैन राजन, मच्छिंद्र भिसे
सृजन महोत्सव
at
Wednesday, January 22, 2020
4 comments:
सात सूर (कविता) - राजू चांदगुडे
सात सूर
(कविता)सात सुरोंका संगम न्यारा,
जिससे सजता गीत सुनहरा।
जीवन के हर सुख दुख मे,
ना छोडेगा जो साथ हमारा।।
प्यारा प्यारा गीत बनाके,
दिल को जो बहलाता है।
सप्तसुरों को सजा दिया तो,
बिखरा जीवन फिर बनता है।।
बांध के पैरो मे पैंजन,
हाथो मे करे चुडीया खन खन।
लय मे चलना, सूर से मिलना,
यही तो है संगीत का जीवन।।
बच्चो सूनलो, इसको चुनलो,
झुमो-नचो-गावो तुम।
लेहेरा दो हवा मे पतंगे,
दिल से दिल को निभावो तुम।।
जो भी दुनिया से है हारा,
उसके लिये संगीत सूनहरा।
सात सुरों का संगम न्यारा,
जीससे सजती जीवन धारा।।-०-
पता:
राजू चांदगुडे
पुणे (महाराष्ट्र)
-०-
***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें
प्रेषित कर्ता : राजकुमार जैन राजन, मच्छिंद्र भिसे
सृजन महोत्सव
at
Wednesday, January 22, 2020
No comments:
संग तराश (कविता) - अब्दुल समद राही
संग तराश
(मुक्तक रचना)
मैं हूंसंग तराश
एक
बेडोल-बेढंग-बेसूरत
पत्थर को
तराशते आये है
मेरे पूर्वज
उनकी
शिल्पी दृष्टि में
निखरे है
ताजमहल-लालकिला
कुतबमीनार
कई मठ
झरोखे वाली
हवेलियां
मंदिर-मस्जिद
चर्च-गुरूद्वारे
दरगाह-आश्रम
और
उसमें विराजमान
देवी-देवता
हमारे भगवान
हमारी
शिल्पकारी ने
सजाई-संवारी है
यह दुनिया
प्रेमभाव, शिष्टाचार
और
आदर का भाव
दिया है
जमाने को
मगर
आज मैं
बेढंग, बेतरतीब
बदसूरत
जिन्दगी जी रहा हूं
क्योकि
लोग
मेरी नही
मेरी शिल्पकारी की
वाहवाही में
मशगुल है
ठेकेदारों ने दिये है
चंद सिक्के
मजदूरी के रूप में
सिर्फ
पेट भरने के लिए
और वो
दोनों हाथों से
दुनिया लूट रहे हैं।***
पता:
अब्दुल समद राही
सोजत (राजस्थान)
-०-
प्रेषित कर्ता : राजकुमार जैन राजन, मच्छिंद्र भिसे
सृजन महोत्सव
at
Wednesday, January 22, 2020
No comments:
पिता (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’
पिता
(ग़ज़ल)
कभी बैठकर कभी लेटकर चल कर रोये बाबू जी,
घर की छत पर बैठ अकेले जमकर रोये बाबू जी।
अपनों का व्यवहार बुढ़ापे में गैरों सा लगता है,
इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबू जी।
बहुत दिनों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर खुश हो करके हॅस कर रोये बाबू जी।
नाती-पोते बीबी-बच्चे जब-जब उनसे दूर हुये,
अश्कों के गहरे सागर में बहकर रोये बाबू जी।
जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्वाला में तब दहकर रोये बाबू जी।
शक्तिहीन हो गये और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सहकर रोये बाबू जी।
हरदम हॅसते रहते थे वो किन्तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचाकर छुपकर रोये बाबू जी।
तन्हाई में ‘गुलशन’ की जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबू जी।
कभी बैठकर कभी लेटकर चल कर रोये बाबू जी,
घर की छत पर बैठ अकेले जमकर रोये बाबू जी।
अपनों का व्यवहार बुढ़ापे में गैरों सा लगता है,
इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबू जी।
बहुत दिनों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर खुश हो करके हॅस कर रोये बाबू जी।
नाती-पोते बीबी-बच्चे जब-जब उनसे दूर हुये,
अश्कों के गहरे सागर में बहकर रोये बाबू जी।
जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्वाला में तब दहकर रोये बाबू जी।
शक्तिहीन हो गये और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सहकर रोये बाबू जी।
हरदम हॅसते रहते थे वो किन्तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचाकर छुपकर रोये बाबू जी।
तन्हाई में ‘गुलशन’ की जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबू जी।
-०-
प्रेषित कर्ता : राजकुमार जैन राजन, मच्छिंद्र भिसे
सृजन महोत्सव
at
Wednesday, January 22, 2020
No comments:
Subscribe to:
Posts (Atom)
सृजन रचानाएँ
-
►
2021
(72)
- ► April 2021 (1)
- ► February 2021 (1)
-
▼
2020
(982)
- ► December 2020 (71)
- ► November 2020 (72)
- ► October 2020 (86)
- ► September 2020 (61)
- ► August 2020 (89)
- ► April 2020 (77)
- ► March 2020 (113)
- ► February 2020 (116)
- ▼ January 2020 (211)
-
►
2019
(402)
- ► December 2019 (169)
- ► November 2019 (156)